कुछ लोगोंमें यह भ्रम फैला हुआ है कि गीता तो साधु - संन्यासियों के काम की चीज है , गृहस्थों के काम की नहीं ; इसीलिये वे प्रायः बालकों को इस भय से गीता नहीं पढ़ाते कि इसे पढ़कर ये लोग गृहस्थ का त्याग कर देंगे । परंतु उनका ऐसा समझना सर्वथा भूल है , यह बात पूर्व की वीडियो में स्पष्ट हो चुकी है । वे लोग यह नहीं सोचते कि मोह के कारण अपने क्षात्रधर्म से विमुख होकर भिक्षा के अन्न से निर्वाह करने के लिये उद्यत अर्जुन ने जिस परम रहस्यमय गीता के उपदेश से आजीवन गृहस्थ में रहकर अपने कर्तव्य का पालन किया , उस गीताशास्त्र का यह उलटा परिणाम किस प्रकार हो सकता है । यही नहीं , गीताके उपदेष्टा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण जबतक इस धराधामपर अवताररूपमें रहे , तबतक बराबर कर्म ही करते रहे - साधुओंकी रक्षा और दुष्टोंका संहार करके उद्धार किया और धर्मकी स्थापना की । यही नहीं , उन्होंने तो यहाँतक कहा है कि यदि मैं सावधान होकर कर्म न करूँ तो लोग मेरी देखा - देखी कर्मोंका परित्याग कर आलसी बन जायँ और इस प्रकार लोककी मर्यादा छिन्न - भिन्न करनेका दायित्व मुझीपर रहे । इसका यह अर्थ भी नहीं है कि गीता संन्यासियोंके लिये नहीं है । गीता सभी वर्णाश्रम वालों के लिये है । सभी अपने अपने वर्णाश्रमके कर्मोको करते हुए सांख्य या योग - दोनों से किसी एक निष्ठाके द्वारा अधिकारानुसार साधन कर सकते हैं । गीतामें भक्ति , ज्ञान , कर्म - सभी विषयोंका विशदरूपसे विवेचन किया गया है ; सभी मार्गोंसे चलनेवालोंको इसमें यथेष्ट सामग्री मिल सकती है । किंतु अर्जुन भगवान के भक्त थे ; अतः सभी विषयोंका प्रतिपादन करते हुए जहाँ अर्जुनको स्वयं आचरण करनेके लिये आज्ञा दी है , वहाँ भगवान ने उसे प्रायः भक्तिप्रधान कर्मयोगका उपदेश दिया है । कहीं - कहीं केवल कर्म करनेकी भी आज्ञा दी है , परंतु उसके साथ भी भक्तिका अन्य स्थलोंसे अध्याहार कर लेना चाहिये । चौथे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें जो भगवान्ने अर्जुनको ज्ञानियोंके पास जाकर ज्ञान सीखनेकी आज्ञा दी है , वह भी ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रणाली बतलाने तथा अर्जुनको चेतावनी देनेके लिये । वास्तवमें भगवान्का आशय अर्जुनको ज्ञान सीखनेके लिये किसी ज्ञानीके पास भेजनेका नहीं था और न अर्जुनने जाकर उस प्रक्रियासे कहीं ज्ञान सीखा ही । उपक्रम - उपसंहारको देखते हुए भी गीताका पर्यवसान शरणागतिमें ही प्रतीत होता है । वैसे तो गीताका उपदेश ' अशोच्यानन्वशोचस्त्वम् ' इस श्लोकसे प्रारम्भ हुआ है ; किंतु इस उपक्रमका बीज ' कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः ' अर्जुनकी इस उक्तिमें है , जिसमें ' प्रपन्नम् ' पदसे शरणागतिका भाव स्पष्ट है । इसीलिये ' सर्वधर्मान् परित्यज्य ' इस श्लोकसे भगवान्ने शरणागतिमें ही अपने उपदेशका उपसंहार भी किया है । गीताका ऐसा कोई भी अध्याय नहीं है , जिसमें कहीं - न - कहीं भक्तिका प्रसंग न आया हो । उदाहरणके लिये दूसरे अध्यायका इकसठवाँ , तीसरे अध्यायका तीसवाँ , चौथे अध्यायका ग्यारहवाँ , पाँचवें अध्यायका उनतीसवाँ , छठे अध्यायका सैंतालीसवाँ , सातवें अध्यायका चौदहवाँ , आठवें अध्यायका चौदहवाँ , नवें अध्यायका चौंतीसवाँ , दसवें अध्यायका नवाँ , ग्यारहवें अध्यायका चौवनवाँ , बारहवें अध्यायका दूसरा , तेरहवें अध्यायका दसवाँ , चौदहवें अध्यायका छब्बीसवाँ , पंद्रहवें अध्यायका उन्नीसवाँ , सोलहवें अध्यायका पहला जिसमें ' ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ' पदके द्वारा भगवान्के ध्यानकी बात कही गयी है , सत्रहवें अध्यायका सत्ताईसवाँ और अठारहवें अध्यायका छियासठवाँ श्लोक देखना चाहिये । इस प्रकार प्रत्येक अध्यायमें भक्तिका प्रसंग आया है । सातवेंसे लेकर बारहवें अध्यायतकमें तो भक्तियोगका प्रकरण भरा पड़ा है ; इसीलिये इन छहों अध्यायोंको भक्तिप्रधान माना गया है । यहाँ इस विषय को संक्षिप्त करने के लिए उदाहरणार्थ प्रत्येक अध्यायके एक - एक श्लोककी ही संख्या दी गयी है । इसी प्रकार ज्ञानपरक श्लोक भी बहुत - से अध्यायोंमें मिलते हैं । उदाहरणके लिये - दूसरे अध्यायका उनतीसवाँ , तीसरेका अट्ठाईसवाँ , चौथेका चौबीसवाँ , पाँचवेंका तेरहवाँ , छठेका उनतीसवाँ , आठवेंका तेरहवाँ , नवेंका पंद्रहवाँ , बारहवेका तीसरा , तेरहवेका चौंतीसवाँ , चौदहवेंका उन्नीसवाँ और अठारहवेंका उनचासवाँ श्लोक देखना चाहिये । इनमें भी दूसरे , पाँचवें , तेरहवें , चौदहवें तथा अठारहवें अध्यायोंमें ज्ञानपरक श्लोक बहुत अधिक मिलते हैं । गीतामें जिस प्रकार भक्ति और ज्ञानका रहस्य
अच्छी तरहसे खोला गया है , उसी प्रकार कर्मोंका रहस्य भी भलीभाँति खोला गया है । दूसरे अध्यायके उनतालीसवें से तिरपनवें श्लोकतक , तीसरे अध्यायके चौथे श्लोकसे पैंतीसवें श्लोकतक , चौथे अध्यायके तेरहवेंसे बत्तीसवें श्लोकतक , पाँचवें अध्यायके दूसरे श्लोकसे सातवें श्लोकतक तथा छठे अध्यायके पहले श्लोकसे चौथे श्लोकतक कर्मोंका रहस्य पूर्णरूपसे भरा हुआ है । इनमें भी दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें तथा चौथेके सोलहवेंसे अठारहवेतकमें कर्मोंक रहस्यका विशेषरूपसे विवेचन हुआ है । इसके सिवा अन्यान्य अध्यायोंमें भी कर्मोका वर्णन है । इससे यह विदित होता है कि गीतामें केवल भक्तिका ही वर्णन नहीं है , ज्ञान , कर्म और भक्ति तीनोंका ही सम्यक्तया प्रतिपादन हुआ है । पूर्व में यह बात कही गयी है कि परमात्माकी उपासना भेद - दृष्टिसे की जाय अथवा अभेद - दृष्टिसे , दोनोंका फल एक ही है - यह बात कैसे कही गयी , क्योंकि भेदोपासकको तो भगवान् साकाररूपमें देते हैं और इस शरीरको छोड़नेके बाद वह उन्हींके परम धामको जाता है और अभेदोपासक स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है । वह कहीं जाता - आता नहीं । दोनोंका समन्वय कैसे है , अब इसीपर विचार करते हैं । साधनकालमें साधक जिस प्रकारके भाव और श्रद्धासे भावित होकर परमात्माकी उपासना करता है , उसको उसी भावके अनुसार परमात्माकी प्राप्ति होती है । जो अभेदरूपसे अर्थात् अपनेको परमात्मासे अभिन्न मानकर परमात्माकी उपासना करते हैं , उन्हें अभेदरूपसे परमात्माकी प्राप्ति होती है और जो भेदरूपसे