जय श्री कृष्ण। गीतामें समताकी बात प्रधानरूपसे आयी है । भगवत् - प्राप्तिकी तो समता ही कसौटी है । ज्ञान , कर्म एवं भक्ति - तीनों ही मार्गों में साधनरूपमें भी समताकी आवश्यकता बतायी गयी है और तीनों ही मार्गोंसे परमात्माको प्राप्त हुए पुरुषोंका भी समताको एक असाधारण लक्षण बतलाया गया है । साधन भी उसके बिना अधूरा है , सिद्धि तो अधूरी है ही । जिसमें समता नहीं , वह सिद्ध ही कैसा ? ' समदुःखसुखम् ' पदसे ज्ञानमार्गके साधकोंमें समतावालेको ही अमृतत्व अर्थात् मुक्तिका अधिकारी बतलाया गया है । ' सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ' इस प्रकार कर्मयोगके साधकको समतायुक्त होकर कर्म करनेकी आज्ञा दी गयी है और भक्तिमार्गके साधकके लिये भी इन्हीं गुणोंके सेवनकी बात कही गयी है । इसी प्रकार गुणातीत ( सिद्ध ज्ञानयोगी ) के लक्षणों में भी समताका प्रधानरूपसे समावेश पाया जाता है और सिद्ध कर्मयोगीको सम बतलाया गया है तथा सिद्ध भक्तके लक्षणोंमें भी समताका उल्लेख किया गया है। इस समताका तत्त्व सुगमताके साथ भलीभाँति समझानेके लिये श्रीभगवान्ने गीतामें अनेकों प्रकारसे सम्पूर्ण प्राणी , क्रिया , भाव और पदार्थों में समताकी व्याख्या की है । जैसे मनुष्योंमें समता, सुहन्मित्रार्युदासीन मध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु। साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते'।। सुहृद् , मित्र , वैरी , उदासीन , मध्यस्थ , द्वेष्य और बन्धुगणोंमें , धर्मात्माओं और पापियोंमें भी समान भाव रखनेवाला अत्यन्त श्रेष्ठ है । ' मनुष्यों और पशुओंमें समता, विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ।। ' ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मणमें तथा गौ , हाथी , कुत्ते और चाण्डालमें भी समदर्शी ही होते हैं । ' सम्पूर्ण जीवोंमें समता, आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ ' हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतोंमें सम देखता है और सुख अथवा दुःखको भी सबमें सम देखता है , वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है । ' कहीं - कहींपर भगवान्ने व्यक्ति , क्रिया , पदार्थ और भावकी समताका एक ही साथ वर्णन किया है । जैसे समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥ ' जो, शत्रु और मित्रमें, मान और अपमानमें सम है तथा सरदी - गरमी और सुख - दुःखादि द्वन्द्वोंमें सम है और आसक्तिसे रहित है ( वह भक्त है ) । ' यहाँ शत्रु - मित्र ' व्यक्ति के वाचक हैं , मान अपमान ' परकृत क्रिया ' हैं , शीत - उष्ण ' पदार्थ ' हैं और सुख - दुःख ' भाव ' हैं । समदुःखसुखः स्वस्थ : समलोष्टाश्मकाञ्चनः । तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः । ' जो निरन्तर आत्मभावमें स्थित , दुःख - सुखको समान समझनेवाला , मिट्टी , पत्थर और स्वर्णमें समान भाववाला , ज्ञानी , प्रिय तथा अप्रियको एक - सा माननेवाला और अपनी निन्दा - स्तुतिमें भी समान भाववाला है ( वही गुणातीत है ) । ' इसमें भी दुःख - सुख ' भाव ' हैं ; लोष्ट , अश्म और काञ्चन ' पदार्थ ' हैं ; निन्दा - स्तुति ' परकृत क्रिया ' हैं और प्रिय - अप्रिय ' प्राणी ' , ' भाव ' , ' पदार्थ ' तथा ' क्रिया ' सभीके वाचक हैं । इस प्रकार जो सर्वत्र समदृष्टि है , व्यवहारमें कथनमात्रकी अहंता - ममता रहते हुए भी जो सबमें समबुद्धि रखता है , जिसका समष्टिरूप समस्त संसारमें समभाव है , वह समतायुक्त पुरुष है और वही सच्चा साम्यवादी है । गीताके साम्यवाद और आजकलके कहे जानेवाले साम्यवादमें बड़ा अन्तर है । आजकलका साम्यवाद ईश्वर - विरोधी है और यह गीतोक्त साम्यवाद सर्वत्र ईश्वरको देखता है ; वह धर्मका नाशक है , यह पद पदपर धर्मकी पुष्टि करता है ; वह हिंसामय है , यह अहिंसाका प्रतिपादक है ; वह स्वार्थमूलक है , यह स्वार्थको समीप भी नहीं आने देता ; वह खान - पान स्पर्शादिमें एकता रखकर आन्तरिक भेदभाव रखता है , यह खान - पान - स्पर्शादिमें शास्त्र - मर्यादानुसार यथायोग्य भेद रखकर भी आन्तरिक भेद नहीं रखता और सबमें परमात्माको सम देखनेकी शिक्षा देता है ; उसका लक्ष्य केवल धनोपासना है , इसका लक्ष्य परमात्म - प्राप्ति है ; उसमें अपने दलका अभिमान है और दूसरोंका अनादर है , इसमें सर्वथा अभिमानशून्यता है और सारे जगत्में परमात्माको देखकर सबका सम्मान करना है ; उसमें बाहरी व्यवहारकी प्रधानता है , इसमें अन्त : करणके भावकी प्रधानता है ; उसमें भौतिक सुख मुख्य है , इसमें आध्यात्मिक सुख मुख्य है ; उसमें परधन और परमतसे असहिष्णुता है , इसमें सबका समान आदर है । उसमें राग - द्वेष है , इसमें | राग - द्वेषरहित व्यवहार है । जीवोंकी गति गीतामें जीवोंके गुण एवं कर्मानुसार उनकी उत्तम , मध्यम और कनिष्ठ - तीन गतियाँ बतलायी गयी हैं । कर्मयोग तथा सांख्ययोगकी दृष्टिसे शास्त्रोक्त कर्म एवं उपासना करनेवाले साधकोंकी गति आठवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें बतलायी गयी है । उनमें | जो योगभ्रष्ट हो जाते हैं , उनकी गतिका वर्णन छठे अध्यायके चालीसवेंसे पैंतालीसवेंतकमें किया गया है । वहाँ यह बतलाया गया है कि मरनेके बाद वे स्वर्गादि लोकोंको प्राप्त होते हैं और सुदीर्घकालतक उन दिव्यलोकोंके सुख भोगकर पवित्र आचरणवाले श्रीमान् लोगोंके घरों में जन्म लेते हैं अथवा स्वर्गमें न जाकर सीधे योगियोंके ही कुलमें जन्मते हैं और वहाँ पूर्व | अभ्यासके कारण पुनः योगके साधनमें प्रवृत्त होकर परम गतिको प्राप्त हो जाते हैं । सकामभावसे विहित कर्म एवं उपासना करनेवालोंकी | गतिका वर्णन नवें अध्यायके बीसवें और इक्कीसवें श्लोकमें किया गया है - वहाँ स्वर्गकी कामनासे यज्ञ यागादि वेद - विहित कर्म करनेवालोंको स्वर्गके भोगोंकी प्राप्ति तथा पुण्योंके क्षय हो जानेपर उनके पुनः मर्त्यलोकमें ढकेले जानेकी बात कही गयी है । वे लोग किस मार्गसे तथा किस तरह स्वर्गको जाते हैं , इसकी प्रक्रिया आठवें अध्यायके पचीसवें