शनिवार, 27 जून 2020

देवशयनी एकादशी 2020

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आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को हरिशयनी एकादशी या देवशयनी एकादशी के नाम से जाना जाता है।किन्तु पुराणों में इस एकादशी का नाम पद्मा है। जो कि इस वर्ष 1 जुलाई 2020 को है।
वैष्णव संप्रदाय सहित समस्त सनातनी भगवद्भक्तों का परमप्रिय व्रत एकादशी भगवान विष्णु की आराधना का विशिष्ट पर्व होता है। सनातन हिंदू धर्म में बताए गए सभी व्रतों में आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी का व्रत सबसे उत्तम माना जाता है, क्योंकि इस एक ही व्रत को करने मात्र से सभी भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और साथ ही उनके सभी पापों का नाश भी होता है। देवशयनी एकादशी पर भगवान विष्णु की विशेष पूजा अर्चना करने का विशेष महत्व होता है. देवशयनी एकादशी को हरिशयनी एकादशी और 'पद्मनाभा' भी कहते हैं.मान्यता के अनुसार इसी रात्रि से भगवान का शयन काल आरंभ हो जाता है जिसे चातुर्मास या चौमासा का प्रारंभ भी कहते है.
आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक का चार महीने का यह समय हरिशयन का काल समझा जाता है। वर्षा के इन चार महीनों का संयुक्त नाम चातुर्मास कहा गया है।
इन चार महीनों में जितने भी पर्व, व्रत, उपवास, साधना, आराधना, जप-तप किए जाते हैं उनका विशाल स्वरूप एक शब्द में 'चातुर्मास्य' कहलाता है। चातुर्मास से चार मास के समय का बोध होता है और चातुर्मास्य से इस समय के दौरान किए गए सभी व्रतो पर्वों का समग्र बोध होता है।
पुराणों में इस चौमासे का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। इन चार महीनों की तपस्या को एक यज्ञ की संज्ञा दी गई है।
शास्त्रों व पुराणों में इन चार महीनों के लिए कुछ विशिष्ट नियम बताए गए हैं। इसमें चार महीनों तक अपनी रुचि व आवश्यकता अनुसार नित्य व्यवहार की वस्तुएं त्यागनी पड़ती हैं। कई लोग खाने में अपने सबसे प्रिय व्यंजन का इन चार महीनों तक त्याग कर देते हैं।
चातुर्मासीय व्रतों में पलंग पर सोना, भार्या का संग करना, झूठ बोलना, शहद, मूली, एवं बैगन आदि का सेवन वर्जित माना जाता है.
चूंकि यह विष्णु व्रत है, इसलिए चार माहों तक सोते-जागते, उठते-बैठते 'ॐ नमो नारायणाय' या ॐ नमो भगवते वासुदेवाय के जप का विशेष महत्व है।
वेदों पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु ही प्रकृति के पालनहार हैं और उनकी कृपा से ही सृष्टि चल रही है। इसलिए जब श्रीहरि चार महीने के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं तो उस समय कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता।
तीनों लोकों के स्वामी होने की वजह से भगवान का शयनकाल संपूर्ण संसार का शयनकाल माना जाता है।
देवशयनी एकादशी के बाद चार महीने तक सूर्य, चंद्रमा और प्रकृति का तेजस तत्व कम हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि देवशयन हो गया है। शुभ शक्तियों के कमजोर होने पर किए गए कार्यों के परिणाम भी शुभ नहीं होते। चातुर्मास के दौरान विवाह आदि कोई भी मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए। क्योंकि इन चार महीनों में विवाह, उपनयन संस्कार व अन्य मंगल कार्य वैदिक ज्योतिष में वर्जित बताए गए हैं।
देवशयनी एकादशी से साधु संतों का भ्रमण भी बंद हो जाता है। वह एक जगह पर रुक कर प्रभु की साधना करते हैं। चातुर्मास के दौरान सभी धाम ब्रज में आ जाते हैं। इसलिए इस दौरान ब्रज की यात्रा बहुत ही पुण्यदायक होती है। अगर कोई व्यक्ति ब्रज की यात्रा करना चाहे तो इस दौरान कर सकता है।
कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी अर्थात,हरि प्रबोधिनी एकादशी को जब भगवान विष्णु योगनिद्रा का त्याग कर जागते हैं,तब इसके साथ ही विवाह आदि शुभ कार्य भी प्रारम्भ हो जाते हैं। हरि प्रबोधिनी एकादशी को देवोत्थान एकादशी या देवउठनी एकादशी भी कहा जाता है।
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30 जून 2020 को शाम 7 बजकर 51 मिनट से एकादशी तिथि प्रारम्भ होकर 1 जुलाई 2020 को शाम 5 बजकर 31 मिनट तक रहेगी। अतः एकादशी व्रत 1 जुलाई को धारण किया जाएगा, और व्रत का पारण 2 जुलाई को द्वादशी तिथि में होगा। जो कि दोपहर बाद 3 बजकर 18 मिनट तक है। 
व्रत धारण करने वाले सभी भक्तों को चाहिए कि आहार व्यवहार में दशमी तिथि से ही शुद्धता का पूर्ण रूप से ध्यान रखें।
एकादशी का व्रत करने हेतु प्रातः काल ब्रह्म मुहूर्त में जागकर, स्नान आदि नित्य कर्मों से निवृत्त हो, पीले रंग के शुद्ध वस्त्र धारण कर, व्रत का संकल्प लें। ततपश्चात अपने घर के देवस्थान में एक चौकी पर पीला वस्त्र बिछाकर वैदिक विधि द्वारा कलश स्थापना कर के कलश के ऊपर ही पूर्णपात्र में सफेद तिल भरकर उसमें शालिग्राम भगवान, या भगवान विष्णु की मूर्ति को स्थापित करें। भगवान की धूप दीप जल चन्दन अक्षत नैवेद्य आदि से विधिवत पूजन करें। दीपक गौमाता के शुद्ध घी का या तिल के तेल का जलाएं। भोग लगाने हेतु पीले रंग के नैवेद्य, जैसे बेसन के लड्डू आदि का प्रयोग करें। भक्ति भाव से भगवान को तुलसी पत्र, तुलसी मंजरी, या तुलसी की माला चढ़ाएं। केले के पेड़ की पूजा करना न भूलें।
देवशयनी एकादशी व्रत करने और इस दिन भगवान श्रीहरि की विधिवत पूजन करने से सभी प्रकार के पापों का नाश होता है। व्रत करने वाले भक्त की सारी परेशानियां समाप्त हो जाती हैं। मन शुद्ध होता है, सभी विकार दूर हो जाते हैं। दुर्घटनाओं के योग टल जाते हैं। देवशयनी एकादशी के बाद शरीर और मन नवीन हो जाता है। 
पश्चात एकादशी व्रत की कथा का मन लगाकर श्रवण अवश्य करें।
आइए हम भी भाव से इस पुण्यदायिनी कथा ज्ञान सरिता में अवगाहन करें।
एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण जी से कहा- हे केशव! आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम है? और इस व्रत को करने की विधि क्या है और इस दिन किस देवता का पूजन किया जाता है?
श्रीकृष्ण युधिष्ठिर जी से कहने लगे कि हे युधिष्ठिर! इस कथा को एक बार ब्रह्माजी ने नारदजी से कहा था। क्योंकि एक बार नारजी ने ब्रह्माजी से यही प्रश्न किया था।
तब ब्रह्माजी ने उत्तर दिया कि हे नारद तुमने कलियुगी के कलुषित जीवों के उद्धार के लिए बहुत उत्तम प्रश्न किया है। क्योंकि देवशयनी एकादशी का व्रत सब व्रतों में उत्तम है। इस व्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
इस व्रत के करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। इस एकादशी का नाम पद्मा एकादशी है।
सूर्यवंश में मांधाता नाम के एक चक्रवर्ती राजा हुए, जो सत्यवादी और महान प्रतापी थे। वह अपनी समस्त प्रजा का अपनी सन्तान की ही भांति पालन किया करता थे। उनकी समस्त प्रजा धनधान्य से भरपूर और सुखी थी। उनके राज्य में चारों ओर खुशहाली ही रहती थी।
किन्तु एक समय मांधाता के राज्य में तीन वर्ष तक वर्षा नहीं हुई और अकाल पड़ गया। प्रजा अन्न की कमी के कारण अत्यंत दुखी हो गई। अन्न के न होने से राज्य में यज्ञादि देवकार्य भी बंद हो गए। एक दिन समस्त प्रजा राजा के पास जाकर विनती करने लगी कि राजन! सारी प्रजा त्राहि-त्राहि पुकार रही है, क्योंकि समस्त विश्व की सृष्टि का कारण वर्षा है।
