योऽन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां संजीवयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्ना ।
अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन्
प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ॥
प्रभो ! आप सर्वशक्तिसम्पन्न हैं ; आप ही मेरे अन्तःकरण में प्रवेश कर अपने तेज से मेरी इस सोयी हुई वाणी को सजीव करते हैं तथा हाथ , पैर , कान और त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणों को भी चेतनता देते हैं । मैं आप अन्तर्यामी भगवान को प्रणाम करता हूँ ॥
नमस्कार। वैदिक ऐस्ट्रो केयर में आपका हार्दिक अभिनंदन है। यह दिव्य स्तुति की है 5 वर्ष के बालक ध्रुव जी ने। किन्तु इतना ज्ञान 5 वर्ष के छोटे से बालक ध्रुव को हुआ कैसे ? यह समझना परम् आवश्यक है। महाराज उत्तानपाद की दो रानियाँ थीं, बड़ी रानी का सुनीति और छोटी रानी का नाम सुरुचि था। दोनों ही रानियों से उन्हें एक एक पुत्र भी हुए। बड़ी रानी सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव व छोटी रानी सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम था। सुरुचि, रानी सुनीति से द्वेष रखती थीं, अतः एक दिन उसने बालक ध्रुव का बड़ा अपमान किया। जिससे आहत होकर बालक ध्रुव रोते हुए अपनी माता सुनीति के पास पँहुचे और पूरा वृतांत सुनाया। माँ, छोटी माता सुरुचि ने कहा कि यदि तुझे पिता की गोद में बैठने की इच्छा है तो जाकर परम् पुरूष नारायण की तपस्या कर, जब वे प्रसन्न हों तो उनसे मेरे गर्भ में वास की याचना करना। मेरे गर्भ से जन्म लेने पर ही तुझे पिता की गोद में बैठने का सौभाग्य प्राप्त होगा। सुनीति ने बालक ध्रुव को प्यार से गोद में उठा लिया, और बड़े प्यार से समझाया, ध्रुव! तपस्या करनी ही है तो उस परम पिता की गोद में बैठने के लिए करो। यह पिता पुत्र आदि सांसारिक सम्बन्ध तो नश्वर हैं। अतः भगवान की आराधना से भगवान के नित्य वैकुण्ठ को प्राप्त करो।
यह सुनकर बालक ध्रुव रात्रि के समय घर से वन को निकल गए। भगवान की प्रेरणा से देवर्षि नारद जी द्वारा बालक ध्रुव को ॐ नमो भगवते वासुदेवाय इस द्वादशाक्षर मन्त्र का उपदेश प्राप्त हुआ। छः माह तक इस दिव्य मन्त्र के जाप करने से बालक ध्रुव को भगवान श्री हरि के दर्शन प्राप्त हुए। भगवान को सन्मुख देखकर बालक ध्रुव ने भगवान की स्तुति करनी चाही, किन्तु ज्ञान न होने से कर नहीं पाए। सर्वान्तर्यामी भगवान श्री हरि बालक ध्रुव के मन की बात जान गए, और अपना वेदमय पांचजन्य शंख बालक ध्रुव के गाल से स्पर्श का दिया। शंख का स्पर्श होते ही उन्हें वेदमयी दिव्य वाणी प्राप्त हो गई। ततपश्चात बालक ध्रुव ने 12 श्लोकों के माध्यम से भगवान की दिव्य स्तुति का गान किया है।
ध्रुवकृत यह स्तुति बहुत प्रभावशाली है। यदि कोई बालक बोल नहीं पाता हो, या तुतलाकर बोलता हो, तो इस स्तुति के प्रयोग से बालक को दिव्य वाणी प्राप्त हो जाती है। कोई बालक यदि मंदबुद्धि हो, अथवा विक्षिप्त हो तो भी इस दिव्य स्तुति के सविधि प्रयोग से उत्तम लाभ प्राप्त होता है। इसके प्रयोग विधि को ध्यान पूर्वक समझें। एकादशी, पूर्णिमा, सर्वार्थसिद्धि योग, गुरु पुष्य योग आदि किसी भी शुभ मुहूर्त में, पांच वैदिक ब्राह्मणों का वरण करके, भगवान विष्णु की षोडशोपचार से पूजा करने के उपरांत शंख का भी षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। फिर शंख को गंगाजल या शुद्ध जल से भर देना चाहिए। इस जल में गंगा आदि नदियों, समुद्रों, और तीर्थों सहित वरुण देव का आवाहन इन मंत्रों द्वारा करें।
अवाहयाम्यहम देवं वरुणं भुवनेश्वरम्।
सर्वोषधि रसं दिव्यं अमृतं प्राण धारकं।।
अपांं पति जगन्नाथ रस रूप गदाधरः।
पदमोद्भव इहागच्छ सक्रेण सहित प्रभो।।
सगणस्य सभार्यस्य शिशुमारैक वाहनः।
एहि देव जलाध्यक्ष शंखेस्मिन सन्निधींं कुरु।।
गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति!
