नमस्कार। वैदिक एस्ट्रो केयर में आपका हार्दिक अभिनंदन है। सनातन धर्म में ब्रह्मचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ और सन्यास यह चार आश्रम बताए गए हैं। जिनमें प्रमुख रूप से गृहस्थ आश्रम को महिमामण्डित किया है। इस महिमामंडन के अनेक कारण हैं, जिनमें सर्वाधिक प्रमुख कारण यही है कि गृहस्थ आश्रम ही अन्य सभी तीनों आश्रमों का आधार है। अतः गृहस्थ आश्रम को अन्य सभी आश्रमों से अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। महर्षि व्यास जी के अनुसार, गृहस्थ एव हि धर्माणांं सर्वेषां मूल उच्यते। अर्थात, गृहस्थाश्रम ही सभी धर्मों का आधार है। जिस प्रकार समस्त प्राणी मात्र माता का आश्रय प्राप्त कर जीवन लाभ पाते हैं, उसी प्रकार सभी आश्रम गृहस्थाश्रम पर ही निर्भर रहते हैं। परिवार संस्था सहजीवन के व्यवहारिक शिक्षण की एक प्रयोग शाला है। इसीलिए कुटुम्ब समाज संस्था की इकाई माना जाता है। गृहस्थ में बिना किसी संविधान, दंड विधान, या किसी सैनिक शक्ति के ही सभी सदस्य परस्पर सहयोगी जीवन व्यतीत करते हैं।माता पिता, पुत्र पुत्री, पति पत्नी, नाते रिश्तों के सम्बंध किसी दण्ड के भय से नहीं, अपितु स्वेच्छा से कुल धर्म, कुल परम्परा, एवं आनुवंशिक संस्कारों पर निर्भर करते हैं। प्रत्येक सदस्य अपनी अपनी मर्यादाओं का पालन करने में अपनी प्रतिष्ठा, कल्याण, एवं गौरव की भावना रखकर प्रसन्नता से उन्हें निभाने का प्रयत्न करता है। कुटुम्ब के साथ सहजीवन में आवश्यकता पड़ने पर प्रत्येक सदस्य अपने व्यक्तिगत सुख स्वार्थों का त्याग करने में भी प्रसन्नता का अनुभव करता है। यही एक पारिवारिक जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता होती है। बिना अपने स्वार्थों का त्याग किए, कष्ट सहन किए, सह जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। उसमें भी विशेषता यह है कि यह त्याग सहिष्णुता स्वेच्छा से प्रसन्नता के साथ वहन की जाती है। कुटुम्ब के निर्माण के लिए किसी तरह के कृत्रिम उपाय, संकल्प विधान की आवश्यकता नहीं होती। परिवार अपने आप में एक स्वयं सिद्ध संस्था है। माता पिता, भाई बहन, चाचा ताऊ, पुत्र पुत्री, आदि के चुनाव की आवश्यकता नहीं होती। जहाँ गृहस्थ है, वहाँ यह सब तो हैं ही। और इन सम्बन्धों को स्थिर रखने के लिए किसी कृत्रिम उपाय की भी आवश्यकता नहीं होती। परिवार तो सहज आत्मीयता पर चलते हैं। यही सनातन संस्कृति है।
इस श्रेष्ठ गृहस्थ आश्रम का भी जो आधार है वह है वैवाहिक जीवन। स्त्री और पुरुष विवाह संस्कार के द्वारा ही गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर गृहस्थाश्रमी कहलाते हैं। स्मरण रहे, कि विवाह संस्कार का अर्थ दो शरीरों का मिलन नहीं होता। सनातन धर्म में विवाह स्थूल नहीं, वरन हृदय की, आत्मा की, मन की एकता का संस्कार है। जो लोग विवाह को शारिरिक, निर्बाध कामोपभोग का सामाजिक स्वीकृति पत्र समझते हैं वे भूल करते हैं। वास्तव में वह अज्ञान में हैं। क्योंकि विवाह का यह प्रयोजन कदापि नहीं है। भारतीय जीवन पद्धति में विवाह का उद्देश्य बहुत विशाल है, बहुत दिव्य है, बहुत पवित्र है। किन्तु वर्तमान समय में कुछ पाश्चात्य संस्कृति को मानने वाले लोग ही इस परम पवित्र बंधन की विशालता को न समझते हुए भारतीय दम्पत्तियों का, धर्म के प्रति उनके समर्पण का, उपहास करते हैं। हम अपने समस्त