सोमवार, 21 जून 2021

शिवपूजन रुद्राभिषेक की सम्पूर्ण जानकारी

नमस्कार। वैदिक ऐस्ट्रो केयर में आपका हार्दिक अभिनंदन है। आशुतोष भगवान् सदाशिव की उपासना में रुद्राष्टाध्यायी का विशेष माहात्म्य है । शिवपुराण में सनकादि ऋषियों के प्रश्न करने पर स्वयं शिवजी ने रुद्राष्टाध्यायी के मन्त्रों द्वारा अभिषेक का माहात्म्य बतलाते हुए कहा है कि मन , कर्म तथा वाणी से परम पवित्र तथा सभी प्रकार की आसक्तियों से रहित होकर भगवान् शूलपाणि की प्रसन्नता के लिये रुद्राभिषेक करना चाहिये । इससे वह भगवान् शिव की कृपा से सभी कामनाओं को प्राप्त करता है और अन्त में परम गति को प्राप्त होता है । रुद्राष्टाध्यायी द्वारा रुद्राभिषेक से मनुष्यों की कुलपरम्परा को भी आनन्द की प्राप्ति होती है। शिवपुराण के अनुसार- 
मनसा कर्मणा वाचा शुचिः संगविवर्जितः । 
कुर्याद् रुद्राभिषेकं च प्रीतये शूलपाणिनः ॥ 
सर्वान् कामानवाप्नोति लभते परमां गतिम् । 
नन्दते च कुलं पुंसां श्रीमच्छम्भुप्रसादतः ॥ 
वायुपुराण में आया है कि रुद्राष्टाध्यायी के नमक अर्थात पञ्चम अध्याय और चमक अर्थात अष्टम अध्याय तथा पुरुष सूक्त का प्रतिदिन तीन बार पाठ करने से मनुष्य ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । जो नमक , चमक , होतृमन्त्रों और पुरुषसूक्तका सर्वदा जप करता है , वह उसी प्रकार महादेवजीमें प्रवेश करता है , जिस प्रकार घरका स्वामी अपने घरमें प्रवेश करता है । जो मनुष्य अपने शरीरमें भस्म लगाकर , भस्ममें शयनकर और जितेन्द्रिय होकर निरन्तर रुद्राध्यायका पाठ करता है , वह परा मुक्तिको प्राप्त करता है । जो रोगी और पापी जितेन्द्रिय होकर रुद्राध्यायका पाठ करता है , वह रोग और पापसे मुक्त होकर अद्वितीय सुख प्राप्त करता है। नमकं चमकं चैव पौरुषं सूक्तमेव च । 
नित्यं त्रयं प्रयुञ्जानो ब्रह्मलोके महीयते ॥ 
नमकं चमकं होतॄन् पुरुषसूक्तं जपेत् सदा । 
प्रविशेत् स महादेवं गृहं गृहपतिर्यथा ।
भस्मदिग्धशरीरस्तु भस्मशायी जितेन्द्रियः । 
सततं रुद्रजाप्योऽसौ परां मुक्तिमवाप्स्यति ॥ 
रोगवान् पापवांश्चैव रुद्र जप्त्वा जितेन्द्रियः । 
रोगात् पापाद्विनिर्मुक्तो ह्यतुलं सुखमश्नुते ॥ 
शतरुद्रियपाठ रुद्राष्टाध्यायी का मुख्य भाग है । शतरुद्रियका माहात्म्य रुद्राष्टाध्यायीका ही माहात्म्य है । मुख्यरूपसे रुद्राष्टाध्यायी का पञ्चम अध्याय शतरुद्रिय कहलाता है । इसमें भगवान् रुद्रके शताधिक नामोंद्वारा उन्हें नमस्कार किया गया है । 
' शतं रुद्रा देवता अस्येति शतरुद्रीयमुच्यते ' शतरुद्रियका पाठ अथवा जप समस्त वेदोंके पारायणके तुल्य माना गया है । शतरुद्रियको रुद्राध्याय भी कहा गया है । भगवान् वेदव्यासजीने महाभारत के द्रोण पर्व में अर्जुनको इसकी महिमा बताते हुए कहा है 
धन्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं वेदैश्च सम्मितम् । 
सर्वार्थसाधनं पुण्यं सर्वकिल्बिषनाशनम् । 
सर्वपापप्रशमनं सर्वदुःखभयापहम् । 
पठन् वै शतरुद्रीयं शृण्वंश्च सततोत्थितः ।। 
