प्रायः ईश्वर के प्रति आस्थावान व्यक्ति भी यह कहने में दो पल नहीं लगाते कि भूत - प्रेत कुछ नहीं होता है , सब मन का भ्रम है | परंतु तर्क सम्मत तथ्य तो यही है कि यदि हम ईश्वर को मानते हैं तो पैशाचिक शक्ति को भी मानना ही पड़ेगा क्योंकि ये दोनों विपरीत गुण - धर्मों वाली शक्तियाँ अथवा ऊर्जा स्रोत हैं| श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, न जायते म्रियते वा कदाचि, न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। अर्थात
आत्मा अमर है। शरीर के मर जाने पर भी आत्मा नहीं मरती। और शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार मानव द्वारा अपने जीवन काल में किए गए शुभ अशुभ कर्मों का फल भोगने हेतु मृत्यु के उपरांत पूर्व कृत कर्मों के अनुरूप, जो सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है उसे ही सामान्य रूप से भूत प्रेत पिशाच आदि नामों से जाना जाता है। सूक्ष्म शरीर क्या है, इसे समझें। यह आत्मा के चारों ओर ऐसा अदृश्य आभावृत्त है जो व्यक्ति के संपूर्ण, अच्छे या बुरे व्यक्तित्व को परिभाषित करता है। सूक्ष्म शरीर 17 घटकों से मिलकर बना है। यह सूक्ष्म शरीर ही पुनर्जन्म का कारण है, क्योंकि सूक्ष्म शरीर मन प्रधान है, उसकी वासना नहीं मरती है। और इसी वासना के वशीभूत होकर वह अपनी वासनाओं की पूर्ति हेतु, अन्य मानव शरीर का उपयोग करता है, जिसे प्रेत बाधा या बहुत लगना आदि कहा जाता है। इसे ध्यान पूर्वक समझें। सनातन धर्म दर्शन जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर आधारित है | यहाँ आत्मा को अजर - अमर मानते हुए उसे कर्मों के अनुसार फलाफल प्राप्त होने की बात कही गई है | आत्मा एक शरीर का त्याग करती है तथा नूतन वस्त्र की तरह दूसरा देह धारण कर लेती है | परंतु मध्य में किसी अशुभ कर्म के कारण कहीं यह तार टूट जाए , तो आत्मा तुरंत जन्म नहीं लेती अपितु प्रेत योनि में चली जाती है | यह एक कैद की तरह होता है , यदि कर्म अच्छे हुए तो कुछ अंतराल बाद वह स्वयमेव मुक्त हो जाता है अन्यथा हजारो साल तक भटकता रहता है | इस कष्टप्रद योनि में कामनाएँ मानवीय ही होती हैं परंतु भोग के लिए शरीर नहीं होता है । इस तरह की आत्मा सदैव मानव शरीर की ताक में रहती है | पवित्र , मजबूत आत्म शक्ति वाले लोगों के पास भी यह नहीं फटकती , परंतु अशुचिता वाले स्थान पर , बच्चों , महिलाओं , किशोरों , युवकों को यह अक्सर चपेट में ले लेती है | ऐसे कई किस्से हैं जिसमे कहा जाता है कि अमुक शौच के लिए गया , वहाँ से लौटा तो उसका व्यवहार विचित्र हो गया अथवा किसी पुराने पेड़ के पास बच्चे ने शौच कर दिया उसके बाद उसकी तबियत बिगड़ गई | यह सब ऊपरी बाधा के लक्षण है जिसके पीछे अशरीरी आत्माएँ होती हैं । अशरीरी आत्माओं को विभिन्न वर्ग में रखा जाता है , जैसे भूत प्रेत , डाकिनी , शाकिनी , चुडैल , राक्षस , पिशाच आदि | ये सभी आत्माओं की अलग - अलग अवस्थाएं हैं जिनसे प्रभावित होने पर अलग - अलग लक्षण प्रगट होते हैं। भूत बाधा से ग्रस्त मनुष्य की आंखों में लालिमा दिखाई देती है। शरीर काँपता है तथा उसका आचरण विक्षिप्तों के समान होता है। बहुत बार उसके शरीर में अचानक इतनी शक्ति आ जाती है कि वह किसी को भी उठाकर फेंक दें | विषय का ज्ञान न होने पर भी विषय मर्मज्ञ की तरह बात कर सकता है।
