भगवान ने अर्जुनसे पूछा - ' अर्जुन । जब मैं युद्ध ही नहीं करूंगा , तब तुमने क्या समझकर नारायणी सेनाको छोड़ दिया और मुझको स्वीकार किया ? ' अर्जुनने कहा - ' भगवन् ! आप अकेले ही सबका नाश करने में समर्थ हैं , तब मैं सेना लेकर क्या करता ? इसके सिवा बहुत दिनोंसे मेरी इच्छा थी कि आप मेरे सारथि बने , अब इस महायुद्ध में मेरी उस इच्छाको आप अवश्य पूर्ण कीजिये । ' भक्तवत्सल भगवान ने अर्जुन की इच्छानुसार उनके रथके घोड़े हाँकनेका काम स्वीकार किया । इसी प्रसंगके अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनके सारथि बने और युद्धारम्भके समय कुरुक्षेत्रमें उन्हें गीताका दिव्य उपदेश सुनाया । अस्तु । दुर्योधन और अर्जुनके द्वारकासे वापस लौट आनेपर जिस समय दोनों ओरकी सेना एकत्र हो चुकी थी , उस समय भगवान् श्रीकृष्णाने स्वयं हस्तिनापुर जाकर हर तरहसे दुर्योधनको समझानेकी चेष्टा की ; परंतु उन्होंने स्पष्ट कह दिया -- ' मेरे जीते - जी पाण्डव कदापि राज्य नहीं पा सकते , यहाँतक कि
सूच्याग्रं नैव दास्यामि बिना युद्धेन केशव। सूईकी नोकभर भी जमीन में पाण्डवोंको नहीं दूंगा । ' तब अपना न्यायोचित स्वत्व प्राप्त करनेके लिये माता कुन्तीको आज्ञा और भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेरणासे पाण्डवोंने धर्म समझकर युद्धके लिये निश्चय कर लिया । जब दोनों ओरसे युद्धकी पूरी तैयारी हो गयी , तब भगवान् वेदव्यासजीने धृतराष्ट्र के समीप आकर उनसे कहा - ' यदि तुम घोर संग्राम देखना चाहो तो मैं तुम्हें दिव्य नेत्र प्रदान कर सकता हूँ । ' इसपर धृतराष्ट्रने कहा ' ब्रह्मर्षि श्रेष्ठ । मैं कुलके इस हत्याकाण्डको अपनी आखों देखना तो नहीं चाहता , परंतु युद्धका सारा वृत्तान्त भलीभाँति सुनना चाहता हूँ । ' तब महर्षि वेदव्यासजीने संजयको दिव्यदृष्टि प्रदान करके धृतराष्ट्रसे कहा - ' ये संजय तुम्हें युद्धका सब वृत्तान्त सुनावेंगे । युद्ध की समस्त घटनावलियोंको ये प्रत्यक्ष देख , सुन और जान सकेंगे । सामने या पीछेसे , दिनमें या रातमें , गुप्त या प्रकट , क्रियारूपमें परिणत या केवल मनमें आयी हुई , ऐसी कोई बात न होगी जो इनसे तनिक भी छिपी रह सकेगी । ये सब बातोंको ज्यों - की - त्यों जान लेंगे । इनके शरीरसे न तो कोई शस्त्र छू जायगा और न इन्हें जरा भी थकावट ही होगी । ' ' यह होनी ' है , अवश्य होगी , इस सर्वनाशको कोई भी रोक नहीं सकेगा । अन्त में धर्मकी जय होगी । ' महर्षि वेदव्यासजीके चले जानेके बाद धृतराष्ट्रके पूछने पर संजय उन्हें पृथ्वीके विभिन्न द्वीपोंका वृत्तान्त सुनाते रहे , उसीमें उन्होंने भारतवर्षका भी वर्णन किया । तदनन्तर जब कौरव पाण्डवोंका युद्ध आरम्भ हो गया और लगातार दस दिनोंतक युद्ध होनेपर पितामह भीष्म रणभूमिमें रथसे गिरा दिये गये , तब संजयने धृतराष्ट्र के पास आकर उन्हें अकस्मात् भीष्मके मारे जानेका समाचार सुनाया । उसे सुनकर धृतराष्ट्रको बड़ा ही दुःख हुआ और युद्ध की सारी बातें विस्तारपूर्वक सुनानेके लिये उन्होंने संजयसे कहा , तब संजयने दोनों ओरकी सेनाओंकी व्यूह - रचना आदिका विस्तृत वर्णन किया । इसके बाद धृतराष्ट्रने विशेष विस्तारके साथ आरम्भसे अबतककी पूरी घटनाएँ जाननेके लिये संजयसे प्रश्न किया । यहाँसे श्रीमद्भगवद्गीताका पहला अध्याय आरम्भ होता है । महाभारत , भीष्मपर्वमें यह पचीसवाँ अध्याय है । इसके आरम्भमें धृतराष्ट्र संजयसे प्रश्न करते हैं।
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥१ ॥
धृतराष्ट्र बोले - हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्रमें एकत्रित , युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया ? ॥१ ॥ इसके उपरांत संजय ने क्या उत्तर दिया, और युद्ध से विमुख हुए अर्जुन ने भगवान के द्वारा दिए गए किन उपदेशों को सुनकर पुनः अपना गांडीव धारण कर विजय श्री प्राप्त की, यह विस्तार से जानने के लिए आप आध्यात्म संस्कृति यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब कर इस परिवार के सदस्य बनें। और हाँ, नए वीडियो के नोटिफिकेशन की जानकारी के लिए वैल आइकन दबाकर ऑल सेलेक्ट करना न भूलें। जय श्री कृष्ण
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