भक्तो विश्वेश्वरं देवं मानुषेषु च यः सदा । 
वरान् कामान् स लभते प्रसन्ने त्र्यम्बके नरः ॥  
पार्थ ! वेदसम्मित यह शतरुद्रिय परम पवित्र तथा धन , यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला है । इसके पाठसे सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि होती है । यह पवित्र , सम्पूर्ण किल्बिषों का नाशक , सब पापोंका निवारक तथा सब प्रकारके दुःख और भयको दूर करनेवाला है । जो सदा उद्यत रहकर शतरुद्रियको पढ़ता और सुनता है तथा मनुष्योंमें जो कोई भी निरन्तर भगवान् विश्वेश्वरका भक्तिभावसे भजन करता है , वह उन त्रिलोचनके प्रसन्न होनेपर समस्त उत्तम कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । 
कुछ लोग समयाभावके कारण कम समयमें अभिषेक करना चाहते हैं , उनके लिये शास्त्रोंमें शतरुद्रियपाठका भी विधान बतलाया गया है । 
सामान्यतः सम्पूर्ण रुद्राष्टाध्यायी के द्वारा रुद्राभिषेकादि कार्य अधिक प्रचलित एवं प्रशस्त है । शास्त्रों में रुद्रपाठ के मुख्य रूप से पाँच प्रकार बताये गये हैं - १ - रूपक या षडङ्गपाठ , २ - रुद्री या एकादशिनी , ३ - लघुरुद्र , ४ - महारुद्र तथा ५ - अतिरुद्र । 
रुद्राः पञ्चविधाः प्रोक्ता देशिकैरुत्तरोत्तरम् । 
साङ्गस्त्वाद्यो रूपकाख्यः सशीषों रुद्र उच्यते ॥ एकादशगुणैस्तद्वद् रुद्री संज्ञो द्वितीयकः । एकादशभिरेताभिस्तृतीयो लघुरुद्रकः ॥ 
१ - रूपक या षडङ्गपाठ - सम्पूर्ण रुद्राष्टाध्यायीमें १० अध्याय हैं , प्रथम आठ अध्यायोंमें भगवान् रुद्र - शिवकी विशेष महिमा तथा उनकी कृपाशक्तिका वर्णन होनेसे ये आठ अध्याय रुद्राष्टाध्यायीके नामसे प्रसिद्ध हैं । ९वें अध्यायमें ' ऋचं वाचं प्रपद्ये ० ' इत्यादि २४ मन्त्र हैं । यह अध्याय शान्त्यध्यायके नामसे जाना जाता है । अन्तिम १० वें अध्यायमें ' स्वस्ति न इन्द्रो ० ' इत्यादि बारह मन्त्र हैं , जो स्वस्तिप्रार्थनाध्यायके नामसे प्रसिद्ध हैं । दस अध्याय होनेपर भी नाम रुद्राष्टाध्यायी ही है । इस प्रकार पूरे दस अध्यायोंकी एक सामान्य आवृत्ति रूपक या षडङ्गपाठ कहलाता है । रुद्रके छ : अङ्ग कहे गये हैं , इन छ : अङ्गोंका यथाविधि पाठ ही षडङ्गपाठ कहा जाता है । ये छ : अङ्ग इस प्रकार हैं रुद्राष्टाध्यायीके प्रथम अध्यायके ' यज्जाग्रतो ० ' से लेकर छः मन्त्रोंको शिवसङ्कल्पसूक्त कहा गया है । यह सूक्त रुद्रका प्रथम हृदयरूपी अङ्ग है । द्वितीय अध्यायके प्रारम्भसे १६ मन्त्रोंको पुरुषसूक्त कहते हैं , यह पुरुषसूक्त रुद्रका द्वितीय सिररूपी अङ्ग है । इसी द्वितीय अध्यायके अन्तिम छ : मन्त्रोंको उत्तरनारायणसूक्त कहते हैं । यह शिखास्थानीय रुद्रका तीसरा अङ्ग है । तृतीयाध्यायके ' आशुः शिशान : ० ' से लेकर द्वादश मन्त्रोंको अप्रतिरथसूक्त कहा जाता है । यह रुद्रका कवचरूप चतुर्थ अङ्ग है । चतुर्थाध्यायके ' बिभ्राड् बृहत् ० ' मन्त्रसे लेकर पूरा चतुर्थ अध्याय मैत्रसूक्त कहलाता है । यह रुद्रका नेत्ररूप पञ्चम अङ्ग है । ' नमस्ते रुद्र ० ' से प्रारम्भकर पूरा