जय श्री कृष्ण। सभी दर्शकों श्रोताओं का मैं आचार्य हिमांशु ढौण्डियाल एक बार पुनः अभिवादन करता हुआ, पूर्व में फेसबुक पटल पर प्रेषित, श्री सत्यनारायण व्रत कथा के शीर्षक विषय पर आधारित वीडियो को देखकर, हमारे अनेकों शुभचिंतकों, दर्शकों, जिज्ञासुओं के विशेष आग्रह पर आज विस्तार से श्री सत्यनारायण व्रत कथा के माहात्म्य पर यथा मति यथा ज्ञान अपने विचार आप सभी सुधीजनों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। साथ ही आशा करता हूँ कि आप तन्मयता से वीडियो को पूरा देखकर, हमारे भावों को समझकर, इस चर्चा में स्वयं भी भागीदारी सुनिश्चित करेंगे।
माहात्म्य का शाब्दिक अर्थ है महत्व।महत्व को ही माहात्म्य कहते हैं ।
यदि ध्यान दिया जाए तो सत्यनारायण कथा में एक ही बात को बार बार सत्यापित किया गया है, वो यह कि यदि आप सत्य कि प्रतिज्ञा कर लेते हैं, आप सत्यनिष्ठ बनते हैं तो आपको मानव जीवन में समस्त भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति होती है और मानव कलेवर त्यागने पर भगवान के नित्य निवास वैकुण्ठ की प्राप्ति हो जाती है ।
इह लोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ।।
तात्पर्य है कि जब तक व्यक्ति इस संसार में जीवित अवस्था में है यदि तब तक वह सत्य का आश्रय ग्रहण कर, उत्तम आचरण करता है, सत्य नारायण कि प्रतिज्ञा ग्रहण करता है, सत्य संकल्प लेता है तो उसे इस संसार में जितने भी भौतिक सुख है, उन सभी की प्राप्ति सहज ही हो जाती है । और अन्त में वह भगवान सत्यनारायण जी के लोक वैकुंठ को प्राप्त करता है। बस इसी बात को अलग अलग कथाओं , दृष्टान्तों के माध्यम से सिद्ध किया गया है। जैसे काशी नगर में रहने वाले निर्धन ब्राह्मण ने भगवान सत्यनारायण की प्रेरणा से सत्य नारायण व्रत का पालन कर समस्त भौतिक सम्पत्तियों को प्राप्त किया और दुर्लभ मोक्षपद प्राप्त किया। इसी प्रकार श्री सत्यनारायण व्रत कथा मैं अन्य जितनी भी कथाएं हैं
उनका मूल उद्देश्य है सत्यनारायण व्रत के महत्व को सिद्ध करना, अर्थात मानव जीवन में सत्य की प्रतिज्ञा करने पर क्या प्राप्त होता है, यह बतलाना। कारण ! जब तक हमें किसी वस्तु के महत्व की जानकारी नहीं होती तब तक हम उस वस्तु को महत्व भी नहीं देते। जैसे मार्ग में आपको चलते चलते एक हीरे का टुकड़ा पड़ा दिखा ,किन्तु, क्योंकि आपको हीरे की पहचान नहीं है और वह हीरा अभी रत्न के आकार में ढाला नहीं गया है, परिष्कृत नहीं किया है, आप उसे कांच का टुकड़ा समझ कर त्याग देंगे। जौहरी को ही रत्न की पहचान होती है। ठीक इसी प्रकार इस श्री सत्यनारायण व्रत कथा के महत्व की जानकारी, व्रत के स्वरूप की पहचान, ऋषि मुनियों, ज्ञानी ब्राह्मणों, को होती है। और जो जिज्ञासु प्रवृत्ति के भगवद्भक्त गुरुओं की चरण शरण ग्रहण करते हैं उन्हें यही कथा भुक्ति मुक्ति प्रदान कर देती है। अन्य अज्ञानियों के लिए तो यह कांच ही है, किन्तु गुरु शरणागत भक्तों के लिए यह अनमोल रत्न है। आदिगुरु शंकराचार्य जी द्वारा प्रतिपादित अद्वैत सिद्धांत कहता है -
ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर: ।
अर्थात् ब्रह्म ही एक सत्य है और यह दृश्य जगत भ्रम व मिथ्या है। जीव ही ब्रह्म है इसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं । शंकराचार्य जी के अद्वैत दर्शन का यही मूलाधार है । क्योंकि जिसके स्वरूप में स्वभाव में प्रतिक्षण परिवर्तन आए, वह केवल भ्रम है वही मिथ्या है। यही संसार है। संसार को संसृति कहा जाता है। संसृति अर्थात, जो अनवरत बदलता रहे। जो क्षण अभी है वह बीत गया, अब नया है। अनवरत यही क्रम चल रहा है। बस यही संसार है। काल के गाल में हर क्षण सरक रहा है। निरन्तर स्वरूप बदल रहा है इसलिए मिथ्या है इसीलिए भ्रम मात्र है। तो फिर सत्य क्या है? तो कहा ब्रह्मसत्यं । ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है। गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में कहें तो -
मन समेत जेहि जान न बानी।
तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥
महिमा निगमु नेति कहि कहई।
जो तिहुँ काल एकरस रहई॥
अर्थात-
जिनको मन सहित वाणी नहीं जानती और ज्ञानीजन जिनका केवल अनुमान ही कर पाते हैं, जिनकी महिमा को वेद भी 'नेति नेति' कहकर वर्णन करते हैं वही सत चित्त आनंद स्वरूप भगवान तीनों कालों में एकरस अर्थात सर्वदा और सर्वथा निर्विकार रहते हैं । सत्य स्वरूप में नारायण अर्थात ब्रह्म ही हैं, इसीलिए ब्रह्मसत्यं कहा गया है। नारायण ही ब्रह्म हैं। ब्रह्म ही सत्य है। इसीलिए सत्य रूपी ब्रह्म का संकल्प लेना चाहिए। सत्य नारायण की प्रतिज्ञा लेनी चाहिए।
सनातन धर्म के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ, जो कि स्वयं भगवान का ही प्रत्यक्ष वांग्मय स्वरूप है, ऐसे अलौकिक श्रीमद्भागवत महापुराण में आदि मध्य और अंत में सत्य की ही वंदना की गई है। प्रारम्भ में -
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः । तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ।
ग्रन्थ के मंगलाचरण में सत्यं परम् धीमही कहकर सत्य रूप नारायण का ही ध्यान किया गया है।
मध्य में-
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये ।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ।
और अन्त मैं भी
कस्मै येन विभासितोऽयमतुलो ज्ञानप्रदीपः पुरा
तद्रूपेण च नारदाय मुनये कृष्णाय तद्रूपिणा ।
योगीन्द्राय तदात्मनाथ भगवद्राताय कारुण्यत -
स्तच्छुद्धं विमलं विशोकममृतं सत्यं परं धीमहि ।
श्रीमद्भागवत के आदि, मध्य और अंत में केवल सत्य ही सत्य है, सत्यं परम् धीमही, इसीलिए श्री मद् भागवत महापुराण को प्रत्यक्ष वाङ्गमय स्वरूप कहते हैं। वाङ्मय का तात्पर्य है ब्रह्म का शब्द विग्रह स्वरूप। यही अक्षर ब्रह्म है।