नर्मदे! सिंधु! कावेरि! जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरु।।
पुष्कराद्यानि तीर्थानि गङ्गाद्या: सरितस्तथा ।
आयान्तु मम शांत्यर्थम दुरितक्षय कारकः ।।
ब्रह्मांडोदर तीर्थानि करे पृष्ठानि ते रवे।
तेन सत्वेन देवेशः तीर्थं देहि दिवाकरः।।
इसके उपरांत एक सौ आठ माला द्वादशाक्षर मन्त्र, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, का जाप करना चाहिए। फिर शंख में रखे हुए जल से भगवान विष्णु की धातुमयी प्रतिमा, अथवा शालिग्राम भगवान का पुरुषसूक्त मन्त्रों से अभिषेक करना चाहिए। अभिषेक से प्राप्त चरणामृत जल को किसी शुद्ध पात्र में सम्भालकर रखें, तथा बारह दिनों तक प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान करने के उपरांत शुद्धता पूर्वक बालक को, ॐ केशवाय नमः, ॐ माधवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः, तीन बार भगवान के नाम का उच्चारण करते हुए पिलाएं। इसके पश्चात प्रतिदिन ध्रुवकृत भगवद स्तुति का पाठ करें। यदि स्वयं पाठ करने में असमर्थ हों तो आप पाठ सुन भी सकते हैं। मन में यदि श्रद्धा हो तो सुनने से भी पाठ करने के समान ही फल की प्राप्ति, अवश्य ही होगी।
योऽन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां संजीवयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्ना ।
अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन्
प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ॥
एकस्त्वमेव भगवन्निदमात्मशक्त्या
मायाख्ययोरुगुणया महदाद्यशेषम् ।
सृष्ट्वानुविश्य पुरुषस्तदसद्गुणेषु
नानेव दारुषु विभावसुवद्विभासि ॥
त्वद्दत्तया वयुनयेदमचष्ट विश्वं
सुप्तप्रबुद्ध इव नाथ भवत्प्रपन्नः ।
तस्यापवर्ग्य शरणं तव पादमूलं
विस्मर्यते कृतविदा कथमार्तबन्धो ॥
नूनं विमुष्टमतयस्तव मायया ते
ये त्वां भवाप्ययविमोक्षणमन्यहेतोः ।
अर्चन्ति कल्पकतरुं कुणपोपभोग्य
मिच्छन्ति यत्स्पर्शजं निरयेऽपि नृणाम् ॥
या निर्वृतिस्तनुभृतां तव पादपद्म ध्यानाद्भवज्जनकथाश्रवणेन वा स्यात् ।
सा ब्रह्मणि स्वमहिमन्यपि नाथ मा भूत्
किं त्वन्तकासिलुलितात्पततां विमानात् ॥
भक्तिं मुहुः प्रवहतां त्वयि मे प्रसङ्गो
भूयादनन्त महताममलाशयानाम् । येनाञ्जसोल्बणमुरुव्यसनं भवाब्धिंं
नेष्ये भवद्गुणकथामृतपानमत्तः ॥
ते न स्मरन्त्यतितरां प्रियमीश मर्त्यं
ये चान्वदः सुतसुहृद्गृहवित्तदाराः ।
ये त्वब्जनाभ भवदीयपदारविन्द
सौगन्ध्यलुब्धहृदयेषु कृतप्रसङ्गाः ॥
तिर्यङ्नगद्विजसरीसृपदेवदैत्य
मर्त्यादिभिः परिचितं सदसद्विशेषम् ।
रूपं स्थविष्ठमज ते महदाद्यनेकं
नातः परं परम वेद्मि न यत्र वादः ॥
कल्पान्त एतदखिलं जठरेण गृह्णन्
शेते पुमान् स्वदृगनन्तसखस्तदङ्के । यन्नाभिसिन्धुरुहकाञ्चनलोकपद्म
गर्भ द्युमान् भगवते प्रणतोऽस्मि तस्मै ॥
त्वं नित्यमुक्तपरिशुद्धविबुद्ध आत्मा
कूटस्थ आदिपुरुषो भगवांस्त्र्यधीशः । यबुद्ध्यवस्थितिमखण्डितया स्वदृष्ट्या
द्रष्टा स्थितावधिमखो व्यतिरिक्त आस्से ॥
यस्मिन् विरुद्धगतयो ह्यनिशं पतन्ति
विद्यादयो विविधशक्तय आनुपूर्व्यात् ।
तद्ब्रह्म विश्वभवमेकमनन्तमाद्य
मानन्दमात्रमविकारमहं प्रपद्ये ॥
सत्याशिषो हि भगवंस्तव पादपद्म
माशीस्तथानुभजतः पुरुषार्थमूर्तेः ।
अप्येवमर्य भगवान् परिपाति दीनान्
वाश्रेव वत्सकमनुग्रहकातरोऽस्मान् ॥
वैदिक ऐस्ट्रो केयर आपके मंगलमय जीवन हेतु कामना करता है, नमस्कार
https://youtu.be/PlDJKS8-7BQ
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