विवाह योग्य लड़के-लड़की की जन्म कुण्डली में वर्ण, वश्य, तारा, ग्रहमैत्री, नाड़ी आदि अष्टकूट
सम्बन्धी गुण मिलान के पश्चात् कुण्डली में मंगल एवं मंगलीक दोष पर विशेष रूप से विचार किया
जाता है। मंगलीक दोष का आधार सामान्यतः निम्न श्लोक माना जाता है।
लग्ने व्यये च पाताले जामित्रे चाष्टमे कुजे। कन्या भर्तृविनाशाय भर्ता कन्या विनाशदः।
अर्थात् जिस कन्या की कुण्डली में लग्न चतुर्थ सप्तम अष्टम या द्वादश स्थान में मंगल स्थित हो, तो वह कन्या वर अर्थात अपने (पति) के लिए हानिकारक तथा इसी भान्ति जिस लड़के की कुण्डली में इन्हीं स्थानों में मंगल हो वह कन्या के लिए हानिकारक होता है। इसी भांति लग्न, चन्द्र और कभी-कभी शुक्र की राशि से भी मंगल की उपर्युक्त स्थितियों का विचार किया जाता है। आज हम इस विषय पर विशद रूप से चर्चा करेंगे। आप विषय को अच्छे से समझने के लिए वीडियो को ध्यान पूर्वक पूरा अवश्य देखें, साथ ही वैदिक ऐस्ट्रो केयर चैनल को सब्सक्राइब कर नए वीडियो के नोटिफिकेशन की जानकारी के लिए वैल आइकन दबाकर ऑल सेलेक्ट अवश्य करें।
यह अनेकों बार देखने को मिला है कि यदि कुंडली मिलान में मांगलिक दोष होने पर, किसी प्रकार का परिहार ना होने पर भी विवाह कर दिया गया तो उसके परिणामस्वरूप दाम्पत्य जीवन में अनिष्ट का, अथवा हानि का सामना करना पड़ा। अतः विवाह पूर्व किसी दैवज्ञ ज्योतिषी से कुंडली मिलान अवश्य ही करवा लेना उचित रहता है। और सनातन धर्म संस्कृति के अनुसार ब्रह्म विवाह में तो सदा से ही यही परम्परा रही है। जिसका अनुसरण प्रत्येक सनातन धर्म को मानने वाले सुधिजन करते ही हैं। कुंडली मिलान के अंतर्गत मांगलिक दोष के अनेकों परिहार ज्योतिषीय ग्रन्थों में बतलाए गए हैं। जिनमें से कुछ श्रेष्ठ परिहारों को हम यहाँ बता रहे हैं। सर्वप्रथम मंगल दोष वाली कन्या का विवाह मंगलीक दोष वाले वर के साथ करने से मंगल
का अनिष्ट दोष नहीं होता तथा वर-वधू के मध्य दाम्पत्य सुख बढ़ता है- कुज दोष वती देया कुजदोषवते किल। नास्ति दोषो न चानिष्टं दम्पत्योः सुखवर्धनम्॥
इसके अलावा यदि लड़की की कुण्डली में जिस स्थान पर मंगल स्थित (मंगलीक कारक) हो, और लड़के की कुण्डली में उसी स्थान पर शनि, मंगल, सूर्य, राहु आदि कोई पाप ग्रह स्थित हों, तो भौमदोष भंग हो जाता है। इसी प्रकार लड़के की कुण्डली में भौम दोष होने पर कन्या की कुण्डली में उसी भाव में कोई पाप ग्रह होने से भी भौमदोष नहीं रहता- फलित संग्रह के अनुसार
शनि भौमोऽथवा कश्चित् पापो वा तादृशो भवेत्।
तेष्वेव भवनेष्वेव भौमदोष विनाश कृत्॥-
भौमेन सदृशो भौम पापो व तादृशो भवेत्। विवाहः शुभदः प्रोक्तश्चिरायुः पुत्रपौत्रदः॥
अर्थात् एक की कुण्डली में मंगल दोष हो, तो दूसरे की कुण्डली में भी उन्हीं स्थानों में शनि आदि पाप ग्रह होने से मंगलीक दोष का प्रभाव क्षीण होकर विवाह में शुभ होता है।
यामित्रे च यदा सौरि लग्ने वा हिबुके तथा। अष्टमे द्वादशे चैव भौमदोषो न विद्यते॥
इस श्लोक का भी यही तात्पर्य है।
(३) मेष राशि का मंगल लग्न में, वृश्चिक राशि का चौथे भाव में, मकर का सातवें, कर्क राशि का आठवें, एवं धनु राशि का मंगल १२वें भाव में हो, तो मंगल दोष नहीं होता। मुहूर्त पारिजात ग्रन्थ के अनुसार
अजे लग्ने व्यये चापे पाताले वृश्चिके कुजे।
द्यूने मृगे कर्किचाष्टौ भौमदोषो न विद्यते॥
प्रकारान्तर से, मीन का मंगल ७वें भाव तथा कुम्भ राशि का मंगल अष्टम में हो, तो भौम दोष नहीं होता। मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार
द्यूने मीने घटे चाष्टौ भौम दोषो न विद्यते
(४) यदि द्वितीय भाव में चन्द्र-शुक्र का योग हो, या मंगल गुरु द्वारा दृष्ट हो, केन्द्र भावस्थ राहु हो, अथवा केन्द्र में राहु-मंगल का योग हो, तो मंगल दोष नहीं रहता- मुहूर्त दीपक के अनुसार