अ मतलब नहीं, क्षर का अर्थ नष्ट होना । अर्थात जो कभी नष्ट ना हो उसे अक्षर कहते हैं। यही अक्षर ब्रह्म है। यही स्वर ब्रह्म है। यही शब्द ब्रह्म है। अग्नि पुराण में कहा गया है कि
शब्द रूप धरस्यैते विष्णोरंशा इवात्मना ।।
अर्थात भगवान विष्णु ही शब्दब्रह्म रूप में विद्यमान हैं।
स्वर ब्रह्म, शब्दब्रह्म, अक्षर ब्रह्म इसीलिए कहा जाता है ।
व्याकरण की दृष्टि से अक्षर अर्थात वर्ण पांच वर्गों में विभाजित हैं । क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, और प वर्ग।
अब प्रत्येक वर्ग के अक्षरों को उच्चारण करने हेतु कंठ, तालु, मूर्धा, दन्ति और ओष्ठ इन पांचों का अलग अलग प्रयोग किया जाता है। इसके लिए व्याकरण में सूत्र निर्धारित हैं।
अ-कु-ह-विसर्जनीयानां कण्ठः
अर्थात क वर्ग (क, ख, ग, घ, ङ्), एवं हकार अथवा विसर्ग का उच्चारण स्थान "कण्ठ" है। इसी प्रकार दूसरा सूत्र है इ-चु-य-शानां तालु । अर्थात चवर्ग (च, छ, ज, झ, ञ), एवं यकार और शकार इनका उच्चारण स्थान " तालु" है। तीसरा सूत्र है ऋ-टु-र-षाणां मूर्धा । अर्थात टवर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण), एवं रे और ष कार इनका उच्चारण स्थान "मूर्धा" है। चौथा सूत्र है लृ-तु-ल-सानां दन्ताः । अर्थात तवर्ग (त, थ, द, ध, न), एवं लकार और सकार का उच्चारण स्थान "दन्त" है। एवं पांचवां सूत्र है उ-पु-उपध्मानीयानाम् ओष्ठौ । अर्थात पवर्ग (प, फ, ब, भ, म) और उपध्मानीय इनका उच्चारण स्थान "ओष्ठ" है। अब अ, इ, ऋ, लृ, और उ यह पांच स्वर क्रमशः
कवर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, और प वर्ग के प्राण स्वरूप हैं। जिस प्रकार से प्राणिमात्र में परमात्मा, आत्मा रूप में विद्यमान हैं ठीक उसी प्रकार से यह पांच स्वर अक्षर ब्रह्म में प्राण स्वरूप हैं। शब्द रूप धरस्यैते विष्णोरंशा इवात्मना ।।
अब विशेष रूप से ध्यान दीजिएगा, और साथ में जोड़ते भी जाएं। क वर्ग के पांच अक्षरों क, ख, ग, घ, ङ् के साथ कण्ठ से उच्चारण ह अक्षर का भी होता है, इस प्रकार यह छः अक्षर हुए।
च वर्ग के पांच अक्षरों च, छ, ज, झ, ञ के साथ तालु से उच्चारण य और श अक्षर का भी होता है, इस प्रकार यह सात अक्षर हुए।
ट वर्ग के पांच अक्षरों ट, ठ, ड, ढ, ण के साथ मूर्धा से उच्चारण र और ष अक्षर का भी होता है, इस प्रकार यह सात अक्षर हुए।
त वर्ग के पांच अक्षरों त, थ, द, ध, न के साथ दन्त से उच्चारण ल और स अक्षर का भी होता है, इस प्रकार यह सात अक्षर हुए।
प वर्ग के पांच अक्षरों प, फ, ब, भ, म के साथ ओष्ठ से उच्चारण व अक्षर का भी होता है, इस प्रकार यह छः अक्षर हुए। इन्हीं पांच वर्गों में अलग-अलग वर्णों की कुल संख्या मिलाकर तैतीस हैं। जिन्हें हमारे सनातन धर्म में तैतीस कोटि देवी देवता कहा जाता है। यही तैतीस वर्ण, अर्थात अक्षर, अक्षर ब्रह्म, शब्द ब्रह्म अथवा स्वर ब्रह्म के नाम से जाने जाते हैं। इन्हीं 33 वर्णों में 33 कोटी देवी देवता अक्षर