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श्रीमद्भगवद्गीता साक्षात् भगवान की दिव्य वाणी है । इसकी महिमा अपार है , अपरिमित है । उसका यथार्थ में वर्णन कोई नहीं कर सकता । शेष , महेश , गणेश भी इसकी महिमा को पूरी तरह से नहीं कह सकते ; फिर मनुष्य की तो बात ही क्या है । इतिहास , पुराणों आदि में जगह - जगह इसकी महिमा गायी गयी है ; परंतु जितनी महिमा इसकी अब तक गायी गयी है , उसे एकत्र कर लिया जाय तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि इसकी महिमा इतनी ही है । सच्ची बात तो यह है कि इसकी महिमाका पूर्णतया वर्णन हो ही नहीं सकता । जिस वस्तु का वर्णन हो सकता है वह अपरिमित कहाँ रही , वह तो परिमित हो गयी । गीता एक परम रहस्यमय ग्रन्थ है । इसमें सम्पूर्ण वेदों का सार संग्रह किया गया है । इसकी रचना इतनी सरल और सुन्दर है कि थोड़ा अभ्यास करने से भी मनुष्य इसको सहज ही समझ सकता है , परंतु इसका आशय इतना गूढ़ और गम्भीर है कि आजीवन निरन्तर अभ्यास करते रहने पर भी उसका अन्त नहीं आता । प्रतिदिन नये - नये भाव उत्पन्न होते ही रहते हैं , इससे वह सदा नवीन ही बना रहता है । एकाग्रचित्त होकर श्रद्धा - भक्ति सहित विचार करने से इसके पद - पद में परम रहस्य भरा हुआ प्रत्यक्ष प्रतीत होता है । भगवान के गुण , प्रभाव , स्वरूप , तत्त्व , रहस्य और उपासना का तथा कर्म एवं ज्ञान का वर्णन जिस प्रकार इस गीताशास्त्र में किया गया है वैसा अन्य ग्रन्थों में एक साथ मिलना कठिन है ; भगवद्गीता एक ऐसा अनुपमेय शास्त्र है जिसका एक भी शब्द सदुपदेश से खाली नहीं है । गीता में एक भी शब्द ऐसा नहीं है , जो रोचक कहा जा सके । इसमें जितनी बातें कही गयी हैं , वे सभी अक्षरश : यथार्थ हैं ; सत्यस्वरूप भगवान की वाणी में रोचकता की कल्पना करना उसका निरादर करना है । गीता सर्वशास्त्रमयी है । गीता में सारे शास्त्रों का सार भरा हुआ है । इसे सारे शास्त्रों का खजाना कहें तो भी अत्युक्ति न होगी । गीता का भलीभाँति ज्ञान हो जाने पर सब शास्त्रों का तात्त्विक ज्ञान अपने - आप हो सकता है , उसके लिये अलग परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं रहती । महाभारत में भी कहा है - ' सर्वशास्त्रमयी गीता '। परंतु इतना ही कहना पर्याप्त नहीं है ; क्योंकि सारे शास्त्रों की उत्पत्ति वेदों से हुई , वेदों का प्राकट्य भगवान् ब्रह्माजीके मुख से हुआ और ब्रह्मा जी भगवान के नाभि - कमलसे उत्पन्न हुए । इस प्रकार शास्त्रों और भगवान के बीच में बहुत अधिक व्यवधान पड़ गया है , किंतु गीता तो स्वयं भगवान के मुखारविन्द से निकली है , इसलिये उसे सभी शास्त्रों से बढ़कर कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी । स्वयं भगवान् वेदव्यास ने कहा है गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रसङ्ग्रहैः । या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ॥ गीता का ही भली प्रकारसे श्रवण , कीर्तन , पठन पाठन , मनन और धारण करना चाहिये , अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि वह स्वयं पद्मनाभ - भगवान के साक्षात् मुख - कमल से निकली है। इस श्लोक में ' पद्मनाभ ' शब्द का प्रयोग करके महाभारतकार ने यही बात व्यक्त की है । तात्पर्य यह है कि यह गीता उन्हीं भगवान के मुखकमल से निकली है , जिनके नाभि - कमल से ब्रह्माजी उत्पन्न हुए और ब्रह्माजी के मुख से वेद प्रकट हुए , जो सम्पूर्ण शास्त्रों के मूल हैैं। गीता, गंगा से भी बढ़कर है । शास्त्रों में गंगा स्नान का फल मुक्ति बतलाया गया है । परंतु गंगा में स्नान करने वाला स्वयं मुक्त हो सकता है , वह दूसरों को तारने की सामर्थ्य नहीं रखता । किंतु गीता रूपी गंगा में गोते लगाने वाला स्वयं तो मुक्त होता ही है , वह दूसरोंको भी तारने में समर्थ हो जाता है । गंगा तो भगवान के चरणों से उत्पन्न हुई है और गीता साक्षात् भगवान् नारायण के मुखारविन्द से निकली है । फिर गंगा तो जो उसमें आकर स्नान करता है उसी को मुक्त करती है , परंतु गीता तो घर - घर में जाकर उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखलाती है । इन्हीं सब कारणों से गीता को गंगा से बढ़कर कहते हैं । गीता गायत्री से भी बढ़कर है । गायत्री - जप से मनुष्य की मुक्ति होती है , यह बात ठीक है ; किंतु गायत्री - जप करने वाला भी स्वयं ही मुक्त होता है , पर गीता का अभ्यास करने वाला तो तरन - तारन बन जाता है । जब मुक्ति के दाता स्वयं भगवान् ही उसके हो जाते हैं , तब मुक्ति की तो बात ही क्या है । मुक्ति उसकी चरण धूलिमें निवास करती है । मुक्ति का तो वह सत्र खोल देता है । गीता को हम स्वयं भगवान से भी बढ़कर कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी । भगवान ने स्वयं कहा है गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम् । गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रील्लोकान् पालयाम्यहम् ॥ ( वाराहपुराण ) ' मैं गीताके आश्रयमें रहता हूँ , गीता मेरा श्रेष्ठ घर है । गीता के ज्ञान का सहारा लेकर ही मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ । इसके सिवा , गीता में ही भगवान् मुक्तकण्ठ से यह घोषणा करते हैं कि जो कोई मेरी इस गीतारूप आज्ञा का पालन करेगा वह निःसन्देह मुक्त हो जायगा ; यही नहीं , भगवान् कहते हैं कि जो कोई इसका अध्ययन भी करेगा उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञसे पूजित होऊँगा । जब गीता के अध्ययन मात्र का इतना माहात्म्य है , तब जो मनुष्य इसके उपदेशों के अनुसार अपना जीवन बना लेता है, और इसका रहस्य भक्तों को धारण कराता है और उनमें इसका विस्तार एवं प्रचार करता है उसकी तो बात ही क्या है । उसके लिये तो भगवान् कहते हैं कि वह मुझको अतिशय प्रिय है । वह भगवान को प्राणों से भी बढ़कर प्यारा होता है , यह भी कहा जाय तो कुछ अनुचित न होगा । भगवान् अपने ऐसे भक्तों के अधीन बन जाते हैं । अच्छे पुरुषों में भी यह देखा जाता है कि उनके सिद्धान्तों का पालन करने वाला जितना उन्हें प्रिय होता है , उतने प्यारे उन्हें अपने प्राण भी नहीं होते । गीता भगवान का प्रधान रहस्यमय आदेश है। । ऐसी दशा में उसका पालन करने वाला उन्हें प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हो , इसमें आश्चर्य ही क्या है।
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