शुक्रवार, 4 जून 2021
श्रीमद्भगवद्गीता माहत्म्य भाग 2 तत्वविवेचन
गीता भगवान का श्वास है , हृदय है और भगवान की वाङ्मयी मूर्ति है । जिसके हृदय में , वाणी में , शरीर में तथा समस्त इन्द्रियों एवं उनकी क्रियाओं में गीता रम गयी है वह पुरुष साक्षात् गीता की मूर्ति है । उसके दर्शन , स्पर्श , भाषण एवं चिन्तन से भी दूसरे मनुष्य परम पवित्र बन जाते हैं । फिर उसके आज्ञा पालन एवं अनुकरण करने वालों की तो बात ही क्या है । वास्तव में गीता के समान संसार में यज्ञ , दान , तप , तीर्थ , व्रत , संयम और उपवास आदि कुछ भी नहीं हैं । गीता साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली हुई वाणी है । इसके संकलनकर्ता श्रीव्यासजी हैं । भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने उपदेश का कितना ही अंश तो पद्यों में ही कहा था , जिसे व्यासजीने ज्यों का - त्यों रख दिया । कुछ अंश जो उन्होंने गद्य में कहा था , उसे व्यासजी ने स्वयं श्लोकबद्ध कर लिया , साथ ही अर्जुन , संजय एवं धृतराष्ट्र के वचनों को अपनी भाषा में श्लोकबद्ध कर लिया और इस सात सौ श्लोकों के पूरे ग्रन्थ को अठारह अध्यायों में विभक्त करके महाभारत के अंदर मिला लिया , जो आज हमें इस रूप में उपलब्ध है । गीता ज्ञान का अथाह समुद्र है , इसके अंदर ज्ञान का अनन्त भण्डार भरा पड़ा है । इसका तत्त्व समझाने में बड़े - बड़े दिग्विजयी विद्वान् और तत्त्वालोचक महात्माओं की वाणी भी कुण्ठित हो जाती है ; क्योंकि इसका पूर्ण रहस्य भगवान् श्रीकृष्ण ही जानते हैं । उनके बाद कहीं इसके संकलनकर्ता व्यासजी और श्रोता अर्जुन का नम्बर आता है । ऐसी अगाध रहस्यमयी गीता का आशय और महत्त्व समझना साधारण मनुष्यों के लिये ठीक वैसा ही है , जैसा एक साधारण पक्षी का अनन्त आकाश का पता लगाने के लिये प्रयत्न करना । गीता अनन्तभावों का अथाह समुद्र है । रत्नाकर में गहरा गोता लगाने पर जैसे रत्नों की प्राप्ति होती है , वैसे ही इस गीतासागर में गहरी डुबकी लगाने से जिज्ञासुओं को नित्य - नूतन विलक्षण भाव - रत्न - राशि की उपलब्धि होती है । परंतु आकाश में गरुड़ भी उड़ते हैं तथा साधारण मच्छर भी ! इसीके अनुसार सभी अपने अपने भाव के अनुसार कुछ अनुभव करते ही हैं । अतएव विचार करनेपर प्रतीत होता है कि गीताका मुख्य तात्पर्य अनादिकाल से अज्ञानवश संसार समुद्र में पड़े हुए जीव को परमात्मा की प्राप्ति करवा देने में है और उसके लिये गीता में ऐसे उपाय बतलाये गये हैं , जिनसे मनुष्य अपने सांसारिक कर्तव्यकर्मों का भलीभाँति आचरण करता हुआ ही परमात्माको प्राप्त कर सकता है । व्यवहारमें परमार्थके प्रयोगकी यह अद्भुत कला गीतामें बतलायी गयी है और अधिकारी भेदसे परमात्माकी प्राप्तिके लिये इस प्रकारकी दो निष्ठाओंका प्रतिपादन किया गया है । वे दो निष्ठाएँ हैं - ' ज्ञाननिष्ठा ' यानी सांख्ययोग और ' योगनिष्ठा ' यानी कर्मयोग। यहाँ यह प्रश्न