ब्रह्म के रूप में व्याप्त हैं। यहां यह भी स्मरण रखें कि कोटि का अर्थ प्रकार से है, करोड़ से नहीं। क्योंकि अभी भी उन लोगों की संख्या अधिक है जो कहते हैं कि तैतीस करोड़ देवी देवता होते हैं। कोटि अर्थात प्रकार। तैतीस प्रकार के इन सभी अक्षरों में अ कार समान रूप से व्याप्त है। अ रूपी अमृत बीज से सिंचित होने से ही निरन्तर क्षर होने वाला यह संसार भी अक्षर बन जाता है। अक्षर ही ब्रह्म है। इसलिए ही शब्द रूपी ब्रह्म की उपासना अक्षर ब्रह्म के रूप में होती है ।
इसी शब्द ब्रह्म की प्रतिमूर्ति श्रीमद् भागवत महापुराण है
और श्रीमद् भागवत महापुराण ही इस बात को प्रमाणित कर रहा है कि तीनों कालों में सत्य के रूप में अक्षर ब्रह्म ही स्थापित है।
अभी तक हमने सत्य एवं नारायण पर चर्चा की, चर्चा काफी विस्तृत हुई किन्तु विषय पूर्ण रूप से स्पष्ट हो यह मूल उद्देश्य होता है हमारा। अब व्रत पर बात करते हैं। श्री सत्यनारायण व्रत कथा। तो व्रत क्या है? और व्रत का महत्व क्या है ?
व्रत का तात्पर्य होता है संकल्प, या प्रतिज्ञा। व्रत का तात्पर्य भूखे रहना अथवा उपवास से नहीं है किसी भी कार्य के प्रति संकल्पित होना ही व्रत कहलाता है। यहां पर संकल्प का तात्पर्य सत्य रूपी ब्रह्म का आश्रय लेना और स्वयं को सत्य में स्थापित कर, सत्य स्वरूप होना है। व्रत प्रतिज्ञा को कहते हैं। गंगा पुत्र देवव्रत को सभी जानते हैं। उन्होंने प्रतिज्ञा ही तो ली थी, कि जीवन पर्यंत ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूँगा। ब्रह्मचर्य व्रत। व्रत अर्थात प्रतिज्ञा। इसी प्रतिज्ञा के कारण तो नाम पड़ा पितामह भीष्म। व्रत यही है। व्रत प्रतिज्ञा है। सत्य रूपी नारायण, अर्थात ब्रह्म के पालन का संकल्प ही सत्यनारायण व्रत है। भूखे रहने को, अन्न के त्याग को अनशन कहते हैं। और उपवास का अर्थ है समीप रहना। तो समीप किसके? कहा सत्य रूपी ब्रह्म के। यदि आप भोजन पाकर, अन्न खाकर भी भगवान के समीप बैठे हैं और नाम जप या हरि नाम चर्चा या ग्रंथों का श्रवण करते हैं तो उसे उपवास ही कहा जाता है।
उपवास करने के मूलतः यह चार मार्ग हैं
नाम, रूप, लीला, और धाम ।
नाम अर्थात श्री भगवान के नाम का जप या कीर्तन करना।
रूप का तात्पर्य है कि मंदिर जाकर भगवान के विग्रह के दर्शन करना। लीला का भाव है कि भगवान की लीला चरितों को, कथाओं को सुनना। और
धाम से तात्पर्य है कि तीर्थो की यात्रा करना, तीर्थ वास करना। यह चार प्रकार के उपवास कहलाते हैं। यहां विशेष ध्यान देने वाली बात यह है कि श्री सत्यनारायण व्रत धारण करने हेतु यदि आप अन्न का त्याग करते हैं तो आपको आलस्य प्रमाद नहीं होगा। आलस्य व्रत संकल्प पूर्ण करने में बाधक बन सकता है। और उपवास के द्वारा आप अपनी इन्द्रियों का निग्रह कर सकते हैं। श्री भगवान कहते हैं कि -
सन्मुख होई जीव मोहि जबहीं,
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं".