सनातनी दर्शकों से यह करबद्ध निवेदन करते हैं कि अपने धर्म, अपनी संस्कृति को समझें। और सनातन परंपरा में चले आ रहे किसी भी व्रत त्योहार का कभी भी भूलकर भी उपहास न करें। और जो ऐसा करता दिखे उसका विरोध भी अवश्य करें। अपने धर्म अपनी संस्कृति की रक्षा हेतु योगदान दें। सनातन धर्म में प्रत्येक शब्द का अपना एक गूढ़ अर्थ होता है। एक अकेला शब्द भी अपने अर्थ में अनेक भाव छुपाए होता है। बस आवश्यकता होती है उन शब्दार्थ, भावार्थ को समझने की। हिन्दू धर्म में पति परायणा स्त्रियां अपने पति को स्वामी अथवा परमेश्वर मानती हैं। पति शब्द का भी ऐसा ही विशाल अर्थ है। पातयति, रक्षयती या सा पति। अर्थात जो व्यक्ति जीवन पर्यंत आपका पालन करे, हर प्रकार से आपकी रक्षा करे, वही पति है। इसे ऐसे समझें। परमेश्वर सबसे अधिक अपने भक्त को ही प्रेम करते हैं। और परमेश्वर के सामने ही तो हम अपनी सारी कामनाएं अपनी सारी उम्मीदें रखते हैं। एक पति जीवन पर्यंत अपनी प्रियतमा धर्म पत्नी की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति पूर्ण निष्ठा से करता है। यह सब प्रत्येक पत्नी अनुभव करती हैं। अपने पति का परिश्रम देखती हैं, पति के परिश्रम को सराहती भी हैं। और पति भी सदा से ही अपनी पत्नी की प्रत्येक आवश्यकताओं की पूर्ति करते आए हैं। बदले में एक धर्म पत्नी अपने पति परमेश्वर का सम्मान करती है, उन्हें अपना निश्छल प्रेम प्रदान करती है। तभी तो सनातन संस्कृति में पति को परमेश्वर मानकर उनकी पूजा करने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। पत्नियां अपने परमेश्वर रूपी पति की लंबी उम्र के लिए, उनकी बेहतर आय के लिए, उत्तम स्वास्थ्य के लिए, बेहतर गृहस्थ जीवन के लिए, परमात्मा से प्रार्थना करती हैं, उनके लिए अनेक प्रकार के व्रत रखती हैं। इन व्रतों में एक महत्वपूर्ण व्रत है करक चतुर्थी व्रत। इसे करवा चौथ व्रत के नाम से भी जाना जाता है। यह एक अद्भुत व्रत है। सुहागिन या पतिव्रता स्त्रियों के लिए करवा चौथ बहुत ही महत्वपूर्ण व्रत है।
वैदिक ज्योतिष शास्त्र की पञ्चाङ्ग परम्परा के अनुसार यह श्रेष्ठ व्रत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को धारण किया जाता है। इस व्रत को नियम पूर्वक धारण करने से, जीवन में आने वाले कष्टों से रक्षा होती है। और साथ ही साथ इससे पति और पत्नी दोनों ही लंबी और पूर्ण आयु प्राप्त करते हैं। करवा चौथ के व्रत में विशेष रूप से भगवान शिव, माता पार्वती, गणेश जी, स्वामी कार्तिकेय, एवं चन्द्रमा की पूजा की जाती है। यह व्रत देश के अलग-अलग भागों में वहां की प्रचलित मान्यताओं के अनुरूप रखा जाता है। भले ही इन मान्यताओं में थोड़ा-बहुत अंतर होता है, लेकिन सार सभी का एक ही होता है पति की दीर्घायु। इस संदर्भ में महर्षि वेदव्यास जी द्वारा रचित महाभारत ग्रन्थ की एक कथा बहुत प्रचलित है।
महाभारत के अनुसार पांडु पुत्र अर्जुन एक बार तपस्या करने नीलगिरी पर्वत पर चले गए। दूसरी ओर उनके भाइयों युधिष्ठिर भीम नकुल सहदेव पर कई प्रकार के संकट आ गए। इन संकटों को देखकर पांचाली द्रौपदी भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान कर उनसे कष्ट निवृत्ति के लिए उपाय पूछती हैं। तब भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि यदि वह कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी के दिन करवाचौथ का व्रत करें तो इन सभी संकटों से उन्हें सहज ही मुक्ति मिल जाएगी। भगवान कृष्ण की आज्ञानुसार द्रौपदी ने विधि विधान सहित करवाचौथ का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पांडवों के समस्त कष्ट दूर हो गए। करवा चौथ व्रत का यह प्रभाव है, यह श्रेष्ठ महात्म्य है।
