नमस्कार। वैदिक एस्ट्रो केअर में आपका हार्दिक अभिनंदन है। सनातन हिन्दू धर्म में यूँ तो सभी व्रत और त्यौहारों का अपना विशेष महत्व होता है। किन्तु कुछ व्रत पर्व ऐसे भी होते हैं जो स्वयं के लिए ही नहीं, अपितु दूसरे के लिए भी किए जाते हैं। राजन बलि ने अश्वमेध यज्ञ के समय उपस्थित बालक रूप वामन भगवान को देखकर बड़ी ही प्रसन्नता से आग्रह किया था, की ब्राह्मण देवता, आप हमारे यज्ञ में पधारे हैं, आपने हम पर बड़ा उपकार किया है। आज्ञा करें प्रभु हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं? वामन भगवान मौन साधे हुए माला जपते हुए चुपचाप बस बलि को देखते ही रहे। मुख से एक भी शब्द नहीं बोले। अब तो राजन बलि स्वयं ही कहने लगे, महाराज यदि आपकी आज्ञा हो तो 100 गांव आपको भेंट कर दूं। या हीरे जवाहरात स्वर्ण मुद्राएं आपको भेंट करूँ, प्रभु आपको जो उचित लगे आप आज्ञा करें। वामन अवतार भगवान नारायण ने माला पूरी की, और राजन बलि को आशीर्वाद प्रदान किया। पुनः राजन बलि ने निवेदन किया, प्रभु आप ब्राह्मण बालक हैं। अतः कोई ब्राह्मणी कन्या से आपका विवाह करवा दूँ क्या? विप्रवर मेरी हृदय से बलवती इच्छा हो रही है कि मैं आपको क्या क्या भेंट कर दूं। वामन बोले, महाराज आप भक्त राज प्रह्लाद के वंशज हैं, यदि आप ब्राह्मणों के प्रति दान की ऐसी भावना रखें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं है। किंतु हमारी विवाह की कोई इच्छा नहीं है। बलि ने पुनः आग्रह किया, महाराज आपके विवाह उपरांत आपके परिवार के भरण पोषण का पूरा उत्तरदायित्व हमारा रहेगा, आप तो बस आनन्द से जप तप कीजिए। वामन भगवान बोले, राजन, भरण पोषण का उत्तरदायित्व तो आप निर्वहन कर लेंगे, किन्तु, विवाह उपरांत हमारी वंश वृद्धि भी तो होगी न? और जब दो चार बालक बालिका होंगे तो उन्हें कभी कभी कोई कष्ट भी अवश्य होगा, और सम्भवतः यदि किसी बालक की मृत्यु हो गई तो? तो राजन उस दुःख को सहन करने की क्या व्यवस्था करेंगे आप? अब तो राजन बलि ने करबद्ध होकर कहा, ब्राह्मण देवता, इस संसार में सन्तान पर होने वाले किसी भी कष्ट के दुःख को तो माता पिता को ही झेलना पड़ता है, प्रभु इसका तो कोई भी विकल्प उपस्थित नहीं किया जा सकता। अर्थात, इस संसार में अन्य दुख बांटे जा सकते हैं, किन्तु सन्तान का दुःख एक ऐसा दुख है, जिसे माता पिता को ही झेलना पड़ता है, और यही कारण है, की हमारे हिन्दू धर्म में बहुत से ऐसे व्रत हैं जिन्हें माताएं अपनी सन्तान के सुख संपन्नता, दीर्घायु एवं आरोग्यता की कामना से रखती हैं।
उन्हीं व्रत त्योहारों में से एक प्रमुख व्रत है जीवित्पुत्रिका व्रत। इसे जितिया या जिउतिया के नाम से भी जाना जाता है। इस व्रत को मुख्य रूप से विवाहित महिलाएं अपने संतान की लंबी उम्र और अच्छे जीवन के लिए रखती हैं। यह व्रत आश्विन माह के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को रखा जाता है। इस वर्ष 10 सितम्बर 2020 गुरुवार को जीवित्पुत्रिका व्रत धारण किया जाएगा।
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यह जीवित्पुत्रिका व्रत तीन दिवसीय व्रत होता है। जो कि आश्विन कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि को प्रारम्भ किया जाता है, और नवमी तिथि में इस व्रत का पारण होता है।