अर्थात जैसे ही जीव मेरे सन्मुख होता है उसके करोड़ों जन्मों के पाप स्वतः ही भस्म हो जाते हैं । इसीलिए, व्रत के दिन यानी सत्य का संकल्प लेने के दिन उपवास करना और अन्नसन करना आपके द्वारा की गई प्रतिज्ञा को पूर्ण करने में सहायक होते हैं। अभ्यास धीरे धीरे ही करना चाहिए। पहले एक दिन का संकल्प, फिर एक सप्ताह का, फिर एक पक्ष का, फिर एक मास, फिर एक वर्ष का। यदि क्रम से संकल्प लेकर प्रतिज्ञा लेकर सत्य ब्रह्म का पालन कर सके तो एक वर्ष में ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। अब तक आपको सत्य नारायण व्रत का महत्व समझ आ गया होगा। तो अब कथा शब्द के भाव को समझने की चेष्टा करते हैं। कथा शब्द क एवं था इन दो अक्षरों के संयोग से बना है। यहाँ क अक्षर वेदांत की दृष्टि से ब्रह्म का द्योतक है। पूर्व में निवेदन किया था कि अक्षरों को क च ट त प इन पांच वर्गों में विभाजित किया गया है। क वर्ग प्रथम वर्ग है और क अक्षर प्रथम अक्षर है प्रथम ब्रह्म का द्योतक है। अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्। ब्रह्म ही प्रथम है। अतः क को ब्रह्म बीज कहते हैं। और कथा शब्द का दूसरा अक्षर है थ। जहां भी रुकने से संबंधित शब्द आएगा वहां अधिकांश थ का प्रयोग अवश्य होगा । जैसे - स्थापित, स्थिति, स्थापना, स्थानीय, स्थान, स्थायी, स्थल, थाह। बहुत से शब्द आपको और भी प्राप्त हो जाएंगे जिनका सम्बन्ध रुकने से, ठहरने से होगा।
थ का तात्पर्य स्थपित होना ,स्थित होना था पाना, आदि से है।
एक बार एक सज्जन ने कहा थैला। तो थैला भी वस्तु को रखने में ही उपयोग किया जाता है। तो कथा शब्द में थ अक्षर का तात्पर्य भी रुकने, ठहरने से ही है। यदि पूरे शीर्षक को एक साथ कहें तो सत्यनारायण व्रत कथा का मूल भावार्थ ही है कि सत्य नारायण रूप ब्रह्म में स्वयं को स्थापित करने का संकल्प। स्वयं सत्य नारायण रूप ब्रह्म में स्थित होने की प्रतिज्ञा। यही भाव है। यही मूल अर्थ है सत्यनारायण व्रत कथा का । किन्तु लक्ष्मी के बिना नारायण की ही उपासना करना भी बहुत बार समस्या उत्पन्न कर सकती है। इसलिए
सत्यनारायण व्रत कथा कहने से पूर्व श्री लगाना परम् आवश्यक है। श्री का अर्थ ही है लक्ष्मी। लक्ष्मी अर्थात मान, सम्मान, धन, वैभव, यश, पुत्र, प्रजा, साधन । यह सब श्री है। यह सब नारायण की शक्ति लक्ष्मी है। अतः श्री से युक्त सत्य को धारण करने के लिए जो सत्यनारायण कथा में कथानक हैं वह एक ही बात बता रहे हैं कि आप सत्यव्रत को धारण करें, जिससे आपको संसार की भौतिक सुख सम्पदाओं के साथ अध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति हो, और आप इस लोक में समस्त सुखों का उपभोग कर पूर्णायु भोगकर इस पंचभौतिक कलेवर का त्याग कर, भगवान के नित्य निवास वैकुण्ठ में सायुज्य मुक्ति प्राप्त करें। बोलिये श्री सत्यनारायण भगवान की - जय। धैर्य पूर्वक यदि आपने यहां तक वीडियो को देख है तो जनकल्याण की भावना से शेयर भी अवश्य करें। जय श्री कृष्ण
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