श्लोककी व्याख्यामें बतलायी गयी है । चौदहवें अध्यायके चौदहवें , पंद्रहवें और अठारहवें श्लोकोंमें सामान्यभावसे सभी पुरुषोंकी गति संक्षेपमें बतलायी गयी है । सत्त्वगुणकी वृद्धि में मरनेवाले उत्तम लोकोंमें जाते हैं , रजोगुणकी वृद्धिमें मरनेवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं तथा तमोगुणकी वृद्धिमें मरनेवाले पशु - पक्षी , कीट - पतंग और वृक्षादि योनियोंमें जन्मते हैं । इस प्रकार सत्त्वगुणमें स्थित पुरुष भी मरकर ऊपरके लोकोंमें जाते हैं , रजोगुणमें स्थित राजस पुरुष मनुष्य - लोकमें ही रहते हैं और तमोगुणमें स्थित तामस पुरुष अधोगतिको अर्थात् नरकोंको और तिर्यक्योनियोंको प्राप्त होते हैं । सोलहवें अध्यायके उन्नीसवेंसे बीसवें श्लोकतक आसुरी प्रकृतिके तामसी मनुष्योंके सम्बन्धमें भगवान्ने कहा है कि उन्हें मैं बार - बार आसुरी योनियोंमें अर्थात् कूकर - शूकर आदि योनियोंमें डालता हूँ और इसके बाद वे घोर नरकोंमें | गिरते हैं । इसी प्रकार और - और स्थलोंमें भी गुण | कर्मके अनुसार गीतामें जीवोंकी गति बतलायी गयी है । मुक्त पुरुषोंकी गतिका वर्णन विस्तारसे सांख्य और योगके फलरूपमें जगह - जगह किया गया है । जीवन्मुक्त पुरुषोंका कहीं जाना - आना नहीं होता । वे तो यहीं परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं । गीतामें सात्त्विक - राजस - तामस पदार्थों , भावों एवं क्रियाओंकी कुछ विशेष पहचान बतलायी गयी है । वह इस प्रकार है ( पहला ) जिस भाव या क्रियाका स्वार्थसे सम्बन्ध न हो और जिसमें आसक्ति एवं ममता न हो तथा जिसका फल भगवत्प्राप्ति हो , उसे सात्त्विक जानना चाहिये । ( दूसरा ) जिस भाव या क्रियामें लोभ , स्वार्थ एवं आसक्तिका सम्बन्ध हो तथा जिसका फल क्षणिक सुखकी प्राप्ति एवं अन्तिम परिणाम दुःख हो , उसे राजस समझना चाहिये । ( तीसरा ) जिस भाव या क्रियामें हिंसा , मोह एवं प्रमाद हो तथा जिसका फल दु : ख एवं अज्ञान हो , उसे तामस समझना चाहिये । इस प्रकार तीनों तरहके भावों एवं क्रियाओंका भेद बतलाकर भगवान्ने सात्त्विक भावों एवं क्रियाओंको ग्रहण करने तथा राजस एवं तामस भावों एवं क्रियाओंका त्याग करनेका आदेश दिया है । ( चौथा ) गीतामें आचरणकी अपेक्षा भावकी प्रधानता यद्यपि उत्तम आचरण एवं अन्तःकरणका उत्तम भाव , दोनोंहीको गीताने कल्याणका साधन माना है , किंतु प्रधानता भावको ही दी है । दूसरे , बारहवें तथा चौदहवें अध्यायोंके अन्तमें क्रमशः स्थितप्रज्ञ , भक्त एवं गुणातीत पुरुषोंके लक्षणोंमें भावकी ही प्रधानता बतलायी गयी है। दूसरे तथा चौदहवें अध्यायोंमें तो अर्जुनने प्रश्न किया है आचरणको प्रधान मानकर , परन्तु भगवान्ने उत्तर दिया है भावकी ही प्रधानता रखकर । गीताके अनुसार सकामभावसे की हुई यज्ञ , दान , तप , सेवा , पूजा आदि ऊँची - से - ऊँची क्रियाकी अपेक्षा निष्कामभावसे की हुई युद्ध , व्यापार , खेती , शिल्प एवं सेवा आदि छोटी - से - छोटी क्रिया भी मुक्तिदायक होनेके कारण