आजकल गणपति विसर्जन को लेकर फेसबुक व्हाट्सएप आदि पर एक चर्चा चल रही है कि उत्तरभारत में गणेश विसर्जन नहीं होना चाहिए। दक्षिण भारत में ही सही है। सभी लोग अपनी अपनी क्षमता के आधार पर अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। बहुत से लोगों ने हमसे इस विषय पर अनेकों प्रश्न किए हैं, जैसे गणपति विसर्जन क्यों होता है। गणेश जी का विवाह सच में हुआ था या नहीं। गणेश जी के भाई स्वामी कार्तिकेय माता पिता भाई से रुष्ट क्यों हुए। क्या स्वामी कार्तिकेय जी का भी विवाह हुआ। गणेश जी दक्षिण भारत क्यों गए। एवं उनका विसर्जन करना चाहिए या नहीं। प्रश्न अनेक हैं। और अधिकतर प्रश्न पण्डितों के द्वारा ही किए गए हैं। यदि सामान्य जनमानस के प्रश्न हों तो उत्तर भी सामान्य चल जाएंगे। किन्तु सनातन का उचित ज्ञान रखने वाले ब्राह्मण देवता ही यदि प्रश्नकर्ता हों तो उत्तर भी तार्किक होना परमावश्यक हो जाता है। अपनी अल्पमति के अनुसार इन विषयों पर थोड़ी चर्चा कर लेते हैं। विचार से यदि सहमत ना हों तो कृपया कमेंट बॉक्स में तर्क के साथ अवश्य लिखें। ताकि हम भी सही ज्ञान से अछूते न रहें।
गणेश जी से सन्दर्भित अनेकों कथाएं प्रचलित हैं। गणेश जी का जन्म नहीं बल्कि गणेश जी का निर्माण माता पार्वती के द्वारा उबटन से किया गया था। जिन्हें माता पार्वती ने पुत्र रूप में स्वीकार किया है। एवं स्वामी कार्तिकेय जी का जन्म भगवान शिव एवं माता पार्वती के पुत्र रूप में हुआ है। एक ओर जहां गणेश समस्त गणों के ईश अर्थात स्वामी हैं, वहीं स्वामी कार्तिकेय देवताओं के प्रमुख सेनापति हैं। गणेश जी का विवाह ऋद्धि एवं सिद्धि जी के साथ हुआ है और स्वामी कार्तिकेय जी का विवाह वल्ली एवं देवसेना के साथ हुआ है। दोनों ही विवाहित हैं। एक बार देवर्षि नारद एक दिव्य फल लेकर कैलाश पर्वत पर पँहुचे, उस दिव्य फल को लेने की इच्छा से श्री गणेश जी एवं स्वामी कार्तिकेय जी के मध्य ब्रह्मांड की तीन परिक्रमा करने की प्रतियोगिता हुई। स्वामी कार्तिक तो अपने वाहन मयूर पर आरूढ़ होकर परिक्रमा करने हेतु चले गए किन्तु श्री गणेश जी द्वारा अपनी माता पार्वती एवं पिता भगवान शिव की ही तीन प्रदक्षिणा कर, माता पिता ही समस्त संसार हैं इस तर्क के द्वारा अपने भ्राता स्वामी कार्तिकेय को परास्त कर दिया गया था। किन्तु इस बात से स्वामी कार्तिकेय रुष्ट होकर कैलाश पर्वत का त्याग कर देवताओं के सेनापति के रूप में दक्षिण भारत चले गए। तारकासुर वध के उपरांत ही स्वामी कार्तिकेय को देवताओ से सदैव युवा रहने का वरदान प्राप्त हुआ । दक्षिण में स्वामी कार्तिकेय मुरुगन नाम से भी जाने जाते हैं। श्री गणेश जी अपने भाई स्वामी कार्तिकेय जी को मिलने के लिए ही दक्षिण भारत आए थे। पुराणों के अनुसार वेदव्यास जी के द्वारा रचित महाभारत ग्रन्थ को लिखने के उपरांत गणेश जी जब कैलाश पर्वत आए तो ऋषि अगस्त्य जी से भेंट हुई। अगस्त्य ऋषि के साथ ही गणेश जी ने दक्षिण भारत की यात्रा की। कावेरी एवं गोदावरी नदियों को प्रकट किया। विषय थोड़ा विस्तृत हो रहा है अतः मूल विषय पर आते हैं। गणेश शब्द का शाब्दिक अर्थ है गणों का ईश। ईश अर्थात स्वामी। ऐसे ही गणपति का भी शाब्दिक अर्थ है गणों के पति। पति का अर्थ भी स्वामी ही होता है। और गणेशोत्सव में जहां भी विसर्जन की बात आती है तो प्रयोग गणेश विसर्जन या गणपति विसर्जन शब्द का ही होता है। ईश या पति का तात्पर्य स्वामी से है। अर्थात गणेश जी समस्त शिवगणों के स्वामी हैं। और स्वामी कार्तिकेय देवताओं के सेनापति होने के साथ ही शिव गण भी हैं। अतः जब गणेशजी दक्षिण भारत में स्वामी कार्तिकेय जी के पास गए तो उन्हें राजा का सम्मान प्रदान किया गया। वह जब तक दक्षिण में रहे उन्हें राजा के रूप में ही पूजा गया। इसीलिए आज भी मुंबई में लालबाग के राजा के रूप में ही गणेशजी की स्थापना की जाती है। अच्छा मुम्बई में गणेशजी सिद्धि विनायक के रूप में विराजमान हैं। सिद्धिविनायक। शब्द में ही अर्थ एवं भाव व्याप्त रहता है। पहले विनायक पर चर्चा करते हैं। विनायक में वि विशेषण है। वि का तात्पर्य विशेष से है। जहां भी विशेषता दर्शानी हो वहां वि का प्रयोग करते हैं। जैसे विद्वान, अर्थात विशेष विद्या को जानने वाला। वियोग, योग का अर्थ है जुड़ना। वि विशेषण लगने से शब्द बना वियोग। अर्थात विशेष रूप से जुड़ना। ठीक इसी प्रकार मूल शब्द है नायक।
नायक शब्द का प्रयोग ही उस व्यक्तित्व के लिए होता है जो
प्रतिकूल परिस्थितियों में संकटों का सामना करते हुए, चतुराई, साहस या शक्ति के माध्यम से प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अनुकूल कर दे। श्रीगणेश जी बुद्धि के तर्क के देवता हैं। विघ्नहर्ता हैं। ऋद्धि सिद्धि के दाता हैं। अतः नायक हैं। यही विनायक हैं। नायक शब्द में वि विशेषण लगने से ही शब्द बना विनायक। अर्थात विशेष राजा। तो श्री गणेशजी को विशेष रूप से नायक अर्थात राजा के रूप में स्थापित करना ही गणेश विसर्जन है। विनायक, गणेश, गणपति शब्दों के अर्थ पर हम विस्तार पूर्वक विचार कर चुके हैं। अब विसर्जन शब्द पर चर्चा करते हैं। हालांकि यह संस्कृत व्याकरण का विषय है । अतः यह विशेष ध्यान देने योग्य है। एक शुद्ध शब्द है 'सर्जन' । संस्कृत व्याकरण के अनुसार, 'सर्जन' शब्द 'सृज्' धातु से बना है। 'सृज्' एक तुदादि गण, परस्मैपदी धातु है। सामान्यतः 'सर्जन' शब्द के कई अर्थ हैं जैसे - सृष्टि का उत्पन्न होना, कोई वस्तु निर्मित करना या उत्पादित करना,। साधारण भाषा में 'सर्जन' का अर्थ है निर्माण कर्ता अथवा निर्माण। जब किसी धातु में अन या अनीय प्रत्यय लगता है तथा धातु के अंत में इक् स्वर अर्थात इ,उ,ऋ,लृ तथा इनका दीर्घ रूप, हो तो अन या अनीय प्रत्यय लगाते समय लघु उपधा/ इक् स्वर का गुण हो जाता है। जैसे - इ और ई का ए होना। जैसे उ और ऊ का ओ हो जाना। उदाहरण के लिए लिख् और अनीय, लेखनीय बनेगा। लिख् और अन, लेखन शब्द बनेगा।कृष् और अन, कर्षण बनेगा। दृश् और अन दर्शन बनेगा। ठीक इसी प्रकार सृज् और अन से सर्जन शब्द बनेगा। सम्भवतः आंग्लभाषा का "Sergon" शब्द भी निर्माण के अर्थ में ही लिया गया होगा। सर्जन अर्थात सर्जरी करने वाला डॉक्टर। क्योंकि वह भी सुधार करता है, बनाता है, निर्माण करता है, अतः संस्कृत भाषा के सर्जन शब्द को उनके सम्बोधन हेतु प्रयोग किया गया होगा। यहां हम मूलतः विसर्जन शब्द पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे। सर्जन शब्द कैसे बना यह संस्कृत व्याकरण के अनुसार बताया। सर्जन