उन्हें भजते हैं , उन्हें भेदरूपसे ही वे दर्शन देते हैं । साधकके निश्चयानुसार परमात्मा भिन्न - भिन्न रूपसे सब लोगोंको मिलते हैं । भेदोपासना तथा अभेदोपासना - दोनों ही उपासनाएँ भगवान्की उपासना हैं । क्योंकि परमात्मा सगुण निर्गुण , साकार - निराकार , व्यक्त - अव्यक्त , सभी कुछ हैं । जो पुरुष परमात्माको निर्गुण - निराकार समझते हैं , उनके लिये वे निर्गुण - निराकार हैं । जो उन्हें सगुण निराकार मानते हैं , उनके लिये वे सगुण - निराकार हैं । जो उन्हें सर्वशक्तिमान् , सर्वाधार , सर्वव्यापी , सर्वोत्तम यानी सब प्रकारके उत्तम गुणोंसे युक्त मानते हैं , उनके लिये वे सर्वसद्गुणसम्पन्न हैं । जो पुरुष उन्हें सर्वरूप मानते हैं उनके लिये वे सर्वरूप हैं। जो उन्हें सगुण - साकार मानते हैं , उनके लिये वे सगुण - साकाररूपमें प्रकट होते है। अब शंका यह है कि जब भगवान् सबको अलग - अलग रूपमें मिलते हैं , तब फलमें एकता कहाँ हुई । इसका उत्तर यह है कि प्रथम परमात्मा साधकको उसके भावके अनुसार ही मिलते हैं । उसके बाद जो भगवान्के यथार्थ तत्त्वकी उपलब्धि होती है , वह वाणीके द्वारा अकथनीय है , वह शब्दोंद्वारा बतलायी नहीं जा सकती । भेद अथवा अभेदरूपसे जितने प्रकारसे भी परमात्माकी उपासना होती है , उन सबका अन्तिम फल एक ही होता है । इसी बातको स्पष्ट करनेके लिये भगवान्ने अभेदोपासकोंको अपनी प्राप्ति बतलायी है और भेदोपासकके लिये यह कहा है कि वह ब्रह्मको प्राप्त होता है। शश्वत् शान्तिको प्राप्त होता है, ब्रह्मको जान जाता है , अविनाशी शाश्वत पदको प्राप्त होता है। अभेदोपासना तथा भेदोपासना दोनों प्रकारकी उपासनाका फल एक ही होता है , इसी बातको लक्ष्य करानेके लिये भगवान्ने एक ही बातको उलट - फेरकर कई प्रकारसे कहा है । भेदोपासक तथा अभेदोपासक दोनोंके द्वारा प्रापणीय वस्तु , यथार्थ तत्त्व एक ही है ; उसीको कहीं परमशान्ति और शाश्वत स्थानके नामसे कहा है ,कहीं परम धामके नामसे , कहीं अमृतके नामसे , कहीं ' माम् ' पदसे , कहीं परम गतिके नामसे ,
कहीं संसिद्धिके नामसे, कहीं अव्यय पदके नामसे , कहीं ब्रह्मनिर्वाणके नामसे और कहीं निर्वाणपरमा शान्तिके नामसे व्यक्त किया है । इनके अतिरिक्त और भी कई शब्द गीतामें उस अन्तिम फलको व्यक्त करनेके लिये प्रयुक्त हुए हैं , परंतु वह वस्तु सभी साधनोंका फल है - इसके अतिरिक्त उसके विषयमें कुछ भी कहा नहीं जा सकता । वह वाणीका अविषय है । जिसे वह वस्तु प्राप्त हो गयी है , वही उसे जानता है ; परंतु वह भी उसका वर्णन नहीं कर सकता , उपर्युक्त शब्दों तथा इसी प्रकारके अन्य शब्दोंद्वारा शाखाचन्द्रन्यायसे उसका लक्ष्यमात्र करा सकता है । अत : सब साधनोंका फलरूप जो परम वस्तुतत्त्व है वह एक है , यही बात युक्तिसंगत है। परमात्माका यह तात्त्विक स्वरूप अलौकिक है , परम रहस्यमय है , गुह्यतम है । जिन्हें वह प्राप्त है , वे ही उसे जानते हैं । परंतु यह बात भी उसका लक्ष्य करानेके उद्देश्यसे ही कही जाती है । युक्तिसे विचारकर देखा जाय तो यह कहना भी नहीं बनता ।
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