जय श्री कृष्ण। श्रीमद्भगवद्गीता के महत्व को वैसे तो अनेकों ग्रन्थों ने कहा है, किन्तु स्कन्दपुराण के अंतर्गत श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद रूपी गीता के माहात्म्य को विस्तार से कहा गया है। गीता के मूल ग्रन्थ में प्रवेश से पूर्व स्कन्दपुराण में वर्णित गीता माहात्म्य का पाठ करते हैं।
श्रीभगवानुवाच
न बन्धोऽस्ति न मोक्षोऽस्ति ब्रह्मैवास्ति निरामयम् । नैकमस्ति न च द्वित्वं सच्चित्कारं विजृम्भते ॥१ ॥ गीतासारमिदं शास्त्रं सर्वशास्त्रसुनिश्चितम् ।
यत्र स्थितं ब्रह्मज्ञानं वेदशास्त्रसुनिश्चितम् ॥२ ॥
इदं शास्त्रं मया प्रोक्तं गुह्यवेदार्थदर्पणम् ।
यः पठेत्प्रयतो भूत्वा स गच्छेद्विष्णुशाश्वतम् ॥३ ॥ श्रीभगवान् बोले - न बन्धन है , न मोक्ष ; केवल निरामय ब्रह्म ही सर्वत्र विराजमान है । न अद्वैत है , न द्वैत ; केवल सच्चिदानन्द ही सब ओर परिपूर्ण हो रहा है ॥१ ॥ गीताका सारभूत यह शास्त्र सम्पूर्ण शास्त्रोंद्वारा भलीभाँति निश्चित सिद्धान्त है , जिसमें वेद - शास्त्रोंसे अच्छी तरह निश्चित किया हुआ ब्रह्मज्ञान विद्यमान है ॥२ ॥ मेरे द्वारा कहा हुआ यह गीता - शास्त्र वेदके गूढ़ अर्थको दर्पणकी भाँति प्रकाशित करनेवाला है ; जो पवित्र हो मन - इन्द्रियोंको वशमें रखकर इसका पाठ करता है , वह मुझ सनातनदेव भगवान् विष्णुको प्राप्त होता है ॥३ ॥
एतत्पुण्यं पापहरं धन्यं दुःखप्रणाशनम् ।
पठतां शृण्वतां वापि विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम् ॥४ ॥ अष्टादशपुराणानि नवव्याकरणानि च ।
निर्मथ्य चतुरो वेदान् मुनिना भारतं कृतम् ॥५ ॥ भारतोदधिनिर्मथ्य गीतानिर्मथितस्य च ।
सारमुद्धृत्य कृष्णेन अर्जुनस्य मुखे धृतम् ॥६ ॥ मलनिर्मोचनं पुंसां गङ्गास्नानं दिने दिने ।
सकृद्गीताम्भसि स्नानं संसारमलनाशनम् ॥७ ॥ गीतानामसहस्रेण स्तवराजो विनिर्मितः ।
यस्य कुक्षौ च वर्तेत सोऽपि नारायणः स्मृतः ॥८ ॥ भगवान् विष्णुका यह उत्तम माहात्म्य ( गीताशास्त्र ) पढ़ने और सुननेवालोंके पुण्यको बढ़ानेवाला , पापनाशक , धन्यवादके योग्य और समस्त दु : खोंको दूर करनेवाला है ॥ ४॥ मुनिवर व्यासने अठारह पुराण , नौ व्याकरण और चार वेदोंका मन्थन करके महाभारतकी रचना की ॥५ ॥ फिर महाभारतरूपी समुद्रका मन्थन करनेसे प्रकट हुई गीताका भी मन्थन करके उसके अर्थका सार निकालकर उसे भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनके मुखमें डाल दिया ॥६ ॥ गंगामें प्रतिदिन स्नान करनेसे मनुष्योंका मैल दूर होता है , परंतु गीतारूपिणी गंगाके जलमें एक ही बारका स्नान सम्पूर्ण संसारमलको नष्ट करनेवाला है ॥७ ॥ गीताके सहस्र नामोंद्वारा जो स्तवराज निर्मित हुआ है , वह जिसकी कुक्षि ( हृदय ) में वर्तमान हो अर्थात् जो उसका मन - ही - मन स्मरण करता हो , वह भी साक्षात् नारायणका स्वरूप कहा गया है ॥८ ॥
सर्ववेदमयी गीता सर्वधर्ममयो मनुः ।
सर्वतीर्थमयी गङ्गा सर्वदेवमयो हरिः ॥ ९ ॥
पादस्याप्यर्धपादं वा श्लोकं श्लोकार्धमेव वा ।
नित्यं धारयते यस्तु स मोक्षमधिगच्छति ॥१० ॥ कृष्णवृक्षसमुद्भूता गीतामृतहरीतकी ।
मानुषैः किं न खाद्येत कलौ मलविरेचनी ॥११ ॥
गङ्गा गीता तथा भिक्षुः कपिलाश्वत्थसेवनम् ।
वासरं पद्मनाभस्य पावनं किं कलौ युगे ॥१२ ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः ।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ॥१३ ॥
आपदं नरकं घोरं गीताध्यायी न पश्यति ॥१४ ॥
गीता सम्पूर्ण वेदमयी है , मनुस्मृति सर्वधर्ममयी है , गंगा सर्वतीर्थमयी है तथा भगवान् विष्णु सर्वदेवमय हैं॥९॥ जो गीताका पूरा एक श्लोक , आधा श्लोक , एक चरण अथवा आधा चरण भी प्रतिदिन धारण करता है , वह अन्तमें मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥१० ॥ मनुष्य श्रीकृष्णरूपी वृक्षसे प्रकट हुई गीतारूप अमृतमयी हरीतकीका भक्षण क्यों नहीं करते , जो समस्त कलिमलको शरीरसे बाहर निकालनेवाली है ॥११ ॥ कलियुगमें श्रीगंगाजी , गीता , सच्चे संन्यासी , कपिला गौ , अश्वत्थवृक्षका सेवन और भगवान् विष्णुके पर्व - दिन ( एकादशी आदि ) इनसे बढ़कर पवित्र करनेवाली और क्या वस्तु हो सकती है ? ॥१२ ॥ अन्य शास्त्रोंके विस्तारसे क्या प्रयोजन ? केवल गीताका ही सम्यक् प्रकारसे गान ( पठन और मनन ) करना चाहिये , जो कि साक्षात् भगवान् विष्णुके मुखकमलसे प्रकट हुई है ॥१३ ॥ गीताका स्वाध्याय करनेवाले मनुष्यको आपत्ति और घोर नरकको नहीं देखना पड़ता ॥१४ ॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रीगीतासारे भगवद्गीतामाहात्म्यं सम्पूर्णम् ।
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