पिशाच बाधा से प्रभावित इंसान के शरीर से दुर्गंध आती है , वह अत्यधिक कठोर वचन बोलता है , उसे एकांत प्रिय होता है , कभी कभी किसी के भी सम्मुख नग्न भी हो सकता है । ऐसे लोगों को अत्यधिक भूख लगती है। यक्ष से त्रस्त व्यक्ति अचानक लाल रंग पसंद करने लगता है। बहुत कम या बहुत धीमे स्वर में बात करता है। प्रायः अपनी बात आंखो के इशारे से करता है। प्रेत बाधा ग्रस्त मनुष्य अक्सर ज़ोर - ज़ोर से साँसे लेता है , खूब चीखता है , इधर उधर भागता है। भोजन में रुचि कम हो जाती है। कठोर वचन बोलता है ।यदि किसी पर चुडैल का साया पड़ जाए तो ऐसा व्यक्ति अचानक खूब हृष्ट - पुष्ट हो जाता है। बात - बात पर मुस्कुराता है। मांस भक्षण में रुचि बढ़ जाती है। शाकिनी का प्रभाव महिलाओं पर होता है।इसके प्रभाव से वह बेसुध हो जाती हैं , रोती हैं तथा उनके शरीर में कंपन होता है। यह कुछ लक्षण हिस्टीरिया नामक रोग से मिलते जुलते हैं, अतः सर्वप्रथम चिकित्सक से परामर्श लेना आवश्यक है | यदि दवाएं बेअसर साबित हो रही हों तथा लक्षण दिन प्रति दिन उग्र होते जा रहे हों तो निश्चित ही यह ऊपरी बाधा के संकेत हैं। इस प्रकार की किसी भी बाधाओं को दूर करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है नारायण कवच का सविधि प्रयोग। देवगुरु बृहस्पति के देवराज इंद्र से रुष्ट होने पर, वृत्तासुर द्वारा देवताओं को पराजित करने के उपरांत देवराज इंद्र ने विश्वरूप को देवताओं का पुरोहित बना दिया।
तब देवसमाज की रक्षा के लिए इंद्र द्वारा पुरोहित विश्वरूप से नारायण कवच के प्रयोग हेतु निवेदन किया गया। आप भी इस दिव्य नारायण कवच के प्रयोग को ध्यान पूर्वक समझें।
विश्वरूप ने देवराज इंद्र को इस कवच के बारे में विस्तार से बताया था, इसी कवच के प्रभाव से देवराज इंद्र ने वृत्तासुर का वध कर, स्वर्ग पुनः प्राप्त किया। अतः किसी भी प्रकार की, भूत प्रेत पिशाच आदि बाधा उपस्थित होने पर, अथवा शत्रुओं द्वारा प्रताड़ित करने पर नारायण कवच धारण करके अपने शरीर की रक्षा कर लेनी चाहिए। उसकी विधि यह है कि पहले हाथ पैर धोकर आचमन करें, फिर हाथ में कुश की पवित्री धारण करके उत्तर मुख होकर बैठ जाएं। इसके बाद कवच धारण पर्यंत कुछ न बोलने का निश्चय करके, अर्थात मौन धारण करने का निश्चय करके, पवित्रता से “ ऊँ नमो नारायणाय ” और “ ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय ” इन मंत्रों के द्वारा हृदयादि अङ्गन्यास तथा अङ्गुष्ठादि करन्यास करें। पहले “ ऊँ नमो नारायणाय ” इस अष्टाक्षर मन्त्र के ऊँ आदि आठ अक्षरों का क्रमशः पैरों, घुटनों, जाँघों, पेट, हृदय, वक्षःस्थल, मुख और सिर में न्यास करें अथवा पूर्वोक्त मन्त्र के यकार से लेकर ऊँकार तक आठ अक्षरों का सिर से आरम्भ कर उन्हीं आठ अङ्गों में विपरित क्रम से न्यास करें। इसके पश्चात “ ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय ” इस द्वादशाक्षर मन्त्र के ऊँ आदि बारह अक्षरों का दायीं तर्जनी से बाँयीं तर्जनी तक दोनों हाथो की आठ अँगुलियों और दोनों अँगुठों की दो दो गाठों में न्यास करें।फिर “ ऊँ विष्णवे नमः ” इस मन्त्र के पहले अक्षर ‘ऊँ ‘ का हृदय में, ‘ वि ‘ का ब्रह्मरन्ध्र, में ‘ ष ‘ का भौहों के बीच में, ‘ण ‘ का चोटी में, ‘ वे ‘ का दोनों नेत्रों और ‘न’ का शरीर की सब गाँठों में न्यास करें तदनन्तर ‘ऊँ मः अस्त्राय फट्’ कहकर दिग्बन्द करें इस प्रकार न्यास करने से इस विधि को प्रयोग करने वाला पुरूष मन्त्रमय हो जाता है। इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव भगवान का ध्यान करें और अपने को भी तद् रूप ही चिन्तन करें तत्पश्चात् विद्या, तेज और तपः स्वरूप नारायण कवच का पाठ करें। नारायण कवच का मूल पाठ श्रीमद्भागवत महापुराण के छठे स्कंध के आठवें अध्याय में है।
आइये हम भी भाव से नारायण कवच का पाठ करें।
ऊँ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे।
दरारिचर्मासिगदेषुचापाशान् दधानोSष्टगुणोSष्टबाहुः ॥१२॥
जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्यादोगणेभ्यो वरूणस्य पाशात्।