पञ्चम अध्याय शतरुद्रिय कहलाता है । यह रुद्रका अस्त्ररूप षष्ठ अङ्ग है । पञ्चम अध्यायके मन्त्रोंमें ' नमस्ते ' पदके प्राधान्यसे इसे ' नमकाध्याय ' भी कहा जाता है । इन छ : अङ्गों ( पाँच अध्यायों ) -का पाठ करनेके पश्चात् षष्ठाध्याय तथा सप्तम अध्यायका पाठ होता है । ' वयः गुं सोम ० ' आदि अष्ट - मन्त्रात्मक षष्ठाध्याय रुद्रके ' महच्छिर ' के नामसे जाना जाता है । उग्रश्च०'इत्यादि सप्त - मन्त्रात्मक सप्तम अध्याय ' जटा ' नामसे विख्यात है । इन दो अध्यायोंके पाठके अनन्तर आठवें चमकाध्यायका पाठ किया जाता है। इस अध्यायके मन्त्रोंमें ' च ' कार और ' मे ' का बाहुल्य होनेसे यह अध्याय ' चमकाध्याय ' कहलाता है । इस अध्यायके पाठके अनन्तर अन्तमें शान्त्यध्याय तथा स्वस्तिप्रार्थनाध्यायका पाठ किया जाता है । इस प्रकार सम्पूर्ण रुद्राष्टाध्यायीके दस अध्यायोंका पाठ षडङ्ग या रूपकपाठ कहलाता है । षडङ्गपाठमें विशेष बात यह है कि इसमें आठवें अध्यायके साथ पाँचवें अध्यायकी आवृत्ति नहीं होती । दूसरी विधि है रुद्री या एकादशिनी - षडङ्गपाठमें नमकाध्याय अर्थात पंचम अध्याय तथा चमकाध्याय अर्थात अष्टम अध्याय का संयोजन कर रुद्राध्याय की, की गयी ग्यारह आवृत्ति पाठ को रुद्री या एकादशिनी कहते हैं । आठवें अध्यायके साथ पाँचवें अध्याय की जो आवृत्ति होती है , उसके लिये शास्त्रोंका निश्चित विधान है , तदनुसार आठवें अध्यायके क्रमशः चार - चार तथा फिर चार मन्त्रों , तीन - तीन तथा पुनः तीन मन्त्रों ; तदनन्तर दो मन्त्र , फिर एक - एक मन्त्र और पुनः दो मन्त्रोंके अनन्तर पूरे पाँचवें अध्याय ( नमक ) -की एक - एक आवृत्ति होती है । अन्तमें शेष दो मन्त्रोंका पाठ होता है । इस प्रकार आठवें अध्यायके कुल उन्तीस मन्त्रोंको रुद्रोंकी संख्या ग्यारह होनेके कारण ग्यारह अनुवाकोंमें विभक्त किया गया है - ऐसा रुद्रकल्पद्रुममें बताया गया है । इसके बाद नवें और दसवें अध्यायका पाठ होता है । इस प्रकार की गयी एक आवृत्तिको रुद्री या एकादशिनी कहते हैं । तीसरी विधि है लघुरुद्र - एकादशिनी रुद्रीकी ग्यारह आवृत्तियोंके पाठको लघुरुद्रपाठ कहा जाता है । यह लघुरुद्र - अनुष्ठान एक दिनमें ग्यारह ब्राह्मणोंका वरण करके एक साथ सम्पन्न किया जा सकता है तथा एक ब्राह्मणद्वारा अथवा स्वयं ग्यारह दिनोंतक एक एकादशिनी - पाठ नित्य करनेपर भी लघुरुद्रकी सम्पन्नता होती है । चौथी विधि है महारुद्र - लघुरुद्रकी ग्यारह आवृत्ति अर्थात् एकादशिनी रुद्रीका १२१ आवृत्तिपाठ होनेपर महारुद्र - अनुष्ठान होता है । यह पाठ ११ ब्राह्मणोंद्वारा ग्यारह दिनोंतक कराया जा सकता है तथा एक दिन में भी ब्राह्मणोंकी संख्या बढ़ाकर १२१ पाठ होनेपर महारुद्र - अनुष्ठान सम्पन्न हो जाता है । पांचवीं विधि है अतिरुद्र - महारुद्रकी ग्यारह आवृत्ति अर्थात् एकादशिनी रुद्रीका १३३१ आवृत्तिपाठ होनेसे अतिरुद्र - अनुष्ठान सम्पन्न होता है । ये अनुष्ठान पाठात्मक , अभिषेकात्मक तथा हवनात्मक तीनों प्रकारसे किये जा सकते हैं । शास्त्रोंमें इन अनुष्ठानोंकी अत्यधिक महिमाका वर्णन है । शास्त्रोंमें विविध कामनाओंकी पूर्तिके लिये रुद्राभिषेकके निमित्त अनेक द्रव्योंका निर्देश हुआ है । इसे ध्यान पूर्वक समझें - जलसे रुद्राभिषेक करनेपर वृष्टि होती है , व्याधिकी शान्तिके लिये कुशोदकसे अभिषेक करना चाहिये । पशुप्राप्तिके लिये दही , लक्ष्मीकी प्राप्तिके लिये इक्षुरस अर्थात गन्नेका रस , धनप्राप्तिके लिये शहद तथा घृत एवं मोक्षप्राप्तिके लिये तीर्थक जलसे अभिषेक करना चाहिये । पुत्रकी इच्छा करनेवाला दूधद्वारा अभिषेक करनेपर पुत्र प्राप्त करता है । वन्ध्या , काकवन्ध्या अर्थात मात्र एक संतान उत्पन्न करनेवाली अथवा मृतवत्सा स्त्री अर्थात जिस स्त्री की संतान उत्पन्न होते ही मर जाय या जो मृत संतान उत्पन्न करे, गोदुग्धके द्वारा अभिषेक करनेपर शीघ्र ही पुत्र प्राप्त करती है । जलकी धारा भगवान् शिवको अति प्रिय है । अतः ज्वरके कोपको शान्त करनेके लिये जलधारासे अभिषेक करना चाहिये । एक हजार मन्त्रों सहित घृत की धारा से रुद्राभिषेक करने पर वंश का विस्तार होता है , इसमें संशय नहीं है । विशेषरूपसे केवल दूधकी धारासे अभिषेक करना चाहिये , इससे मनोभिलषित कामनाकी पूर्ति होती है । बुद्धि की जड़ता को दूर करने के लिये शक्कर मिले दूध से अभिषेक करना चाहिये , ऐसा करने पर भगवान् शंकर की कृपा से बुद्धि श्रेष्ठ हो जाती है । सरसोंके तेलसे अभिषेक करनेपर शत्रुका विनाश हो जाता है तथा मधुके द्वारा अभिषेक करने पर रोग दूर हो जाता है । पापक्षय की इच्छावाले को शहद से , आरोग्य की इच्छा वाले को घृत से , दीर्घ आयु की इच्छा वाले को गोदुग्ध से , लक्ष्मी की कामना वाले को गन्ने के रस से और पुत्रार्थी को शर्करा मिश्रित जलसे भगवान् सदाशिव का अभिषेक करना चाहिये । इन द्रव्योंसे शिवलिङ्गका अभिषेक करनेपर भगवान् शिव अत्यन्त प्रसन्न होकर भक्तोंकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करते हैं । अत : भक्तों को यजुर्वेद विहित विधान से रुद्रों का अभिषेक करना चाहिये । श्रावण मास में भगवान् रुद्र की प्रसन्नताके लिये निष्काम भाव से रुद्रपाठ का अनन्त फल है । वायुपुराणके अनुसार श्रावण मास में रुद्राभिषेक करवाने वाला व्यक्ति उसी देहसे निश्चितरूपसे रुद्रस्वरूप हो जाता है अर्थात् सायुज्यमुक्तिको प्राप्त होता है। 
मम भावं समुत्सृज्य यस्तु रुद्राञ्जपेत् सदा । 
स तेनैव च देहेन रुद्रः सञ्जायते ध्रुवम् ॥
श्रावण मास में वैदिक विधि द्वारा, अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति एवं भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए वैदिक विधि द्वारा रुद्राभिषेक करवाने हेतु आप हमसे स्क्रीन पर दिए गए नम्बरों के माध्यम से सम्पर्क कर सकते हैं। वैदिक ऐस्ट्रो केयर आपके मंगलमय जीवन हेतु कामना करता है, नमस्कार




Vedic Astro Care | वैदिक ज्योतिष शास्त्र

Author & Editor

आचार्य हिमांशु ढौंडियाल

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