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शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

॥ अथ वृहद् गोदान विधिः ॥

Vedic Astro Care | वैदिक ज्योतिष शास्त्र
॥ अथ वृहद् गोदान विधिः ॥
तत्र दाता सुस्नातः गोदान सामग्री स्वाग्रतः सम्पाद्य सुलिप्तायां भूमौ सपत्नीकः स्वासने उपविश्य यथोक्त लक्षणां सवत्सां गां प्राङ्‌मुकीमव स्थाप्य उदङ्मुखं ब्राह्मणं संस्थाप्य, गणेशं नत्वा स्वाग्रतः गन्धादिनां अर्ध स्थाप्य् कुश तिलजलयवान्यादाय सकल्पं कुर्यात्। 

संकल्प
ॐ विष्णुः ३, अद्येहं अमुकगोत्रोऽमुकराशिर मुकशर्मा सपत्नीकोऽहं श्रुति स्मृति पुराणोक्त फल वाप्तये सकलमनोरथ सिद्धये च कृतैतद श्री यज्ञ पुरुष प्रीतये गोदानं करिष्ये ।। 
तत्प्रतिग्रहार्थं ब्राह्मणस्य पूजनपूर्वकं वरणञ्च करिष्ये ।
 
उदङमुखं ब्राह्मणं अर्घादिभिः सम्पूज्य वरण सामग्री करे कृत्वा, एभि गन्धाक्षत पुष्पमाला यज्ञोपवीत वस्त्र फलादिभिः गोदान प्रतिग्रहार्थं अमुकगोत्रामुक वेदाध्यायिनः अमुकशर्मणा ब्राह्मणं त्वामहं वृणे, वृतोस्मीति ब्राह्मणो वदेत्।

