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कार्तिक मास में आने वाली शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवोत्थान, देवउठनी या प्रबोधिनी एकादशी कहा जाता है।पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को भगवान नारायण शयन करते हैं और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन जगते हैं, इसीलिए इसे देवोत्थान एकादशी कहा जाता है।
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आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तक भगवान नारायण क्षीरसागर में योगनिद्रा धारण करते हैं। इस समय काल को ही चातुर्मास कहा जाता है। अतः भगवान विष्णु के शयन काल के चार माह में विवाह, मूर्ति प्रतिष्ठा, यज्ञादि मांगलिक कार्य करना वर्जित माना जाता है। जप तप व्रत दान आदि कार्य शास्त्र विधि से चातुर्मास में सम्पादित किए जाते हैं। देवोत्थान एकादशी पर भगवान हरि के जागने के बाद विवाह, यज्ञादि शुभ मांगलिक कार्य प्रारम्भ होते हैं। सनातन संस्कृति में इस दिन तुलसी विवाह का आयोजन भगवद्भक्तों द्वारा किया जाता है। वैदिक ज्योतिष शास्त्र की पञ्चाङ्ग परम्परा के अनुसार स्मार्त एवं वैष्णव संप्रदाय के लिए इस वर्ष 2020 में देवोत्थान एकादशी व्रत अलग अलग दिन धारण किया जाएगा। स्मार्त देवोत्थान एकादशी का व्रत 25 नवम्बर 2020 को धारण करेंगे, एवं विरक्त वैष्णव सन्त देवोत्थान एकादशी का व्रत 26 नवम्बर 2020 को धारण करेंगे।
सनातन संस्कृति में मुख्य रूप से भक्तों को चार भागों में विभक्त किया गया है। स्मार्त वैष्णव शैव और शाक्त। भगवान विष्णु को अपना ईष्ट मानने वाले भक्त वैष्णव भक्त कहलाते हैं। भगवान शिव के अनुयायियों को शैव कहा जाता है। शक्ति के उपासक भक्त शाक्त कहलाते हैं। और जो गृहस्थ सनातन धर्म के समस्त आराध्य देवों का समान रूप से व्रत पूजन किया करते हैं, वह सद्गृहस्थ भक्त ही स्मार्त भक्त कहलाते हैं। देवोत्थान एकादशी के दिन सभी भगवद्भक्त अपने अपने ईष्ट देव का पूजन समान रूप से करते हैं। और प्रार्थना करते हैं कि प्रभु ! तीनों लोकों का कल्याण करने हेतु आप योगनिद्रा का त्याग कर जाग जाइये। घण्टे घड़ियाल शंख आदि की ध्वनि के साथ साथ यह मन्त्र उच्चारण किया जाता है,
“उत्तिष्ठो उत्तिष्ठ गोविंदो, उत्तिष्ठो गरुडध्वज।
उत्तिष्ठो कमलाकांत, त्रैलोक्यं मंगलम कुरु।।”
व्रत धारण करने वाले सभी भक्तों को इस दिन प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान आदि से निवृत होकर भगवान सूर्य को अर्घ्य प्रदान करने के उपरांत व्रत का संकल्प लेना चाहिए । एक ओखली में गेरू से चित्र बनाकर फल,मिठाई,बेर,सिंघाड़े,ऋतुफल और गन्ना पूजन स्थान पर रखकर उसे डलिया से ढांक देना चाहिए। इस दिन रात्रि में घरों के बाहर और पूजा स्थल पर दीये जलाने चाहिए। रात्रि के समय परिवार के सभी सदस्यों को भगवान विष्णु सहित सभी देवी-देवताओं का पूजन करना चाहिए। देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह का आयोजन भी किया जाता है। तुलसी के वृक्ष और शालिग्राम का यह विवाह विशिष्ट विवाह की तरह पूरे धूमधाम से किया जाता है। चूंकि तुलसी को विष्णु प्रिया भी कहते हैं इसलिए देवता जब जागते हैं, तो सबसे पहली प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की ही सुनते हैं। तुलसी विवाह का सीधा अर्थ है, तुलसी के माध्यम से भगवान का आह्वान करना। शास्त्रों में कहा गया है कि जिन दंपत्तियों के कन्या नहीं होती, उन्हें जीवन में एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य अवश्य प्राप्त करना चाहिए। वैदिक एस्ट्रो केयर आपके मंगलमय जीवन हेतु कामना करता है, नमस्कार
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