वर्षा के अभाव से अकाल पड़ गया है और अकाल से प्रजा मर रही है। इसलिए हे राजन! कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे प्रजा का कष्ट दूर हो। राजा मांधाता कहने लगे कि आप लोग ठीक कह रहे हैं, वर्षा से ही अन्न उत्पन्न होता है और आप लोग वर्षा न होने से अत्यंत दुखी हो गए हैं। मैं आप लोगों के दुखों को समझता हूं। ऐसा कहकर राजा कुछ सेना साथ लेकर वन की तरफ चल दिए। वह अनेक ऋषियों के आश्रमों में भ्रमण करते हुए अंत में ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचे। राजा ने विनय पूर्वक अंगिरा ऋषि को प्रणाम किया।
मुनि ने राजा को आशीर्वाद देकर कुशलक्षेम के पश्चात उनसे आश्रम में आने का कारण पूछा। राजा ने हाथ जोड़कर विनीत भाव से कहा कि हे भगवन! सब प्रकार से धर्म पालन करने पर भी मेरे राज्य में अकाल पड़ गया है। इससे प्रजा अत्यंत दुखी है। राजा के पापों के प्रभाव से ही प्रजा को कष्ट होता है, ऐसा शास्त्रों में कहा है। जब मैं धर्मानुसार राज्य करता हूं तो मेरे राज्य में अकाल कैसे पड़ गया? इसके कारण का पता मुझको अभी तक नहीं चल सका।
अब मैं आपके पास इसी संदेह की निवृत्त हेतु आया हूं। कृपा करके मेरे इस संदेह को दूर कीजिए। साथ ही प्रजा के कष्ट को शीघ्र दूर करने का कोई उपाय बताइए। इतनी बात सुनकर ऋषि कहने लगे कि हे राजन! यह सतयुग सब युगों में उत्तम है। इसमें धर्म के चारों चरण सम्मिलित हैं अर्थात इस युग में धर्म की सबसे अधिक उन्नति है। लोग ब्रह्म की उपासना करते हैं और केवल सात्विक वृत्ति वाले ब्राह्मणों को ही वेद पढ़ने का अधिकार है। क्योंकि नित्य कर्म में प्रवृत्त ब्राह्मण ही तपस्या करने का अधिकार रख सकते हैं, परंतु आपके राज्य में एक ब्रह्मकर्म से पतित व्यक्ति तपस्या कर रहा है। इसी दोष के कारण आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है।
इसलिए यदि आप प्रजा का भला चाहते हो तो उस का वध कर दो। इस पर राजा कहने लगे, कि प्रभु मैं उस निरपराध तपस्या करने वाले को किस तरह मार सकता हूं। आप इस दोष से छूटने का कोई दूसरा उपाय बताइए। तब ऋषि कहने लगे कि हे राजन! यदि तुम अन्य उपाय जानना चाहते हो तो सुनो।
आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की पद्मा नाम की एकादशी का विधिपूर्वक व्रत करो। व्रत के प्रभाव से तुम्हारे राज्य में वर्षा होगी और प्रजा सुख प्राप्त करेगी क्योंकि इस एकादशी का व्रत सब सिद्धियों को देने वाला है और समस्त उपद्रवों का नाश करने वाला है। इस एकादशी का व्रत तुम समस्त प्रजा सहित करो।
मुनि के इस वचन को सुनकर मान्धाता अपने राज्य को वापस आए और उन्होंने समस्त प्रजा के साथ मिलकर विधिपूर्वक पद्मा एकादशी का व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वर्षा हुई और प्रजा धन धान्य से परिपूर्ण हो सुखी हो गई। अत: इस दिव्य एकादशी का व्रत सब मनुष्यों को करना चाहिए। यह व्रत इस लोक में भोग और परलोक में मुक्ति को देने वाला है। पद्मा एकादशी के दिन इस कथा को पढ़ने और सुनने से मनुष्य के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।

वैदिक एस्ट्रो केयर आपके मंगलमय जीवन हेतु कामना करता है। नमस्कार

Vedic Astro Care | वैदिक ज्योतिष शास्त्र

Author & Editor

आचार्य हिमांशु ढौंडियाल

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