श्रेष्ठ है । चौथे अध्यायमें जहाँ कई प्रकारके यज्ञरूप साधन बतलाये गये हैं । उनमें भी भावकी प्रधानतासे ही मुक्ति बतलायी है । गीता और वेद गीता वेदोंको बहुत आदर देती है । भगवान् अपनेको समस्त वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य , वेदान्तका रचनेवाला और वेदोंको जाननेवाला कहकर उनका महत्त्व बहुत बढ़ा देते हैं । संसाररूपी अश्वत्थवृक्षका वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं कि ' मूलसहित उस वृक्षको तत्त्वसे जाननेवाला ही वास्तवमें वेदके तत्त्वको जाननेवाला है ( १५। १ ) । ' इससे भगवान्ने यह बतलाया है कि जगत्के कारणरूप परमात्माके सहित जगत्के वास्तविक स्वरूपको तत्त्वसे जानना ही वेदोंका तात्पर्य है । भगवान्ने कहा है कि ' जो बात वेदोंके द्वारा विभागपूर्वक कही गयी है , उसीको मैं कहता हूँ । ' इस प्रकार अपनी उक्तियोंके समर्थनमें वेदोंको प्रमाण बतलाकर भगवान्ने वेदोंकी महिमाको बहुत अधिक बढ़ा दिया है । भगवान्ने ऋग्वेद , यजुर्वेद तथा सामवेद - वेदत्रयीको अपना ही स्वरूप बतलाकर उसको और भी अधिक आदर दिया है। भगवान् वेदोंको अपनेसे ही प्रकट बतलाते हैं । भगवान्ने यह कहा है कि परमात्माको प्राप्त करनेके अनेकों साधन वेदोंमें बतलाये हैं । इससे मानो भगवान् स्पष्टरूपसे यह कहते हैं कि वेदोंमें केवल भोगप्राप्तिके साधन ही नहीं हैं - जैसा कि कुछ अविवेकीजन समझते हैं - किंतु भगवत्प्राप्तिके भी एक - दो नहीं , अनेकों साधन भरे पड़े हैं । भगवान् परमपदके नामसे अपने स्वरूपका वर्णन करते हुए कहते हैं कि वेदवेत्तालोग उसे अक्षर ( ओंकार ) -के नामसे निर्देश करते हैं । इससे भी भगवान् यही सूचित करते हैं कि वेदोंमें केवल सकाम पुरुषोंद्वारा प्रापणीय इस लोकके एवं स्वर्गके अनित्य भोगोंका ही वर्णन नहीं है , उनमें परमात्माके अविनाशी स्वरूपका भी विशद वर्णन है । उपर्युक्त वर्णनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वेदोंको भगवान्ने बहुत अधिक आदर दिया है । इसपर यह शंका होती है कि ' फिर भगवान्ने कई स्थलोंमें वेदोंकी निन्दा क्यों की है ? उदाहरणतः उन्होंने सकाम पुरुषोंको वेदवादमें रत एवं अविवेकी बतलाया है। तथा वेदोंको तीनों गुणोंके कार्यरूप सांसारिक भोगों एवं उनके साधनोंका प्रतिपादन करनेवाले कहकर अर्जुनको उन भोगोंमें आसक्तिरहित होनेके लिये कहा है और वेदत्रयी - धर्मका आश्रय लेनेवाले सकाम पुरुषोंके सम्बन्धमें भगवान्ने यह कहा है कि वे बार - बार जन्मते - मरते रहते हैं , आवागमनके चक्करसे नहीं छूटते । ऐसी स्थितिमें क्या माना जाय ? ' इस शंकाका उत्तर यह है कि उपर्युक्त वचनोंमें यद्यपि वेदोंकी निन्दा प्रतीत होती है , परंतु वास्तवमें उनमें वेदोंकी निन्दा नहीं है । गीतामें सकामभावकी अपेक्षा निष्काम- भावको बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है और भगवान्की प्राप्तिके लिये उसे आवश्यक बतलाया है । इसीसे उसकी अपेक्षा सकामभावको नीचा और नाशवान् विषय - सुखको देनेवाला बतलानेके लिये ही उसको जगह - जगह तुच्छ सिद्ध किया है , निषिद्ध कर्मोकी भाँति उनकी निन्दा नहीं की है । जहाँ वेदोंके फलको लाँघ जानेकी बात कही गयी है , वहाँ भी सकाम कर्मको लक्ष्य करके ही वैसा कहा गया है । उपर्युक्त विवेचनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भगवान्ने गीतामें वेदोंकी निन्दा कहीं भी नहीं की है , बल्कि जगह - जगह वेदोंकी प्रशंसा ही की है ।
