भगवान श्रीराम ने लंका पर विजय प्राप्त करने से पहले श्री आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ किया था। जो मनुष्य नित्यप्रति आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करता है वह काम क्रोध लोभ मोह मद मत्सर आदि अपने भीतर के, साथ साथ बाहर के भी सभी शत्रुओं पर विजय पा लेता है। आदित्य हृदय स्तोत्र श्री अगत्स्य ऋषि जी के द्वारा भगवान श्री राम चन्द्र जी को रावण युद्ध के समय रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए दिया गया था। इस दिव्य स्तोत्र में ३१ श्लोक हैं। यह स्तोत्र मूलतः भगवान् श्री सूर्य की स्तुति है एंव उनसे एक प्रकार की विनती है जिससे वो हर स्थिति में सदा रक्षा करें।
यह मूलतः भगवान् श्री राम जी की विजय को सुनिश्चित करने के लिए रचा गया था। रावण की नाभि में अमृत तत्व होने से उसका वध होना लगभग असंभव था। अतः देवताओं द्वारा प्रेरित, अगत्स्य ऋषि ने इस आदित्य हृदय स्तोत्र की दीक्षा भगवान राम को दी। जिसके प्रभाव से भगवान राम, रावण का वध करने में सफल हुए।
अगत्स्य ऋषि के वचन अनुसार, प्रतिदिन तीन बार इसके पाठ से मनवांछित परिणाम प्राप्त होते हैं। इसके नियमित पाठ से शत्रुओं का अंत होता है, दुष्ट शत्रु चाहे जितना भी महाबली क्यों ना हो उसकी पराजय सुनिश्चित होती है। साधक को मानसिक शांति प्राप्त होती है और शारीरिक कष्ट दूर होते हैं। अनेकों प्रयत्नों के बाद भी बार बार मिलने वाली ससफलताओं से मुक्ति मिलती है और सौभाग्य प्राप्त होता है। आदित्य हृदय स्तोत्र से सभी प्रकार के पाप कटते है और शत्रुओं का नाश होता है। यह स्त्रोत सर्व कल्याणकारी, आयु, उर्जा और प्रतिष्ठा बढाने वाला अति मंगलकारी विजय स्तोत्र है। भगवान आदित्य, अर्थात सूर्य नवग्रहों के राजा हैं। अतः इस आदित्य हृदय स्तोत्र के नियमिय पाठ के प्रभाव से व्यक्ति ग्रह जनित बाधाओं से भी सहज ही मुक्त हो जाता है।
आइये हम सब भी मिलकर आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें।
विनियोग
ॐ अस्य आदित्यह्रदय स्तोत्रस्य अगस्त्यऋषि: अनुष्टुप्छन्दः आदित्यह्रदयभूतो
भगवान् ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्माविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः।।
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् ।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम् ॥
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टु मभ्यागतो रणम् ।
उपगम्याब्रवीद् राम मगस्त्यो भगवांस्तदा ॥
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्मं सनातनम् ।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ॥
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम् ।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥
सर्वमंगलमागल्यं सर्वपापप्रणाशनम् ।
चिन्ताशोकप्रशमन मायुर्वर्धनमुत्तमम् ॥
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् ।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥
सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावन: ।
एष देवासुरगणांल्लोकान् पाति गभस्तिभि:॥
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिव: स्कन्द: प्रजापति: ।
महेन्द्रो धनद: कालो यम: सोमो ह्यापां पतिः॥
पितरो वसव: साध्या अश्विनौ मरुतो मनु: ।
वायुर्वहिन: प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकर: ॥
आदित्य: सविता सूर्य: खग: पूषा गभस्तिमान् ।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकर: ॥
हरिदश्व: सहस्त्रार्चि: सप्तसप्तिर्मरीचिमान् ।
तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान् ॥
हिरण्यगर्भ: शिशिरस्तपनोऽहस्करो रवि: ।
अग्निगर्भोऽदिते: पुत्रः शंखः शिशिरनाशन: ॥
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजु:सामपारग: ।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥
आतपी मण्डली मृत्यु: पिगंल: सर्वतापन:।
कविर्विश्वो महातेजा: रक्त:सर्वभवोद् भव: ॥
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावन: ।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ॥
नम: पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नम: ।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नम: ॥
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नम: ।
नमो नम: सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नम: ॥
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नम: ।
नम: पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सुरायादित्यवर्चसे ।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नम: ॥
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने ।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नम: ॥
तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे ।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठित: ।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनां फलमेव च ।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमं प्रभु: ॥
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च ।
कीर्तयन् पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव ॥
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिं ।
एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ॥
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि ।
एवमुक्ता ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥
एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत् तदा ॥
धारयामास सुप्रीतो राघव प्रयतात्मवान् ॥
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् ।
त्रिराचम्य शूचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागतम् ।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ॥
अथ रवि रवद न्निरीक्ष्य रामं, मुदित मना: परमं प्रहृष्य माण:।
निशिचर पति संक्षयं विदित्वा, सुरगण मध्यगतो वचस्त्वरेति ॥
आदित्यहृदय स्तोत्रं सम्पूर्णम्।
भगवान श्री सूर्य नारायण वेदों के अनुसार, जगत की आत्मा हैं और सभी रोगों के नाशक हैं। समस्त सृष्टि पर जीवन श्री सूर्य देवता से ही संभव है। जीवन की प्रत्येक वस्तु, प्राणी सब सूर्य पर ही आश्रित हैं। विज्ञानं के अनुसार भी सूर्य के बिना जीवन संभव नहीं है। वैदिक काल से ही सूर्य भगवान् की पूजा अर्चना की मान्यता है। वेदों की अनेकों ऋचाओं में भगवान् सूर्य की स्तुति की गयी है। इस दिव्य आदित्य हृदय स्तोत्र के प्रभाव से आपका जीवन भी प्रकाशित हो, वैदिक ऐस्ट्रो केयर आपके मंगलमय जीवन हेतु कामना करता है नमस्कार।
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