वैदिक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार प्रत्यक्ष देव ग्रहों के राजा भगवान सूर्य को समस्त प्राणी मात्र की आत्मा कहा गया है। वेद के अनुसार सूर्यआत्मा जगतस्तस्तुखश्च। साथ ही कहा जाता है कि आत्मा जायते पुत्रः, अतः पिता की आत्मा ही पुत्र रूप में उत्पन्न होती है। जन्मकुंडली का पंचम भाव हमारे पूर्व जन्म के कर्मों को दर्शाता है और काल पुरुष की कुंडली में पंचम भाव का स्वामी सूर्य ग्रह को माना जाता है इसलिए सूर्य को हमारे कुल का द्योतक एवं पिता का कारक भी माना गया है। अतः
अमावस्या दिने प्राप्ते गृहद्वारं समाश्रिता:
श्रद्धाभावे स्वभवनं शापं दत्वा ब्रजन्ति ते॥
इस का सामान्य भाव यह है कि पितृपक्ष में समस्त पितृ देवता एक साथ मिलकर अपने पुत्र पौत्रों, यानि कि अपने वंशजों के द्वार पर पहुंच जाते हैं। इस दौरान पितृपक्ष के समय उनकी मृत्युतिथि पर उनके निमित्त यदि श्राद्ध कर्म नही किया जाता तो पितृ देव आश्विन अमावस्या तक प्रतीक्षा करते हैं। और आने वाली आश्विन अमावस्या को भी यदि उनका श्राद्ध नहीं किया जाता तो वह कुपित होकर अपने वंशजों को ही श्राप देकर वापस पितृलोक लौट जाते हैं। यही कारण है कि उन्हें फूल, फल और जल आदि के मिश्रण से तर्पण अवश्य देना चाहिए तथा अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार उनकी सन्तुष्टि और तृप्ति के लिए प्रयास अवश्य करना चाहिए।
व्यक्ति अपने द्वारा जीवन पर्यंत किए गए शुभ अशुभ कर्मों के अनुसार ही अपनी गति प्राप्त करता है। यह गति चार प्रकार की होती है: पहली उर्ध्व गति अर्थात स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करना, दूसरी अधोगति, अर्थात बुरे कर्मों के कारण मानव जीवन से नीचे की योनियों में जाना तथा तीसरी है स्थिर गति, जिसमें उन्हें मानव जीवन पुनः प्राप्त हो जाता है। और चौथी सर्वश्रेष्ठ गति है मोक्ष, अर्थात उस परमधाम की प्राप्ति, जहां जाने के बाद आत्मा परमात्मा में ही एकाकार हो जाती है। जिस परमधाम के लिए भगवान कृष्ण ने गीता में स्पष्ट किया है कि यदगत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम। और यही मानव जीवन का परम उद्देश्य भी है। जिन लोगों के वंश में हमने जन्म लिया वे हमारे पूर्वज हैं इसलिए श्रद्धा पूर्वक उनके लिए श्राद्ध पक्ष में अन्न वस्त्र आदि का दान करना, उनके निमित्त तर्पण आदि करना, हमारा परम् कर्तव्य है। इस तरह हम अपने पूर्वजों के प्रति आभार व्यक्त कर सकते हैं।
ध्यान रहे कि जो लोग अपने पितरों का विधि पूर्वक तर्पण आदि श्राद्ध कर्म नहीं करते और उनकी तृप्ति हेतु किसी प्रकार की पूजा-अर्चना नहीं करते, उनकी कुंडली में पीढ़ी दर पीढ़ी पितृ दोष का निर्माण होता है और उस दोष के द्वारा व्यक्ति को जीवन पर्यंत अनेक प्रकार के कष्टों को भोगना पड़ता है।
पितरों की योनि एवं स्थिति
व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत उसको अपने कर्मों के अनुसार योनि प्राप्त होती है। इसका अभिप्राय यह है कि अच्छे कर्मों के कारण देव योनि प्राप्त होती है और यदि उनके वंशज उनके निमित्त विभिन्न प्रकार के मंत्रों द्वारा उच्चारण करने के उपरांत अन्न जल अर्पित करते हैं और पितृपक्ष के दौरान उनका पिंडदान अथवा श्राद्ध करते हैं तो उन पितरों को अमृत के रूप में उसकी प्राप्ति हो जाती है। यदि वे गंधर्व लोक प्राप्त कर चुके हैं तो यह उन्हें भोग्य के रूप में प्राप्त हो जाता है। इसके पश्चात आती है पशु योनि अर्थात यदि उनके कर्मों ने उन्हें पशु योनि में पहुंचाया है तो उन्हें श्रद्धा के कारण तृण अर्थात तिनके के रूप में प्राप्ति होती है जिससे उनकी श्रद्धा समाप्त होती है।
यदि किसी कारण उनके कर्म अत्यंत खराब रहे होते हैं और वे प्रेत योनि में भटक रहे हैं तो यही अन्न उन्हें रक्त अर्थात रुधिर के रूप में प्राप्त होता है और यदि उन्हें मनुष्य योनि प्राप्त हुई है तो यही श्रद्धा पूर्वक अर्पित किया गया अन्न का भोग उन्हें उनकी आवश्यकता अनुसार आवश्यक वस्तुओं के रूप में ही प्राप्त होता है और वे तृप्त हो जाते हैं। इस प्रकार पूरे विधि-विधान और मंत्रोच्चारण के साथ अपने पूर्वजों के निमित्त पितृ पक्ष में श्राद्ध एवं दान पुण्य करना चाहिए ताकि वे पितृ चाहे किसी भी योनि में पहुंचे हों, उन्हें तृप्ति मिले और ऐसा करके हम अपना नैतिक दायित्व भी पूर्ण करते हैं क्योंकि हम उनके ही वंशज हैं।
पुराणों में पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध का वर्णन अनेक दिव्य ऋषि मुनियों के द्वारा और पुराणों के अंतर्गत श्राद्ध के महत्व का वर्णन किया गया है और पितृ पक्ष में श्राद्ध करने का सबसे अधिक महत्व माना गया है।
- ब्रह्म पुराण के अनुसार जो प्राणी शाक आदि के माध्यम से अपने पितरों के निमित्त श्राद्ध एवं तर्पण करता है, इससे उसके संपूर्ण कुल की वृद्धि होती है और उसके वंश का कोई भी प्राणी दुखी नहीं होता तथा उसे कोई कष्ट नहीं पहुँच पाता है। यदि पूरी श्रद्धा के साथ श्राद्ध किया गया है तो पिंडों पर गिरने वाली पानी की बूंदे भी पशु पक्षी की योनियों में पड़े हमारे पितरों का पूर्ण रूप से पोषण करती है और जिस वंश में कोई बालक बाल्यावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो गया हो वे भी मार्जन के जल से पूर्ण रूप से तृप्त हो जाते हैं।
- ब्रह्म पुराण के ही अनुसार ही पितरों के लिए उचित समय और विधि द्वारा जो वस्तु भी ब्राह्मणों को यथा पूर्वक दी जाए वह श्राद्ध का भाग्य कहलाती है। श्राद्ध एक ऐसा जरिया है जिसके द्वारा हम अपने पितरों को संतुष्ट करने के लिए तथा उनकी तृप्ति के लिए उन्हें भोजन, अन्न, जल आदि पहुँचाते हैं। पितरों को जो भोजन दिया जाता है वह एक पिंड के रूप में अर्पित किया जाता है और यही पितृपक्ष के दौरान श्राद्ध का मुख्य अवयव होता है।
- वहीं कूर्म पुराण के अनुसार जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा भाव से शरद करता है उसके समस्त पापों का शमन हो जाता है और उसे दोबारा संसार चक्र में नहीं भटकना पड़ता था और उसे मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है और उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
- गरुड़ पुराण में भी इस बात को वर्णित किया गया है कि यदि पितृ पूजन किया जाए और उनसे हमारे पितृ संतुष्ट हो तो अपने वंशजों के लिए आयु संतान यश कीर्ति बल वैभव तथा धन की प्राप्ति का वरदान देते है।
- मार्कंडेय पुराण कहता है कि यदि आपके पितृ आपके द्वारा दिए गए श्राद्ध से तृप्त हो चुके हैं तो वह आपको आयु की वृद्धि, संतान की प्राप्ति, धन लाभ, विद्या में सफलता, सभी प्रकार के सुख, राज्य और मोक्ष प्रदान करने के लिए अपना आशीर्वाद देते हैं।
- वैसे तो हम अपने पितरों का श्राद्ध प्रत्येक महीने में आने वाली अमावस्या को कर सकते हैं, लेकिन पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने का विशेष महत्व है क्योंकि इस दौरान हमारे पितृ विशेष रूप से श्राद्ध को ग्रहण करने ही आते हैं।
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