वैदिक ज्योतिष शास्त्र की पञ्चाङ्ग परम्परा के अनुसार इस वर्ष 9 सितम्बर को सप्तमी तिथि से यह व्रत प्रारम्भ होगा। इस दिन व्रती महिलाएं प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व जगकर किसी नदी सरोवर या फिर घर में ही गंगा आदि नदियों का स्मरण करते हुए स्नान करती हैं। ततपश्चात भगवान सूर्य को अर्घ्य प्रदान करने के उपरांत व्रत का संकल्प लिया जाता है, और साथ ही अपने इष्टदेव कुलदेव की पूजा की जाती है। इस दिन अर्थात सप्तमी तिथि में केवल एक ही बार शुद्ध सात्विक भोजन करने की परम्परा है। फिर 10 सितम्बर को अष्टमी तिथि को प्रातः नित्यकर्म के उपरांत पूरे दिन निर्जला निराहार रहकर व्रत किया जाता है, एवं शाम के समय गन्धर्वों के राजकुमार जीतवाहन देवता का पूजन होता है। फिर शुक्रवार, 11 सितंबर को सूर्योदय के उपरांत प्रात: काल में इस व्रत का पारण होगा।
हिन्दू धर्म में महिलाएं इस व्रत को विशेष रूप से अपने संतान की लंबी उम्र के लिए रखती हैं। इस व्रत को बहुत कठिन व्रत माना जाता है। 24 घंटे से भी ज्यादा समय के लिए व्रती महिलाओं को बिना अन्न और जल ग्रहण किये रहना होता है। इसलिए इसे सबसे कठिन व्रतों में से एक माना जाता है। व्रत वाले दिन महिलाएं सुबह स्नान आदि करने के बाद नए वस्त्र धारण करती हैं और उसके बाद जीतवाहन देव की पूजा करती हैं और उनसे अपने बच्चों की लंबी उम्र के लिए प्रार्थना करती हैं। प्रत्येक व्रत में व्रत कथा श्रवण का अपना विशेष महत्व होता है। अतः आइए हम सब मिलकर जीवित्पुत्रिका व्रत कथा में अवगाहन करें।
गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीतवाहन था। वे बड़े उदार और परोपकारी थे। जीतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगा। वे राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए। वहीं पर उनका मलयवती नामक राजकन्या से विवाह हो गया। एक दिन जब जीतवाहन वन में भ्रमण कर रहे थे तभी उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखाई दीं। इनके पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया – मैं नागवंश की स्त्री हूं और मुझे केवल एक ही पुत्र है। पक्षिराज गरुड के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है। आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है। जीतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा –आप डरो मत, मैं आपके पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा. आज उसके स्थान पर मैं स्वयं अपने आपको उसके वस्त्र में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा। इतना कहकर जीतवाहन ने शंखचूड के हाथ से वस्त्र ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। नियत समय पर गरुड बड़े वेग से आए और वे लाल कपडे में ढंके जीतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड के शिखर पर जाकर बैठ गए। अपने पंजों में पकड़े हुए प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुडजी बड़े आश्चर्य में पड गए। उन्होंने जीतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया। गरुड जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। प्रसन्न होकर गरुड जी ने उनको जीवन-दान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दिया। इस प्रकार जीतवाहन के अदम्य साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई और तबसे पुत्र की सुरक्षा हेतु गन्धर्व कुमार जीतवाहन की पूजा की प्रथा प्रारम्भ हो गई। और तभी से आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं जीतवाहन की पूजा करती हैं। देवाधिदेव भगवान शंकर माता पार्वती को यह कथा सुनाते हुए कहते हैं कि आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीतवाहन की पूजा करती हैं तथा कथा सुनने के बाद ब्राह्मण को दक्षिणा देती है, वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है। यह श्रेष्ठ व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देने वाला है।
वैदिक एस्ट्रो केयर आपके मंगलमय जीवन हेतु कामना करता है, नमस्कार
https://youtu.be/9yoPfA3WEbo
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