गीता और सांख्यदर्शन तथा योगदर्शन
कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि गीतामें जहाँ - जहाँ ' सांख्य ' शब्दका प्रयोग हुआ है , वहाँ वह महर्षि कपिलके द्वारा प्रवर्तित सांख्यदर्शनका वाचक है ; परंतु यह बात युक्तिसंगत नहीं मालूम होती । गीताके तेरहवें अध्यायमें लगातार तीन श्लोकों में तथा अन्यत्र भी ' प्रकृति ' और ' पुरुष ' , दोनों शब्दोंका साथ - साथ प्रयोग हुआ है और प्रकृति - पुरुष सांख्यदर्शनके खास शब्द हैं ; इससे लोगोंने अनुमान कर लिया है कि गीताको कापिल सांख्यका सिद्धान्त मान्य है । इसी प्रकार ' योग ' शब्दको भी कुछ लोग पातंजलयोगका वाचक मानते हैं । पाँचवें अध्यायके प्रारम्भमें तथा अन्यत्र भी कई जगह ' सांख्य ' और ' योग ' शब्दोंका एक ही जगह प्रयोग हुआ है ; इससे भी लोगोंने यह मान लिया कि ' सांख्य ' और ' योग ' शब्द क्रमशः कापिल सांख्य तथा पातंजलयोगके वाचक हैं ; परंतु यह बात युक्तिसंगत नहीं मालूम होती , न तो गीताका ' सांख्य ' कापिल सांख्य ही है और न गीताका ' योग ' पातंजलयोग ही है ।इन बातोंसे यह स्पष्ट हो जाता है । ( पहला ) गीतामें ईश्वरको जिस रूपमें माना है , उस रूपमें सांख्यदर्शन नहीं मानता । ( दूसरा ) यद्यपि ' प्रकृति ' शब्दका गीतामें कई जगह प्रयोग आया है , परंतु गीताकी प्रकृति ' और सांख्यकी ' प्रकृति ' में महान् अन्तर है । कापिल सांख्यकी प्रकृति तीनों गुणोंकी साम्यावस्था है ; किंतु गीताकी प्रकृति तीनों गुणोंकी कारण है , गुण उसके कार्य हैं । सांख्यने प्रकृतिको अनादि एवं नित्य माना है ; गीताने भी प्रकृतिको अनादि तो माना है , परन्तु नित्य नहीं । ( तीसरा ) गीताके ' पुरुष ' और सांख्यके ' पुरुष ' में भी महान् अन्तर है । कापिल सांख्यके मतमें पुरुष नाना हैं ; किंतु गीताका सांख्य पुरुषको एक ही मानता है । ( चौथा ) गीताकी ' मुक्ति ' और सांख्यकी ' मुक्ति ' में भी महान् अन्तर है । सांख्यके मतमें दुःखोंकी आत्यन्तिक निवृत्ति ही मुक्तिका स्वरूप है ; गीताकी ' मुक्ति ' में दुःखोंकी आत्यन्तिक निवृत्ति तो है ही , किंतु साथ ही - साथ परमानन्दस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति भी है । ( पांचवां ) सिद्धान्तभेदके सिवा पातंजलयोगमें योगका अर्थ है - ' चित्तवृत्तिका निरोध । ' परंतु गीतामें प्रकरणानुसार ' योग ' शब्दका विभिन्न अर्थोंमें प्रयोग हुआ है । इस प्रकार गीता और सांख्यदर्शन तथा योगदर्शनके सिद्धान्तोंमें बड़ा अन्तर है ।
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