आवाहनम् - 
आवाहयाम्यहं देवीं गां त्वां त्रैलोक्य मातरम्। 
यस्यास्मरण मात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१॥ 
त्वं देवी त्वं जगन्माता त्वमेवासि वसुन्ना। 
गायत्री त्वं च सावित्री ग‌ङ्गा त्वं च सरस्वती ॥ 
तृणानि भक्ष्यसे नित्यममृतं स्त्रवसे प्रभो। 
भूतप्रेत पिशाचांश्च पितृदेवतामानुषान् ।। 
सर्वास्तारयते देवी नरकात्पाप स‌ङ्कटात्।। 
इत्यावाह्य पूजयेत् ॥ 
सवत्साये गवे नमः, पाद्यं स्नानं च समर्पयामि। 
पुष्पं गृहीत्वा ॥ 
नमोविश्वमूर्तिभ्यो विश्वमातृभ्यः एव च। 
लोकाधिवासिनीभ्यश्च रोहिणीभ्यो नमो नमः ॥ 
गोः अग्रपादाभ्यां नमः ।। 
गोः पश्चात्पादाभ्यां नमः ॥ 
देहस्था या च रुद्राणां शंकरस्य सदाप्रिया ॥ 
धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु ॥ 
गोरास्यानमः ॥ 
विष्णोर्वक्षसि या देवी स्वाहा या च विभावसोः। 
चन्द्रार्क शक्र शक्तिर्या सा धेनुर्वरदास्तु मे।। 
गोः श्रृङ्‌ङ्गाभ्यांनमः ॥ 
गोकर्णाभ्यांनमः ।। 
चतुर्मुखस्य या लक्ष्मीर्य्या लक्ष्मीर्धनदस्यच। 
लक्ष्मीर्या लोकपालानां सा धेनुवरदास्तु मे ॥ 
गोः पृष्ठाय नमः ॥ 
स्वधा त्वं पितृमुख्यानां स्वाहा यज्ञ भुजां तथा।। 
सर्वपाप हरा धेनुतस्माच्छन्ति प्रयच्छ मे॥ 
गोः पुच्छायनमः ॥ 
वस्त्रम् ॥ 
आच्छादन मया दत्तं सम्यक शुद्धं सुनिर्मलम्॥ 
सुरभिर्वस्त्र दानेन प्रीयतां परमेश्वरा ॥ 
गन्धम् ॥ 
सर्वदेव प्रियन्देवि चन्दनं कुङकुमान्वितम्। 
कर्पूरादि समायुक्त गोगन्धं प्रति गृह्यताम् ॥ 
अक्षत॥ 
अक्षताश्च शुभ्राश्च कुंकुमाक्ताः सुशोभनाः। 
मयानीताः प्रियार्थतान् गृहाणत्वं गवेश्वरी ॥ 
पुष्पाणि पुष्पमाला ॥ 
धूपम् ॥ 
आनन्द कृत सर्वलोके देवानाञ्च सदाप्रिये। 
गौस्त्वं पाहि जगन्माता धूपोऽयं प्रति गृह्यताम् ॥ 
दीपम् ॥ 
साज्यं सद्वर्ति संयुक्तं वह्निना योजितं मया। 
दीपं गृहाण देवेशि सर्वतस्तिमिरापहम्॥ 
गोःग्रासः ॥ 
सुरभिस्त्वं जगन्माता नित्यं विष्णु पदे स्थिता। 
गो ग्रासं च मया दत्तं नैवेद्यं प्रतिगृहन्यताम्। 
भूषणार्थ द्रव्यम् । 
घंटा चामरञ्च समर्ण्य, ततो गो देहतीर्थान् पूजयेत् ॥ 
गन्धाक्षत पुष्पैः-श्रृङ्गमूले ब्रह्मा विष्णुभ्यो नमः ॥
सर्वतीर्थेभ्योनमः । शिरोमध्ये महादेवाय नमः ॥ ललाटे गौर्येनमः। नासारन्ध्रेषण्मुखायनमः।। नासा पुटयाः कम्बलाश्वतराभ्यां नमः॥ दन्तेषु वायवे नमः ॥ जिह्वायां वरुणाय नमः ।। हूँकारे सरस्वत्यै नमः। गण्डयोः मास पक्षाभ्यां नमः ॥ ओष्ठयोः सन्ध्याद्वाभ्यां नमः ॥ ग्रीवायां रक्षेभ्यो नमः ।। कुक्षौ साध्येनमः ॥ जंघासु धर्मायनमः ।। खुरमध्ये गन्धर्वेभ्यो नमः। खुराग्रे कुलपर्वतेभ्यो नमः ॥ खुरपश्चिमाग्रेषु अप्सरोगणेभ्योनमः ।। पृष्ठे एकादश रुद्रेभ्यो नमः ॥ सर्व सन्धिषु वसुभ्योनमः। श्रोण्यौ पितृगणेभ्योनमः ।। पुच्छे सोमायनमः ।॥ पुच्छकेशेषु सूर्य रश्मिभ्यो नमः ॥ गोमूत्रे ग‌‌ङ्गायै नमः। गोमये यमुनायै नमः ।। क्षीरे सरस्वत्यै नमः। दध्नि नर्मदायै नमः। घृते वन्हये नमः। रोमेषु कोटि देवेभ्योनमः ।॥ उदरे पृथ्व्यैि नमः ॥ स्तनेषु चतुः सागरेभ्यो नमः। एते यस्याः स्तनो देवा सा धनुर्वरदामम् । 

स्वर्ण श्रृङ्‌गी रौप्य खुरां ताम्र पृष्टा मुक्ताफल समर्पितं लांगूलवती कांस्य गो देविकां विधाय प्रार्थयेत ॥ 

नमो गोभ्यः श्रीमतीभ्यः सौरभेयीभ्य एव च। नमोब्रह्मसुताभ्यश्च पवित्राभ्यो नमो नमः ॥ 
ततः सकुशाक्षतयवं गोपुच्छं गृहीत्वा ।। 
प्राङमुखी यजमानौ देवतीर्थेन देवास्तर्पयेत् ॥ 

