रविवार, 11 जुलाई 2021

श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय एवं तृतीय श्लोक

जय श्री कृष्ण। श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम श्लोक में धृतराष्ट्र द्वारा संजय से पूछने पर की धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया। इसी प्रश्न के उत्तर में द्वितीय श्लोक में संजय ने इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया।
संजय उवाच 
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा । आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥२ ॥ 

संजय बोले - उस समय राजा दुर्योधनने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवोंकी सेनाको देखकर और द्रोणाचार्यके पास जाकर यह वचन कहा ॥२ ॥ यह द्वितीय श्लोक का शब्दार्थ है। यहां प्रश्न प्रकट होता है कि संजय द्वारा दुर्योधनको ' राजा ' कहनेका क्या अभिप्राय है ? इसका उत्तर यह है कि - संजयके द्वारा दुर्योधनको ' राजा ' कहे जानेमें कई भाव हो सकते हैं, जैसे, दुर्योधन बड़े वीर और राजनीतिज्ञ थे तथा शासनका समस्त कार्य दुर्योधन ही करते थे । या फिर संत सभीको आदर दिया करते हैं और संजय संत - स्वभावके थे । या यह भाव हो सकता है कि पुत्रके प्रति आदरसूचक विशेषणका प्रयोग सुनकर धृतराष्ट्रको प्रसन्नता होगी। अस्तु। व्यूह रचनायुक्त पाण्डव - सेनाको देखकर दुर्योधन आचार्य द्रोणके पास गये , इसका क्या भाव है ?इसका भाव यह है कि पाण्डव - सेनाकी व्यूहरचना इतने विचित्र ढंगसे की गयी थी कि उसको देखकर दुर्योधन चकित हो गये और अधीर होकर स्वयं उसकी सूचना देनेके लिये द्रोणाचार्यके पास दौड़े गये । उन्होंने सोचा कि पाण्डव - सेनाकी व्यूहरचना देख - सुनकर धनुर्वेदके महान् आचार्य गुरु द्रोण उनकी अपेक्षा अपनी सेनाकी और भी विचित्र रूपसे व्यूहरचना करनेके लिये पितामहको परामर्श देंगे । तो अब प्रश्न यह उठता है कि - दुर्योधन राजा होकर स्वयं सेनापतिके पास क्यों गये ? उन्हींको अपने पास बुलाकर सब बातें क्यों नहीं समझा दी ? तो इसका उत्तर है कि - यद्यपि पितामह भीष्म प्रधान सेनापति थे , परंतु कौरव - सेनामें गुरु द्रोणाचार्यका स्थान भी बहुत उच्च और बड़े ही उत्तरदायित्वका था । सेनामें जिन प्रमुख योद्धाओंकी जहाँ नियुक्ति होती है , यदि वे वहाँसे हट जाते हैं तो सैनिक व्यवस्थामें बड़ी गड़बड़ी मच जाती है । इसलिये द्रोणाचार्यको अपने स्थानसे न हटाकर दुर्योधनने ही उनके पास जाना उचित समझा । इसके अतिरिक्त द्रोणाचार्य वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध होनेके साथ ही गुरु होनेके कारण आदरके पात्र थे तथा दुर्योधनको उनसे अपना स्वार्थ सिद्ध करना था , इसलिये भी उन्हें सम्मान देकर उनका प्रियपात्र बनना उन्हें अभीष्ट था । पारमार्थिक दृष्टिसे तो सबसे नम्रतापूर्ण सम्मानयुक्त व्यवहार करना कर्तव्य है ही , राजनीतिमें भी बुद्धिमान् पुरुष अपना काम निकालनेके लिये दूसरोंका आदर किया करते हैं । इन सभी दृष्टियोंसे उनका वहाँ जाना उचित ही था । द्रोणाचार्यके पास जाकर दुर्योधनने जो कुछ कहा , उसे श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय श्लोक के माध्यम से समझिए। 
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् । 
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥३ ॥ 
अर्थात, दुर्योधन ने कहा हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्नद्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रोंकी इस बड़ी भारी सेनाको देखिये ॥३ ॥ यह तृतीय श्लोक का शब्दार्थ है। यहाँ प्रश्न होता है कि - धृष्टद्युम्न द्रुपदका पुत्र है , आपका शिष्य है और बुद्धिमान् है - दुर्योधनने ऐसा किस अभिप्रायसे कहा ? तो इसका उत्तर है कि - दुर्योधन बड़े चतुर कूटनीतिज्ञ थे । धृष्टद्युम्नके प्रति प्रतिहिंसा तथा पाण्डवोंके प्रति द्रोणाचार्यकी बुरी भावना उत्पन्न करके उन्हें विशेष उत्तेजित करनेके लिये दुर्योधनने | धृष्टद्युम्नको द्रुपदपुत्र और ' आपका बुद्धिमान् शिष्य ' कहा । इन शब्दोंके द्वारा वह उन्हें इस प्रकार समझा रहे हैं कि देखिये , द्रुपदने आपके साथ पहले बुरा बर्ताव किया था और फिर उसने आपका वध करनेके उद्देश्यसे ही यज्ञ करके धृष्टद्युम्नको पुत्ररूपसे प्राप्त किया था ।
धृष्टद्युम्न इतना कूटनीतिज्ञ है और आप इतने सरल हैं कि आपको मारनेके लिये पैदा होकर भी उसने आपके ही द्वारा धनुर्वेदकी शिक्षा प्राप्त कर ली । फिर इस समय भी उसकी बुद्धिमानी देखिये कि उसने आपलोगोंको छकानेके लिये कैसी सुन्दर व्यूहरचना की है । ऐसे पुरुषको पाण्डवोंने अपना प्रधान सेनापति बनाया है । अब आप ही विचारिये कि आपका क्या कर्तव्य है। अस्तु, यहाँ यह भी प्रश्न होता है कि - कौरव - सेना ग्यारह अक्षौहिणी थी और पाण्डव - सेना केवल सात ही अक्षौहिणी थी ; फिर दुर्योधनने उसको बड़ी भारी सेना क्यों कहा और उसे देखनेके लिये आचार्यसे क्यों अनुरोध किया ? तो इसका उत्तर है कि - संख्या कम होनेपर भी वज्रव्यूहके कारण पाण्डव - सेना बहुत बड़ी मालूम होती थी ; | दूसरी यह बात भी है कि संख्यामें अपेक्षाकृत स्वल्प होनेपर भी जिसमें पूर्ण सुव्यवस्था होती है ,वह सेना विशेष शक्तिशालिनी समझी जाती है । इसीलिये दुर्योधन कह रहे हैं कि आप इस व्यूहाकार खड़ी की हुई सुव्यवस्थित महती सेनाको देखिये और ऐसा उपाय सोचिये जिससे हमलोग विजयी हों । जय श्री कृष्ण


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Author & Editor

आचार्य हिमांशु ढौंडियाल

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