होता है कि ' प्रायः सभी शास्त्रोंमें भगवानको प्राप्त करनेके तीन प्रधान मार्ग बतलाये गये हैं - कर्म , उपासना और ज्ञान । ऐसी दशामें गीताने दो ही निष्ठाएँ कैसे मानी हैं ? क्या गीताको भक्तिका सिद्धान्त मान्य नहीं है ? बहुत - से लोग तो गीताका उपदेश भक्ति - प्रधान ही मानते हैं और यत्र - तत्र भगवान ने भक्तिका विशेष महत्त्व भी स्पष्ट शब्दोंमें कहा है, और भक्तिके द्वारा अपनी प्राप्ति सुलभ बतलायी है । ' इसका उत्तर यह है कि शास्त्रोंमें कर्म और ज्ञानके अतिरिक्त जो " उपासना का प्रकरण आया है , वह उपासना इन्हीं दो निष्ठाओंके अन्तर्गत है । जब अपनेको परमात्मासे अभिन्न मानकर उपासना की जाती है तब वह सांख्यनिष्ठाके अन्तर्गत आ जाती है और जब भेददृष्टिसे की जाती है तब योगनिष्ठाके अन्तर्गत मानी जाती है । सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठामें यही मुख्य अन्तर है । इसी प्रकार तेरहवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें केवल ध्यानके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति बतलायी गयी है ; परंतु वहाँ भी यही बात समझनी चाहिये कि जो ध्यान अभेददृष्टिसे किया जाता है वह सांख्यनिष्ठाके अन्तर्गत है और जो भेददृष्टिसे किया जाता है वह योगनिष्ठाके अन्तर्गत है । गीताने भक्तिको भगवत् - प्राप्तिका प्रधान साधन माना है - लोगोंकी यह मान्यता भी ठीक ही है । गीताने भक्तिको बहुत ऊँचा स्थान दिया है और स्थान - स्थानपर अर्जुनको भक्त बननेकी आज्ञा भी दी है । परंतु गीताने निष्ठाएँ दो ही मानी हैं । इनमें भक्ति योगनिष्ठामें शामिल है ; क्योंकि भक्तिमें द्वैतभाव रहता है , इसलिये ऐसा मानना युक्तिविरुद्ध भी नहीं कहा जा सकता । भक्ति किस प्रकार योगनिष्ठाके साथ मिली हुई है , इसपर आगे चलकर विचार किया जायगा । अस्तु , गीतामें केवल भजन - पूजन अथवा केवल ध्यानसे अपनी प्राप्ति बतलाकर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि योगनिष्ठाके पूरे साधनसे तो उनकी प्राप्ति होती ही है , उसके एक - एक अंगके साधनसे भी उनकी प्राप्ति हो सकती है । यह उनकी कृपा है कि उन्होंने अपनेको जीवोंके लिये इतना सुलभ बना दिया है । इसके अतिरिक्त गीतामें ' ज्ञान ' और ' कर्म ' शब्दोंका प्रयोग जिन - जिन अर्थों में हुआ है , वह भी विशेष रहस्यमय है । गीताके कर्म और कर्मयोग तथा ज्ञान और ज्ञानयोग एक ही चीज नहीं हैं । गीताके अनुसार शास्त्रविहित कर्म ज्ञाननिष्ठा और योगनिष्ठा दोनों ही दृष्टियोंसे हो सकते हैं । ज्ञाननिष्ठामें भी कर्मका विरोध नहीं है और योगनिष्ठामें तो कर्मोंका सम्पादन ही साधन माना गया है, और उनका स्वरूपसे त्याग उलटा बाधक माना गया है। दूसरे अध्यायके सैंतालीसवेंसे लेकर इक्यावनवें श्लोकतक तथा तीसरे अध्यायके उन्नीसवें और चौथे अध्यायके बयालीसवें श्लोकोंमें अर्जुनको योगनिष्ठाकी दृष्टिसे कर्म करनेकी आज्ञा दी गयी है। और तीसरे अध्यायके अट्ठाईसवें तथा पाँचवें अध्यायके आठवें , नवें और तेरहवें श्लोकोंमें सांख्य यानी ज्ञाननिष्ठाकी दृष्टिसे कर्म करनेकी बात कही गयी है । सकाम कर्मके लिये किसी भी निष्ठामें स्थान ही नहीं है , सकाम कर्मियोंको तो भगवान्ने तुच्छबुद्धि बतलाया है। ज्ञानका अर्थ भी गीतामें केवल ज्ञानयोग ही नहीं है ; फलरूप ज्ञान , जो सब प्रकारके साधनोंका फल है - जो ज्ञाननिष्ठा और योगनिष्ठा दोनोंका फल है और जिसे यथार्थ ज्ञान अथवा तत्त्वज्ञान भी कहते हैं , उसे भी ' ज्ञान ' शब्दसे ही कहा है । चौथे अध्यायके चौबीसवें और पचीसवेंके उत्तरार्द्ध में ज्ञानयोगका वर्णन है और इसी अध्यायके छत्तीसवेंसे उनतालीसवें श्लोक तक में फलरूप ज्ञानका वर्णन है । अब , सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठाके क्या स्वरूप हैं , उन दोनोंमें क्या अन्तर है , उनके कितने और कौन - कौनसे अवान्तर भेद हैं तथा दोनों निष्ठाएँ स्वतन्त्र हैं अथवा परस्पर सापेक्ष हैं , इन निष्ठाओंके कौन - कौन अधिकारी हैं , इत्यादि विषयोंपर संक्षेपसे विचार करते हैं। सर्वप्रथम सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा के स्वरूप पर चर्चा करते हैं। सम्पूर्ण पदार्थ मृगतृष्णाके जलकी भाँति अथवा स्वप्नकी सृष्टिके सदृश मायामय होनेसे मायाके कार्यरूप सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरतते हैं इस प्रकार समझकर मन , इन्द्रिय और शरीरके द्वारा होनेवाले समस्त कर्मों में कर्तापनके अभिमानसे रहित होना तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें एकीभावसे नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दघन वासुदेवके सिवा अन्य किसीके भी अस्तित्वका भाव न रहना -यह ' सांख्यनिष्ठा ' है । ' ज्ञानयोग ' अथवा ' कर्मसंन्यास ' भी इसीके नाम हैं । और सब कुछ भगवान का समझकर सिद्धि असिद्धिमें समभाव रखते हुए , आसक्ति और फलकी इच्छाका त्याग करके भगवत् - आज्ञानुसार सब कर्मोका आचरण करना अथवा श्रद्धा भक्तिपूर्वक मन , वाणी और शरीरसे सब प्रकार भगवान की शरण होकर नाम , गुण और प्रभावसहित उनके स्वरूपका निरन्तर चिन्तन करना यह ' योगनिष्ठा ' है । इसीका भगवान ने समत्वयोग , बुद्धियोग , तदर्थकर्म , मदर्थकर्म एवं सात्त्विक त्याग आदि नामोसे उल्लेख किया है । योगनिष्ठामें सामान्यरूपसे अथवा प्रधानरूपसे भक्ति रहती ही है । गीतोक्त योगनिष्ठा भक्तिसे शून्य नहीं है । जहाँ भक्ति अथवा भगवान का स्पष्ट शब्दोंमें उल्लेख नहीं है, वहाँ भी भगवान की आज्ञाका पालन तो है ही - इस दृष्टिसे भक्तिका सम्बन्ध वहाँ भी है ही । ज्ञाननिष्ठाके साधनके लिये भगवान ने अनेक युक्तियाँ बतलायी हैं , उन सबका फल एक सच्चिदानन्दघन परमात्माकी प्राप्ति ही है ।
Vedic Astro Care | वैदिक ज्योतिष शास्त्र
Author & Editor
आचार्य हिमांशु ढौंडियाल
जून 04, 2021
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