शब्द में भी वि विशेषण लगाकर शब्द बना विसर्जन। शब्द का अर्थ हुआ, विशेष रूप से निर्माण करने वाला। अतः इसे यदि एक ही पंक्ति में कहें तो समस्त गणों के स्वामी श्री गणेश जी को विशेष नायक का पद सृजित कर, अर्थात विशेष राजा के पद पर, विनायक रूप में, विशेष निर्माण हेतु विसर्जन करना। क्या आप भाव समझ पाए? विसर्जन का तात्पर्य केवल जल में डुबाना नहीं है। अच्छा यदि कर्मकांड विधि की बात भी करें तो भी गणेश जी लक्ष्मी जी को विदा नहीं किया जाता। अन्य सभी आवाहित देवताओं को विसर्जित कर देते हैं। किंतु गणेश जी लक्ष्मी जी को अपने ही घर में अपने घर के मंदिर में अथवा तिजोरी आदि में स्थापित किया जाता है।
गणेश पुराण में ही श्लोक मिलता है कि -
महाजलाशयं गत्वा विसृज्य निनयेज्जले।
वाद्यगीतध्वनियुतो निजमन्दिरमाव्रजेत् ॥
अर्थात सार्वजनिक पंडाल में पूजन उत्सव की पूर्णाहुति के उपरांत सभी भक्त जन किसी पवित्र नदी अथवा समुद्र के तट पर जाएं, और श्रीगणेश जी का अभिषेक कर वाद्ययंत्रों की ध्वनि के साथ संकीर्तन करते हुए अपने घर को आएं। विसृज्य से तात्पर्य जल में डुबाने से नहीं अपितु विशेष पद सृजित करने से है। राजा के पद पर बैठने वाले व्यक्ति का राज्याभिषेक ही तो किया जाता है। अतः गणेश जी का उत्सव मनाने के बाद उनका राज्याभिषेक कर, आप भी उन्हें विनायक बनाइए, अर्थात अपने विशेष नायक बनाइए। यही भाव है। एक ही शब्द के बहुत से अर्थ हो सकते हैं। किंतु कब किस सन्दर्भ में क्या अर्थ लिया जाए, यह महत्वपूर्ण है। यही इस विषय में भी हो रहा है। यदि और अच्छे से समझना है तो कृपया गणेश पुराण का अध्ययन करें। गणेश पुराण में स्पष्ट उल्लेख है कि -
सर्वरोगप्रपीडासु मूर्तीनां त्रयमुत्तमम् ।
नवाहं पूजयेद्यस्तु सर्वपीडां व्यपोहति ॥
सौवर्णी राजती ताम्री रीतिकांस्यसमुद्भवा ।
मौक्तिकी च प्रवाली च सर्वमेतत्प्रयच्छति ॥
गणेश जी की प्रतिमा का निर्माण देशी गाय के गोबर या विशेष मिट्टी, जिसे उबटन में प्रयोग किया जाता है, उससे करना सर्वश्रेष्ठ होता है। इसके अतिरिक्त पत्थर से, लकड़ी से, सोना चांदी पीतल ताँबा आदि धातुओं से और यहां तक कि रत्नों से भी श्रीगणेश जी की प्रतिमा बना सकते हैं। सुपारी और नारियल को भी गणेश जी के स्वरूप में पूजा जा सकता है। गणेशोत्सव बड़े धूमधाम से मनाएं। किन्तु विसर्जन का भाव पहले भलीभांति समझ लें। यह ना करें कि दस दिन खूब उत्सव मनाएं और फिर विसर्जन के नाम पर अनादर हो जाए। भूलकर भी चूने या सीमेंट आदि रासायनिक पदार्थों से निर्मित गणेश जी को स्थापित न करें। दिखावे से बचें। कोई लाभ नहीं है कि सौ फुट की प्रतिमा लगाई है या हजार फुट की। उत्सव के बाद उन प्रतिमाओं की दुर्गति ही की जाती है। धर्म के नाम पर अधर्म करने से बचें। पुण्य के नाम पर पाखण्ड ना करें, यही हाथ जोड़कर विनती करते हैं। और हां, यह भी आवश्यक नहीं है कि हर कोई हमारे विचार से सहमत ही हो। किन्तु असहमति का कारण समुचित अध्ययन करने के उपरांत सभ्य शब्दों में कमेंट बॉक्स में अवश्य लिखें। आप सभी दर्शकों के मंगलमय जीवन हेतु मैं आचार्य हिमांशु ढौण्डियाल एक बार पुनः भगवान श्री गणेश जी से प्रार्थना करता हूँ, नमस्कार।
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