शुक्रवार, 4 जून 2021

श्रीमद्भगवद्गीता माहत्म्य भाग 3 तत्वविवेचन

जय श्री कृष्ण।
ज्ञानयोगके अवान्तर भेद कई होते हुए भी उन्हें मुख्य चार विभागोंमें बाँटा जा सकता है। पहला, जो कुछ है , वह ब्रह्म ही है । दूसरा, जो कुछ दृश्यवर्ग प्रतीत होता है , वह मायामय है ; वास्तवमें एक सच्चिदानन्दघन ब्रह्मके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । तीसरा, जो कुछ प्रतीत होता है , वह सब मेरा ही स्वरूप है - मैं ही हूँ । और चौथा, जो कुछ प्रतीत होता है , वह मायामय है , अनित्य है , वास्तव में है ही नहीं ; केवल एक नित्य चेतन आत्मा मैं ही हूँ । इनमें से पहले दो साधन ' तत्त्वमसि ' महावाक्य के ' तत् ' पद की दृष्टि से हैं और पिछले दो साधन ' त्वम् ' पदकी दृष्टिसे हैं । इन्हींका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है। पहला, इस चराचर जगत में जो कुछ प्रतीत होता है , सब ब्रह्म ही है ; कोई भी वस्तु एक सच्चिदानन्दघन परमात्मासे भिन्न नहीं है । कर्म , कर्मके साधन एवं उपकरण तथा स्वयं कर्ता - सब कुछ ब्रह्म ही है । जिस प्रकार समुद्रमें पड़े हुए बर्फके ढेलोंके बाहर और भीतर सब जगह जल - ही - जल व्याप्त है तथा वे ढेले स्वयं भी जलरूप ही हैं , उसी प्रकार समस्त चराचर भूतोंके बाहर - भीतर एकमात्र परमात्मा ही परिपूर्ण हैं तथा उन समस्त भूतोंके रूप में भी वे ही हैं। दूसरा, जो कुछ यह दृश्यवर्ग है , उसे मायामय , क्षणिक एवं नाशवान् समझकर - इन सबका अभाव करके केवल उन सबके अधिष्ठानरूप एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही हैं और कुछ भी नहीं है - ऐसा समझते हुए मन - बुद्धिको भी ब्रह्ममें तद्रूप कर देना एवं परमात्मामें एकीभावसे स्थित होकर उनके अपरोक्षज्ञानद्वारा उनमें एकता प्राप्त कर लेना। तीसरा, चर , अचर सब ब्रह्म है और वह ब्रह्म मैं हूँ ; इसलिये सब मेरा ही स्वरूप है - इस प्रकार विचारकर सम्पूर्ण चराचर प्राणियोंको अपनी आत्मा ही समझना । इस प्रकारका साधन करने वाले की दृष्टि में एक ब्रह्म के सिवा अन्य कुछ भी नहीं रहता , वह फिर अपने उस विज्ञानानन्दघन स्वरूपमें ही आनन्दका अनुभव करता है। चौथा, जो कुछ भी यह मायामय , तीनों गुणोंका कार्यरूप दृश्यवर्ग है - इसको और इसके द्वारा होनेवाली सारी क्रियाओं को अपने से पृथक् नाशवान् एवं अनित्य समझना तथा इन सबका अत्यन्त अभाव करके केवल भावरूप आत्माका ही अनुभव करना । इस प्रकारकी स्थिति प्राप्त करनेके लिये भगवान ने गीता में अनेक युक्तियों से साधकको जगह - जगह यह बात समझायी है कि आत्मा द्रष्टा , साक्षी , चेतन और नित्य है तथा यह देहादि जड दृश्यवर्ग - जो कुछ प्रतीत होता है - अनित्य होनेसे असत् है ; केवल आत्मा ही सत् है । इसी बातको पुष्ट करनेके लिये भगवान्ने दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक नित्य , शुद्ध , बुद्ध , निराकार , निर्विकार , अक्रिय , गुणातीत आत्माके स्वरूपका वर्णन किया है । अभेदरूपसे साधन करनेवाले पुरुषोंको आत्माका स्वरूप ऐसा ही मानकर साधन