न मंगली चन्द्र भृगु द्वितीये, न मंगली पश्यति यस्य जीवा।
न मंगली केन्द्रगते च राहुः, न मंगली मंगल-राहु योगे॥
(५) बलान्वित गुरु वा शुक्र लग्न में हो, तो वक्री, नीचस्थ, अस्तंगत अथवा शत्रुक्षेत्री मंगल उपरोक्त दुष्ट स्थानों में होने पर भी भौम दोष नहीं होता- मुहूर्त दीपक के अनुसार,
सबले गुरौ भृगौ वा लग्ने द्यूनेऽथवाभौमे।
वक्रे नीचारि गृहस्थे वाऽस्तेऽपि न कुजदोषः॥
(६) इसी भांति केन्द्र व त्रिकोण में यदि शुभ ग्रह हों, तथा ३, ६, ११वें भावों में पाप-ग्रह हों तथा
सप्तमेश ग्रह सप्तम में ही हो, तो मंगल दोष नहीं होता- मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार,
केन्द्र कोणे शुभादये च त्रिषडायेऽप्यसद्ग्रहाः।
तदा भौमस्य दोषो न मदने मदपस्तथा ॥
(७) यद्यपि लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम,एकदशवें और द्वादशवें भावों में स्थित मंगल वर-वधू के वैवाहिक जीवन में विघटन उत्पन्न करता है, परन्तु यदि मंगल अपने घर का हो, उच्चस्थ या मित्र क्षेत्री हो तो मंगल, दोष कारक नहीं होता-
मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार ही
तनु धन सुख मदनायुर्लाभ व्ययगः कुजस्तु दाम्पत्यम्।
विघट्यति तद् गृहेशो न विघटयति तुंगमित्रगेहेवा॥
(८) यदि वर-कन्या की कुण्डलियों में परस्पर राशिमैत्री हो, गणैक्य हो, २७ गुण या अधिक मिलान होता हो, तो भी भौम दोष अविचारणीय है। मुहूर्त दीपक नामक ग्रन्थानुसार -
राशिमैत्रं यदा याति गणैक्यं वा यदा भवेत्। अथवा गुण बाहुल्ये भौम दोषो न विद्यते॥
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मुहूर्त संग्रह दर्पण में दिए गए मंगलीक सम्बन्धी इस श्लोक लग्ने व्यये च पाताले जामित्रे चाष्टमे कुजे। कन्या भर्तृविनाशाय भर्ता कन्या विनाशदः। के परिहारस्वरूप कुछ अर्वाचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं, जिनमें परस्पर विरोध वाक्यता भी मिलती है। उल्लेखनीय है कि प्राचीन सैद्धान्तिक एवं प्रतिष्ठित मुहूर्त्त ग्रंथों जैसे-विवाह वृन्दावन, मुहूर्त मार्तण्ड, सारावली, मुहूर्त चिन्तामणि के प्राचीन संस्करण, तथा ज्योतिर्निबन्ध आदि में मंगलीक सम्बन्धी उपर्युक्त श्लोक एवं तत्सम्बन्ध विभिन्न परिहार वाक्यों का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। अतः वर-कन्या की कुण्डली में मंगलीक दोष एवं उसके परिहार का निर्णय अत्यन्त सावधानी पूर्वक अवश्य ही करना चाहिए। केवल लग्न,चतुर्थ, अष्टम द्वादश आदि भावों में मंगल को देखकर दाम्पत्य जीवन के सुख-दुःख का निर्णय कर देना उपयुक्त नहीं। मंगलीक वाले स्थानों में मंगल के अतिरिक्त कोई अन्य क्रूर ग्रह
भी लग्न द्वितीय चतुर्थ सप्तम एवं द्वादशवें, स्थानों में हो, तो वह भी परिवारिक एवं वैवाहिक जीवन के लिए अनिष्टकारी होता है। मुहूर्त संग्रह दर्पण के अनुसार
लग्ने क्रूरा व्यये क्रूरा धने कूराः कुजस्तथा।
सप्तमे भवने क्रूराः परिवार क्षयंकराः॥
मंगल अथवा मंगलीक दोष का निर्णय कुण्डली विशेष में सभी ग्रहों के पारस्परिक अनुशीलन के पश्चात् ही करना चाहिए। मिलान करते समय केवल मंगल या मंगलीक पर ही अत्यधिक बल न देते हुए मेलापक सम्बन्धी अन्य तत्त्वों का भी सर्वाङ्ग रूप से विवेचन करना चाहिए। जैसे-चलित भाव कुण्डली, सप्तमेश की उच्च-नीच स्थिति,सप्तम भाव पर गुरु, शुक्र की दृष्टि आदि तत्त्वों का सम्यक विचार किसी विद्वान ज्योतिषी से अवश्य करवाना चाहिए। तभी विवाह हेतु निर्णय लेना श्रेयस्कर होता है। वैदिक ऐस्ट्रो केयर आपके मंगलमय जीवन हेतु कामना करता है, नमस्कार।
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें