यदि कोई पूछे कि कर्मयोगका साधन करके फिर सांख्ययोगके साधनद्वारा जो सच्चिदानन्दघन परमात्माको प्राप्त होते हैं , उनकी प्रणाली कैसी होती है तो इसे जाननेके लिये ' त्याग'के नामसे सात श्रेणियोंमें विभाग करके उसे यों समझना चाहिये ( पहला ) निषिद्ध कर्मोका सर्वथा त्याग। चोरी , व्यभिचार , झूठ , कपट , छल , जबरदस्ती , हिंसा , अभक्ष्यभोजन और प्रमाद आदि शास्त्रनिषिद्ध नीच कर्मोको मन , वाणी और शरीरसे किसी प्रकार भी न करना - यह पहली श्रेणीका त्याग है । ( दूसरा ) काम्य कर्मोका त्याग स्त्री , पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओंकी प्राप्तिके एवं रोग - संकटादिकी निवृत्तिके उद्देश्यसे किये जानेवाले यज्ञ , दान , तप और उपासना आदि सकाम कर्मोंको अपने स्वार्थके लिये न करना - यह दूसरी श्रेणीका त्याग है । यदि कोई लौकिक अथवा शास्त्रीय ऐसा कर्म संयोगवश प्राप्त हो जाय , जो स्वरूपसे तो सकाम हो , परंतु उसके न करनेसे किसीको कष्ट पहुँचता हो या कर्म - उपासनाकी परम्परामें किसी प्रकारकी बाधा आती हो तो स्वार्थका त्याग करके केवल लोकसंग्रहके लिये उसे कर लेना सकाम कर्म नहीं है । ( तीसरा ) तृष्णाका सर्वथा त्याग मान , बड़ाई , प्रतिष्ठा एवं स्त्री , पुत्र और धनादि जो कुछ भी अनित्य पदार्थ प्रारब्धके अनुसार प्राप्त हुए हों , उनके बढ़नेकी इच्छाको भगवत्प्राप्तिमें बाधक समझकर उसका त्याग करना । यह तीसरी श्रेणीका त्याग है । ( चौथा ) स्वार्थके लिये दूसरोंसे सेवा करानेका त्याग अपने सुखके लिये किसीसे भी धनादि पदार्थोंकी अथवा सेवा करानेकी याचना करना एवं बिना याचनाके दिये हुए पदार्थोंको या की हुई सेवाको स्वीकार करना तथा किसी प्रकार भी किसीसे अपना स्वार्थ सिद्ध करनेकी मनमें इच्छा रखना - आदि जो स्वार्थके लिये दूसरोंसे सेवा करानेके भाव हैं , उन सबका त्याग करना - यह चौथी श्रेणीका त्याग है । यदि कोई ऐसा अवसर योग्यतासे प्राप्त हो जाय कि शरीरसम्बन्धी सेवा अथवा भोजनादि पदार्थोंको स्वीकार न करनेसे किसीको कष्ट पहुँचता हो या लोकशिक्षामें किसी प्रकारकी बाधा आती हो तो उस अवसरपर स्वार्थका त्याग करके केवल उनकी प्रीतिके लिये सेवादिका स्वीकार करना दोषयुक्त नहीं है ; क्योंकि स्त्री , पुत्र और नौकर आदिसे की हुई सेवा एवं बन्धु - बान्धव और मित्र आदिद्वारा दिये हुए भोजनादि पदार्थोंको स्वीकार न करनेसे उनको कष्ट होना एवं लोकमर्यादामें बाधा पड़ना सम्भव है । ( पांचवां ) सम्पूर्ण कर्तव्य - कर्मोमें आलस्य और फलकी इच्छाका सर्वथा त्याग ईश्वरकी भक्ति , देवताओंका पूजन , माता - पितादि गुरुजनोंकी सेवा , यज्ञ , दान , तप तथा वर्णाश्रमके अनुसार आजीविका एवं शरीर - सम्बन्धी खान - पान आदि जितने कर्तव्य - कर्म हैं , उन सबमें आलस्यका और सब प्रकारकी कामनाका त्याग करना - यह पाँचवीं श्रेणीका त्याग है । ( छठा ) संसारके सम्पूर्ण पदार्थोंमें और कर्मोमें ममता और आसक्तिका सर्वथा त्याग धन , मकान और वस्त्रादि सम्पूर्ण वस्तुएँ तथा स्त्री , पुत्र और मित्रादि सम्पूर्ण बान्धवजन एवं मान , बड़ाई और प्रतिष्ठा आदि इस लोकके और परलोकके जितने विषय- भोगरूप पदार्थ हैं , उन सबको क्षणभंगुर और नाशवान् होनेके कारण अनित्य समझकर उनमें ममता और आसक्तिका न रहना तथा केवल एक परमात्मामें ही अनन्यभावसे विशुद्ध प्रेम होनेके कारण मन , वाणी और शरीरके द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंमें और शरीरमें भी ममता और आसक्तिका सर्वथा अभाव हो जाना — यह छठी श्रेणीका त्याग है । उक्त छठी श्रेणीके त्यागको प्राप्त हुए पुरुषोंका संसारके सम्पूर्ण पदार्थोंमें वैराग्य होकर केवल एक परम प्रेममय भगवान्में ही अनन्य प्रेम हो जाता है । इसलिये उनको भगवान्के गुण , प्रभाव और रहस्यसे भरी हुई विशुद्ध प्रेमके विषयकी कथाओंका सुनना सुनाना और मनन करना तथा एकान्त देशमें रहकर निरन्तर भगवान्का भजन , ध्यान और शास्त्रोंके मर्मका विचार करना ही प्रिय लगता है । विषयासक्त मनुष्योंमें रहकर हास्य , विलास , प्रमाद , निन्दा , विषय भोग और व्यर्थ बातोंमें अपने अमूल्य समयका एक क्षण भी बिताना अच्छा नहीं लगता एवं उनके द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्य - कर्म भगवान्के स्वरूप और नामका मनन रहते हुए ही बिना आसक्तिके केवल भगवदर्थ होते हैं । यह कर्मयोगका साधन है ; इस साधनके करते करते ही साधक परमात्माकी कृपासे परमात्माके स्वरूपको तत्त्वतः जानकर अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है । किंतु यदि कोई सांख्ययोगके द्वारा परमात्माको प्राप्त करना चाहे तो उसे उपर्युक्त साधन करनेके अनन्तर निम्नलिखित सातवीं श्रेणीकी प्रणालीके अनुसार सांख्य - योगका साधन करना चाहिये । ( सातवां ) संसार , शरीर और सम्पूर्ण कर्मोंमें सूक्ष्म वासना और अहंभावका सर्वथा त्याग संसारके सम्पूर्ण पदार्थ मायाके कार्य होनेसे सर्वथा अनित्य हैं और एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही सर्वत्र समभावसे परिपूर्ण हैं - ऐसा दृढ़ निश्चय होकर शरीरसहित संसारके सम्पूर्ण पदार्थोंमें और सम्पूर्ण कर्मोंमें सूक्ष्म वासनाका सर्वथा अभाव हो जाना अर्थात् अन्त : करणमें उनके चित्रोंका संस्काररूपसे भी न रहना एवं शरीरमें अहंभावका सर्वथा अभाव होकर मन , वाणी और शरीरद्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापनके अभिमानका लेशमात्र भी न रहना तथा इस प्रकार शरीरसहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मों में वासना और अहंभावका अत्यन्त अभाव होकर एक सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें ही एकीभावसे नित्य - निरन्तर दृढ़ स्थिति रहना - यह सातवीं श्रेणीका त्याग है । इस प्रकार साधन करनेसे वह पुरुष तत्काल ही सच्चिदानन्दघन परमात्माको सुखपूर्वक प्राप्त हो जाता है । किंतु जो पुरुष उक्त प्रकारसे कर्मयोगका साधन न करके आरम्भसे ही सांख्ययोगका साधन करता है , वह परमात्माको कठिनतासे प्राप्त होता है । सन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः । यहाँ यह प्रश्न होता है कि कोई साधक एक ही समयमें दोनों निष्ठाओंके अनुसार साधन कर सकता है या नहीं यदि नहीं तो क्यों ? इसका उत्तर यह है कि - सांख्ययोग और कर्मयोग - इन दोनों साधनोंका सम्पादन एक कालमें एक ही पुरुषके द्वारा नहीं किया जा सकता । क्योंकि कर्मयोगी साधनकालमें कर्मको , कर्मफलको , परमात्माको और अपनेको भिन्न - भिन्न मानकर कर्मफल और आसक्तिका त्याग करके ईश्वरार्थ या ईश्वरार्पणबुद्धिसे समस्त कर्म करता है और सांख्ययोगी मायासे उत्पन्न सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अथवा इन्द्रियाँ ही इन्द्रियोंके अर्थों में बरत रही हैं - ऐसा समझकर मन , इन्द्रिय और शरीरके द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित होकर केवल सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें अभिन्नभावसे स्थित रहता है । कर्मयोगी अपनेको कर्मोंका कर्ता मानता है, सांख्ययोगी कर्ता नहीं मानता । कर्मयोगी अपने कर्मोको भगवान्के अर्पण करता है , सांख्ययोगी मन और इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली अहंतारहित क्रियाओंको कर्म ही नहीं मानता। कर्मयोगी परमात्माको अपनेसे पृथक् मानता है, सांख्ययोगी सदा अभेद मानता है। कर्मयोगी प्रकृति और प्रकृतिके पदार्थोकी सत्ता स्वीकार करता है, सांख्ययोगी एक ब्रह्मके सिवा किसीकी भी सत्ता नहीं मानता। कर्मयोगी कर्मफल और कर्मकी सत्ता मानता है , सांख्ययोगी न तो ब्रह्मसे भिन्न कर्म और उनके फलकी सत्ता ही मानता है और न उनसे अपना कोई सम्बन्ध ही समझता है । इस प्रकार दोनोंकी साधन - प्रणाली और मान्यतामें पूर्व और पश्चिमकी भाँति महान् अन्तर है । ऐसी अवस्थामें दोनों निष्ठाओंका साधन एक पुरुष एक कालमें नहीं कर सकता । जैसे किसी मनुष्यको भारतवर्षसे अमेरिकाके न्यूयार्क शहरको जाना है तो वह यदि ठीक रास्ते होकर यहाँसे पूर्व - ही - पूर्व दिशामें जाता रहे तो भी अमेरिका पहुँच जायगा और पश्चिम - ही - पश्चिमकी ओर चलता रहे तो भी अमेरिका पहुँच जायगा ; वैसे ही सांख्ययोग और कर्मयोगकी साधन - प्रणालीमें परस्पर भेद होनेपर भी जो मनुष्य किसी एक साधनमें दृढ़ता पूर्वक लगा रहता है , वह दोनोंके ही एकमात्र परम लक्ष्य परमात्मा तक शीघ्र पहुँच जाता है ।
अब प्रश्न यह रह जाता है कि गीतोक्त सांख्ययोग और कर्मयोगके अधिकारी कौन हैं - क्या सभी वर्गों और सभी आश्रमोंके तथा सभी जातियोंके लोग इनका आचरण कर सकते हैं अथवा किसी खास वर्ण , किसी खास आश्रम तथा किसी खास जातिके ही लोग इनका साधन कर सकते हैं । इसका उत्तर यह है कि यद्यपि गीतामें जिस पद्धतिका निरूपण किया गया है वह सर्वथा भारतीय और ऋषिसेवित है , तथापि गीताकी शिक्षापर विचार करनेपर यह कहा जा सकता है कि गीतामें बताये हुए साधनोंके अनुसार आचरण करनेका अधिकार मनुष्यमात्रको है । जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णका यह उपदेश समस्त मानवजातिके लिये है - किसी खास वर्ण अथवा किसी खास आश्रमके लिये नहीं । यही गीताकी विशेषता है । भगवान्ने अपने उपदेशमें जगह - जगह ' मानवः ' , ' नरः ' , ' देहभृत् ' , ' देही ' आदि शब्दोंका प्रयोग करके इस बातको स्पष्ट कर दिया है । जहाँ सांख्ययोगका मुख्य साधन बतलाया गया है , भगवान्ने ' देही ' शब्दका प्रयोग करके मनुष्यमात्रको उसका अधिकारी बताया है। इसी प्रकार भगवान्ने स्पष्ट शब्दोंमें कहा है कि मनुष्यमात्र अपने - अपने शास्त्रविहित कर्मोद्वारा सर्वव्यापी परमेश्वरकी पूजा करके सिद्धि प्राप्त कर सकता है ( १८।४६ ) । इसी प्रकार भक्तिके लिये भगवान्ने स्त्री , शूद्र तथा पापयोनितकको अधिकारी बतलाया है । और भी जहाँ - जहाँ भगवानने किसी भी साधनका उपदेश दिया है , वहाँ ऐसा नही कहा है कि इस साधनको करनेका किसी खास वर्ण , आश्रम या जातिको ही अधिकार है , दूसरोंको नहीं । ऐसा होनेपर भी यह स्मरण रखना चाहिये कि सभी कर्म सभी मनुष्यों के लिये उपयोगी नहीं होते । इसीलिये भगवान्ने वर्णधर्मपर बहुत जोर दिया है । जिस वर्णके लिये जो कर्म विहित हैं , उसके लिये वे ही कर्म कर्तव्य हैं , दूसरे वर्णके नहीं । इस बातको ध्यानमें रखकर ही कर्म करने चाहिये । ऐसे वर्णधर्मके द्वारा नियत कर्तव्य - कर्मोको अपने - अपने अधिकार और रुचिके अनुकूल मनुष्यमात्र ही कर सकते हैं । वर्णधर्मके अतिरिक्त मानव - मात्रके लिये पालनीय सदाचार , भक्ति आदिका साधन तो सभी कर सकते हैं । कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि सांख्ययोगके साधनका अधिकार संन्यासियोंको ही है , दूसरे आश्रमवालोंको नहीं । यह बात भी युक्तिसंगत नहीं मालूम होती । भगवान्ने सांख्यकी दृष्टिसे भी युद्ध करनेकी आज्ञा दी है। भगवान् यदि केवल संन्यासियोंको ही सांख्ययोगका अधिकारी मानते तो वे अर्जुनको उस दृष्टिसे युद्ध करनेकी आज्ञा कभी न देते । क्योंकि संन्यास - आश्रममें कर्ममात्रका त्याग कहा गया है , युद्धरूपी घोर कर्मकी तो बात ही क्या है । फिर अर्जुन तो संन्यासी थे भी नहीं । उन्हें भगवान्ने ज्ञानियोंके पास जाकर ज्ञान सीखनेतककी बात कही है। इसके अतिरिक्त तीसरे अध्यायके चौथे श्लोकमें भगवान्ने सांख्ययोगकी सिद्धि केवल कर्मोंके स्वरूपतः त्यागसे नहीं बतलायी । यदि भगवान् सांख्ययोगका अधिकारी केवल संन्यासियोंको ही मानते तो सांख्ययोगके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग आवश्यक बतलाते और यह नहीं कहते कि कर्मोका स्वरूपतः त्याग कर देनेमात्रसे ही सांख्ययोगकी सिद्धि नहीं होती । यही नहीं ; जहाँ ज्ञानके साधन बतलाये गये हैं , वहाँ एक साधन स्त्री , पुत्र , धन , मकान आदिमें आसक्ति एवं ममताका त्याग भी बतलाया है ' असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु । ' स्त्री , पुत्र , धन , मकान आदिके साथ स्वरूपतः सम्बन्ध होनेपर ही उनके प्रति आसक्ति एवं ममताके त्यागकी बात कही जा सकती है । संन्यास - आश्रममें इनका स्वरूपसे ही त्याग है ; ऐसी दशामें यदि संन्यासियोंको ही ज्ञानयोगके साधनका अधिकार होता तो उनके लिये इन सबके प्रति आसक्ति और ममताके त्यागका कथन अनावश्यक था । तीसरी बात यह है कि अठारहवें अध्यायमें जहाँ अर्जुनने खास संन्यास और त्यागके सम्बन्धमें प्रश्न किया है , वहाँ भगवान्ने संन्यासके स्थानपर सांख्ययोगका ही वर्णन किया है , संन्यास - आश्रमका कहीं भी उल्लेख नहीं किया । यदि भगवान्को ' संन्यास ' शब्दसे संन्यास - आश्रम अभिप्रेत होता अथवा सांख्ययोगका अधिकारी वे केवल संन्यासियोंको ही मानते तो इस प्रसंगपर अवश्य उसका स्पष्ट शब्दोंमें उल्लेख करते । इन सब बातोंसे यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि सांख्ययोगका अधिकार संन्यासी , गृहस्थ | सभीको समान रूपसे है । हाँ , इतनी बात अवश्य है कि सांख्ययोगका साधन करनेके लिये संन्यास आश्रममें सुविधाएँ अधिक हैं , इस दृष्टिसे उस आश्रमको गृहस्थाश्रमकी अपेक्षा सांख्ययोगके साधनके लिये अवश्य ही अधिक उपयुक्त कह सकते हैं । कर्मयोगके साधनमें कर्मकी प्रधानता है और स्ववर्णोचित विहित कर्म करनेकी विशेषरूपसे आज्ञा है, बल्कि कर्मोका स्वरूपसे त्याग इसमें बाधक बतलाया गया है, इसलिये संन्यास - आश्रममें कर्मप्रधान कर्मयोगका आचरण नहीं बन सकता ; क्योंकि वहाँ द्रव्य और यज्ञ - दानादि कर्मोंका स्वरूपसे त्याग है ; किंतु भगवान्की भक्ति सभी आश्रमों में की जा सकती है , अतः भक्ति - प्रधान कर्मयोग सभी आश्रमोंमें बन सकता है । जय श्री कृष्ण
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