करनेसे आत्माका साक्षात्कार होता है । जो कुछ चेष्टा हो रही है , गुणोंकी ही गुणों में हो रही है , आत्माका उससे कोई सम्बन्ध नहीं है। न वह कुछ करता है और न करवाता है - ऐसा समझकर वह नित्य - निरन्तर अपने - आपमें ही अत्यन्त आनन्दका अनुभव करता है । उपर्युक्त ज्ञानयोगके चारों साधनोंमें पहले दो साधन तो ब्रह्मकी उपासनासे युक्त हैं एवं तीसरा और चौथा साधन अहंग्रह - उपासनासे युक्त है। यहाँ प्रश्न यह होता है कि ' यह चारों साधन व्युत्थान - अवस्थामें करनेके हैं या ध्यानावस्थामें या वे दोनों ही अवस्थाओंमें किये जा सकते हैं । ' इसका उत्तर यह है कि चौथे साधनके अन्तमें जो प्रक्रिया पाँचवें अध्यायके नवें श्लोकानुसार बतलायी गयी है - यह तो केवल व्यवहारकालमें करनेकी है और दूसरे साधनके आरम्भमें पाँचवें अध्यायके सत्रहवें श्लोकके अनुसार जो साधन बताया गया है , वह केवल ध्यानकालमें ही किया जा सकता है । शेष सब प्रायः दोनों ही अवस्थाओंमें किये जा सकते हैं । जिज्ञासा हो सकती है कि ' पहले साधनमें ' वासुदेवः सर्वमिति ' - जो कुछ दीखता है सब वासुदेवका ही स्वरूप है तथा ' सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ' - जो पुरुष एकीभावमें स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको ही भजता है। इनका उल्लेख क्यों नहीं किया गया । इसका उत्तर यह है कि ये दोनों श्लोक भक्तिके प्रसंगके हैं और दोनोंमें ही परमात्माको प्राप्त हुए पुरुषका वर्णन है ; अत : इनका उल्लेख इस प्रसंगमें नहीं किया गया । परंतु यदि कोई इनको ज्ञानके प्रसंगमें लेकर इनके अनुसार साधन करना चाहे तो कर सकता है । ऐसा करनेमें कोई आपत्ति नहीं है । जिस प्रकार सांख्यनिष्ठाके चार विभाग किये गये हैं , उसी प्रकार योगनिष्ठाके भी तीन मुख्य भेद हैं १. कर्मप्रधान कर्मयोग । २.भक्तिमिश्रित कर्मयोग । ३.भक्तिप्रधान कर्मयोग । ( १ ) समस्त कर्मोमें और सांसारिक पदार्थोमें फल और आसक्तिका सर्वथा त्याग करके अपने वर्णाश्रमानुसार शास्त्रविहित कर्म करते रहना ही कर्मप्रधान कर्मयोग है । इसके उपदेशमें कहीं - कहीं भगवान ने केवल फलके त्यागकी बात कही है,और कहीं
केवल आसक्तिके त्यागकी बात कही है, और कहीं फल और आसक्ति दोनोंके छोड़नेकी बात कही है। जहाँ केवल फलके त्यागकी बात कही गयी है , वहाँ आसक्तिके त्यागकी बात भी साथमें समझ लेनी चाहिये और जहाँ केवल आसक्तिके त्यागकी बात कही है , वहाँ फलके त्यागकी बात भी समझ लेनी चाहिये । कर्मयोगका साधन वास्तवमें तभी पूर्ण होता है जब फल और आसक्ति दोनोंका ही त्याग होता है । दूसरा है भक्तिमिश्रित कर्मयोग - इसमें सारे संसारमें परमेश्वरको व्याप्त समझते हुए अपने - अपने वर्णोचित कर्मके द्वारा भगवान की पूजा करनेकी बात कही गयी है, इसलिये इसको भक्तिमिश्रित कर्मयोग कह सकते हैं । भक्तिप्रधान कर्मयोग इसके दो अवान्तरभेद हैं, पहला ' भगवदर्पण ' कर्म । दूसरा ' भगवदर्थ कर्म । भगवदर्पण कर्म भी दो तरहसे किया जाता है । पूर्ण ' भगवदर्पण ' तो वह है जिसमें समस्त कर्मोंमें ममता , आसक्ति और फलेच्छाको त्यागकर तथा यह सब कुछ भगवान का है , मैं भी भगवान्का हूँ और मेरे द्वारा जो कर्म होते हैं वे भी भगवान्के ही हैं , भगवान् ही मुझसे कठपुतलीकी भाँति सब कुछ करवा रहे हैं - ऐसा समझते हुए भगवान्के आज्ञानुसार भगवान्की ही प्रसन्नताके लिये शास्त्रविहित कर्म किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त पहले किसी दूसरे उद्देश्यसे किये हुए कर्मोंको भगवान्के अर्पण कर देना , कर्म करते - करते बीचमें ही भगवान्के अर्पण कर देना , कर्म समाप्त होनेके साथ - साथ भगवान्के अर्पण कर देना अथवा कर्मोंका फलमात्र भगवान्के अर्पण कर देना - यह भी ' भगवदर्पण ' का ही प्रकार है , यह भगवदर्पणकी प्रारम्भिक सीढ़ी है । ऐसा करते - करते ही उपर्युक्त पूर्ण भगवदर्पण होता है । ' भगवदर्थ ' कर्म भी दो प्रकारके होते हैं जो शास्त्रविहित कर्म भगवत् - प्राप्ति , भगवत्प्रेम अथवा भगवान्की प्रसन्नताके लिये भगवदाज्ञानुसार किये जाते हैं वे तथा जो भगवान्के विग्रह आदिका अर्चन तथा भजन - ध्यान आदि उपासनारूप कर्म जो भगवान्के ही निमित्त किये जाते हैं और स्वरूपसे भी भगवत्सम्बन्धी होते हैं , वे दोनों ही ' भगवदर्थ ' कर्मके अन्तर्गत हैं । इन दोनों प्रकारके कर्मोंका ' मत्कर्म ' और ' मदर्थ कर्म ' नामसे भी गीतामें उल्लेख हुआ है। जिसे अनन्यभक्ति अथवा भक्तियोग कहा गया है। वह भी ' भगवदर्पण ' और ' भगवदर्थ ' इन दोनों कर्मोमें ही सम्मिलित है । इन सबका फल एक भगवत्प्राप्ति ही है । अब प्रश्न यह होता है कि योगनिष्ठा स्वतन्त्ररूपसे भगवत्प्राप्ति करा देती है या ज्ञाननिष्ठाका अंग बनकर । इसका उत्तर यह है कि गीताको दोनों ही बातें मान्य हैं अर्थात् भगवद्गीता योगनिष्ठाको भगवत्प्राप्ति यानी मोक्षका स्वतन्त्र साधन भी मानती है और ज्ञाननिष्ठामें सहायक भी । साधक चाहे तो बिना ज्ञाननिष्ठाकी सहायताके सीधे ही कर्मयोगसे परम सिद्धि प्राप्त कर सकता है अथवा कर्मयोगके द्वारा ज्ञाननिष्ठाको प्राप्त कर फिर ज्ञाननिष्ठाके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है । दोनोंमेंसे वह कौन - सा मार्ग ग्रहण करे , यह उनकी रुचिपर निर्भर है । योगनिष्ठा स्वतन्त्र साधन है , इस बातको भगवान्ने स्पष्ट शब्दों में कहा है। भगवान में चित्त लगाकर भगवानके लिये ही कर्म करनेवालेको भगवान्की कृपासे भगवान् मिल जाते हैं , यह बात भी जगह - जगह भगवान्ने कही है । इसी प्रकार निष्काम कर्म और उपासना - दोनों ही ज्ञाननिष्ठाके अंग भी बन सकते हैं। किंतु ज्ञानयोगमें अभेद उपासना है , इसलिये ज्ञाननिष्ठा भेद उपासनारूप भक्तियोगका यानी योगनिष्ठाका अंग नहीं बन सकती । यह दूसरी बात है कि किसी ज्ञाननिष्ठाके साधककी आगे चलकर रुचि अथवा मत बदल जाय और वह ज्ञाननिष्ठाको छोड़कर योगनिष्ठाको पकड़ ले और उसे फिर योगनिष्ठाके द्वारा ही भगवत्प्राप्ति हो । जय श्री कृष्ण

Vedic Astro Care | वैदिक ज्योतिष शास्त्र

Author & Editor

आचार्य हिमांशु ढौंडियाल

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