त्वमेव केवलं कर्त्ताऽसि।
त्वमेव केवलं धर्तासि।।
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।।
त्वं साक्षादात्मासि नित्यम्।
ऋतं वच्मि।। सत्यं वच्मि।।
अव त्वं माम्।। अव वक्तारम्।।
अव श्रोतारम्। अव दातारम्।।
अव धातारम्। अवानूचानमव शिष्यम्।।
अव पश्चातात्।। अव पुरस्तात्।।
अव चोत्तरातात्।। अव दक्षिणात्तात्।।
अव चोर्ध्वात्तात्।। अवाधरात्तात्।।
सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात्।।3।।
त्वं वाङग्मयस्त्वं चिन्मयः।
त्वंमानन्दमयस्त्वं ब्रह्ममय:।।
त्वं सच्चिदानंदाद्वितियोऽसि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि।4।
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते।
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।।
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति।।
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ:।।
त्वं चत्वारि वाक्पदानि।।5।।
त्वं गुणत्रयातीत: ।
त्वं कालत्रयातीतः।
त्वं देहत्रयातीत:।
त्वमवस्थात्रयातीत:।
त्वं मूलाधार स्थितोऽसि नित्यम्।
त्वं शक्तित्रयात्मक:।।
त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम्।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वमिन्द्रस्त्वमग्निस्त्वं।
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्म भूर्भुव: स्वरोम्।।6।।
गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनन्तरम्।।
अनुस्वार: परतर:।। अर्धेन्दुलसितम्।।
तारेण रुद्धम्।। एतत्तव मनुस्वरूपम्।।
गकार: पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्।
अनुस्वारश्चान्त्य रूपम्।। बिन्दुरुत्तररूपं।।
नाद: सन्धानम्।। संहिता संधि:। सैषा गणेशविद्या।।
गणक ऋषि: निचृद्गायत्री छन्दः।।श्री महागणपतिर्देवता।।
ॐ गं गणपतये नम:।।7।।
एकदंताय विद्महे। वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्।।
एकदंत चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।। अभयं वरदं हस्तै र्विभ्राणं मूषकध्वजम्।।
रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।।
रक्त गंधाऽनुलिप्तागं रक्तपुष्पैः सुपूजितम्।।8।।
भक्तानुकंपिन देवं जगत्कारणमच्युतम्।
आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृते: पुरुषात्परम्।।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:।। 9।।
नमो व्रातपतये नमो गणपतये नम: प्रथमपतये
नमस्तेऽस्तु लंबोदारायैकदंताय विघ्नविनाशिने शिव सुताय
श्री वरदमूर्तये नमोनम:।।10।।
एतदथर्वशीर्ष योऽधीते।। स: ब्रह्मभूयाय कल्पते।।
स सर्वविघ्नैर्न बाध्यते । स सर्वत: सुख मेधते। स पन्चमहापातकोपपातकात् प्रमुच्यते।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।।
सायं प्रात: प्रयुंजानो
अपापो
भवति।
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।।
धर्मार्थ काममोक्षं च विदंति।।12।।
इदमथर्वशीर्षम शिष्यायन देयम।।
यो यदि मोहाददास्यति स पापीयान भवति।।
सहस्त्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत।।13 ।।
अनेन गणपतिमभिषिंचति स वाग्मी भवति।।
चतुर्थत्यां मनश्रन्न जपति स विद्यावान् भवति।।
इत्यर्थर्वण वाक्यं।। ब्रह्माद्यारवरणं विद्यात् न विभेती
कदाचनेति।।14।।
यो दूर्वां कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति।।
यो लाजैर्यजति स यशोवान भवति।। स: मेधावान भवति।।
यो मोदक सहस्त्रैण यजति।
स वांञ्छित फलम् वाप्नोति।।
य: साज्य समिभ्दर्भयजति, स सर्वं लभते स सर्वं लभते।।15।।
अष्टो ब्राह्मणानां सम्यग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति।।
सूर्य गृहे महानद्यां प्रतिभासंनिधौ वा जपत्वा सिद्ध मंत्रोन् भवति।।
महाविघ्नात्प्रमुच्यते।। महादोषात्प्रमुच्यते।। महापापात् प्रमुच्यते।
स सर्व विद्भवति स सर्वविद्भवति। य एवं वेद इत्युपनिषद।।16।।
।। अर्थर्ववैदिय गणपत्युनिषदं समाप्त:। ।
https://youtu.be/i06AfcgT8Ks
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