प्रत्येक व्रत में मुहूर्त, व्रत विधि एवं पूजन विधि का बहुत महत्व होता है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में स्पष्ट करते हैं, कि यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।
अर्थात, जो मनुष्य शास्त्रविधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि प्राप्त करता है, न उसे इस लोक में सुख मिलता है, और ना ही परलोक में परमगति ही प्राप्त होती है। यदि सही विधि पूर्वक व्रत, पूजा नहीं की जाती है तो इससे पूर्ण फल प्राप्त नहीं हो पाता है। अतः आवश्यक है कि व्रत एवं पूजन को विधि विधान पूर्वक सही मुहूर्त में ही करना चाहिए। करवा चौथ का व्रत धारण करने वाली सभी पति परायणा स्त्रियों को चाहिए कि व्रत के पूर्व दिवस की सन्ध्या समय ही व्रत से सम्बंधित सभी सामग्रियों को ध्यान पूर्वक एकत्र कर लें। व्रत पूजन सामग्री की सूची आपको डिस्क्रिप्शन में उपलब्ध हो जाएगी। पूजन सामग्री या विधान में लोकाचार का विशेष महत्व होता है, अतः माताओं बहनों से निवेदन है कि इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखें।
रोली, शहद, धूप, फूल, गाय का कच्चा दूध, शक्कर, शुद्ध घी, दही, मिठाई, गंगाजल, चन्दन, मेंहदी, चावल, सिन्दूर, , महावर, कंघा, बिंदी, चुनरी, चूड़ी, बिछुआ, मिट्टी का टोंटीदार करवा व ढक्कन, दीपक, रुई, कपूर, गेहूँ, शक्कर का बूरा, हल्दी, पानी का लोटा, गौरी बनाने के लिए पीली मिट्टी, लकड़ी का आसन, छलनी, आठ पूरियों की अठावरी, हलुआ,एवं दक्षिणा के लिए रुपये।
इस सम्पूर्ण सामग्री को एक दिन पहले ही एकत्रित कर लें। व्रत वाले दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर स्नान आदि नित्य कर्म से निवृत्त हो कर स्वच्छ वस्त्र धारण कर पूर्ण रूप से श्रृंगार कर लें। इसके बाद भगवान सूर्य को जल चढ़ाने के उपरांत व्रत का संकल्प ले कर ही व्रत प्रारम्भ करें। व्रत के दिन निर्जला रहे यानि जलपान ना करें। घर के मंदिर की दीवार पर गेरू से फलक बनाकर पिसे हुए चावलों के घोल से करवा चित्रित करें। इस रीती को करवा धरना कहा जाता है। शाम के समय, मां पार्वती की प्रतिमा की गोद में श्रीगणेश को विराजमान कर उन्हें लकड़ी की एक चौकी पर अष्टदल निर्मित कर , उसके ऊपर पुष्प आसन पर बिठाए। इसके बाद
मां पार्वती का पूजन कर सुहाग सामग्री आदि से श्रृंगार करें। भगवान शिव और मां पार्वती के पास ही कोरे करवे में पानी भरकर पूजा करें।सन्ध्या समय सौभाग्यवती स्त्रियां पूरे दिन का व्रत कर अन्य महिलाओं के साथ मिलकर किसी मंदिर में करवा चौथ की कथा का श्रवण करें। रात्रि में चंद्रमा के दर्शन कर पूजन करें। अर्घ्य देने के बाद ही पति का पूजन करें। एवं पति द्वारा जल ग्रहण करें। अपनी सास जी या माता के समकक्ष किसी सुहागिन स्त्री को करवे में चावल भरकर, वस्त्र आभूषण देकर पति, सास-ससुर सब का आशीर्वाद लेकर व्रत को पूर्ण कर प्रेम से भोजन करें। वैदिक एस्ट्रो केयर आपके मंगलमय जीवन हेतु कामना करता है, नमस्कार
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