स्थलेषु मायावटुवामनोSव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ॥१३॥
दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयुथपारिः।
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ॥१४॥
रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः।
रामो द्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोSव्याद् भरताग्रजोSस्मान् ॥१५॥
मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादान्नारायणः पातु नरश्च हासात्।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ॥१६॥
सनत्कुमारो वतु कामदेवा द्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्यः पुरूषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ॥१७॥
धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद् बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः ॥१८॥
द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद्, बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात् ।
कल्किः कले कालमलात् प्रपातु, धर्मावनायोरूकृतावतारः ॥१९॥
मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः।
नारायण प्राह्ण उदात्तशक्तिर्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ॥२०॥
देवोSपराह्णे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम्।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोSवतु पद्मनाभः ॥२१॥
श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ॥२२॥
चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम्।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमासु कक्षं यथा वातसखो हुताशः ॥२३॥
गदे शनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि।
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो भूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ॥२४॥
त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ पिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन्।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ॥२५॥
त्वं तिग्मधारासि वरारिसैन्य मीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि। चक्षूंषी चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् ॥२६॥
यन्नो भयं ग्रहेभ्यो भूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव वा ॥२७।।
सर्वाण्येतानि भगन्नामरूपास्त्रकीर्तनात्।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः ॥२८॥
गरूड़ो भगवान् स्तोत्र स्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ॥२९॥
सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः।
बुद्धिन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः ॥३०॥
यथा हि भगवानेव वस्तुतः सद्सच्च यत्।
सत्ये नानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपाद्रवाः ॥३१॥
यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।
भूषणायुद्धलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ॥३२॥
तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ॥३३॥
विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्तादन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन स्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजः ॥३४॥
इक्कीस बार इस स्तोत्र का पाठ कर जल अभिमंत्रित कर के, बाधाग्रस्त व्यक्ति को पिलाने से शीघ्र ही लाभ होता है। नारायण कवच के सविधि प्रयोग के लिए आप हमसे संपर्क कर सकते हैं। वैदिक ऐस्ट्रो केयर आपके मंगलमय जीवन हेतु कामना करता है, नमस्कार
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