ॐ या नन्दिनी सुशीलाद्या कामदाश्चैव धेनवः । 
ताः सर्वा पुच्छतोयेन तर्पितास्तर्पयन्तुमाम्।। 
ब्रह्मा विष्णुर्महादेवः कार्तिकेयो गणाधिपः। 
पुष्पचापो महेन्द्रश्च भगवानच्युताग्रजः ।। 
देवा समस्ताः सगणाः सवाहन परिच्छदाः। 
वसवोऽष्टौ द्वादशार्का रुद्रा एकादशेवतु। 
विश्वैदेवाश्च साभ्याश्चाष्टौ नमतो मातरस्तथा ।। 
गन्धर्वा गुह्यकाश्चैव सागरासरितस्तथा ॥ 
राक्षसा यक्ष वेतालाः पूतनाः पर्वताद्रुमा। 
तीर्थान्यापसरश्चैव पशवः पन्नगः खगाः। 
ऋक्षाणि राशयः योगाः मास वर्षर्तुवासराः । 
अयने च युगाः कल्पास्तथा मन्वन्तराणि च। 
भुवनानि दिशाकाश्च तथा सर्वेन्द्रियाणि च ॥ 
ॐ कारश्चैव गायत्री छन्दात्वङगानि चैव हि। 
वेदाश्व स्मृतश्चैव पुराणानि तथैव च ॥ 
आयुर्वेदोधनुर्वेदो गन्धर्वो मन्त्र गहवः ॥ 
औषध्यो वन सम्भूता ग्राम्याश्चैव सुप्पिपलाः। 
सानुगा देवताश्चैव मुनयः सगणास्तथा।। 
ऋषयः ऋषि पत्यश्च सिद्धाश्च सगणास्थता । 
प्रजा प्रजापतिश्चैव येऽन्ये विघ्न विनायकाः॥ 
विद्याधराश्च दैत्याश्च आचार्या गुरवस्तथा। 
डाकिन्यः क्षेत्रपालाश्च भैरवाचाष्ट संख्यकाः ॥ 
स्थावरा जङगाश्चैव भूतग्रामश्चतुर्विधः ।। 
अक्षयेना मृते चैव मङगलेन सुवारिणा। 
गोपुच्छाग्रच्युतमेह मद्दतेन हितेऽखिला ।। 
शाश्वतीं तृप्तिमायान्तु दात्यै युक्तवरप्रदाः। 
सूर्यः सोमः कुजः सोम्यौ गुरु शुक्रः शनैश्चरः ॥ 
ग्रहाश्च तृप्तिमायान्तु राहु केतु समन्विताः ॥ 
इन्द्रो र्यमो रक्षः पाशो वायुर्धनाधिपः । 
ईशोऽनन्तस्तथा ब्रह्मा सर्वे ते तर्पिता मया। 
सावित्र्या सह लोकेशः सलक्ष्मीकश्चतुर्भुजः। 
महेशश्वोमया साद्धौ तृप्तियान्तु शा श्वतीम् ।। 
अत्रिर्वशिष्टो भृगु गौतमौ च मरीचि दक्षो पुलहः पुलस्त्यः ॥
प्रस्चेतसः काश्यप विश्वमित्रो भरद्वाज संज्ञो जमदग्नि रेवः।
अन्येच सर्वे मुनि पुंगवाश्च गृहान्तु दत्तं जलमद्य तुष्ठाः ॥

(जीवित्पितृ कस्यतर्पणे निषेधोऽतस्तेन तन्नकार्य्यम्) ततो यज्ञोपवीतं कण्ठावरोहणं कृत्वासाक्षत कुशैः मनुष्य तीर्थेन मनुष्यांस्तर्पयेत्-

सनकः सनन्दनश्चैव सनातनश्तथैव च। 
कपिलश्चसुरैश्चैव वोढुपञ्चशिखस्तथा। 
तेतृप्तिमखिलायान्तु गोपुच्छोदक तर्पणैः ॥ 

ततो अपसव्य विधाय । 
द्विगुणित कुश तिल जलैः पितृन् तर्पयेत्।। 
कव्यवाडनलः सोमो यमश्चैवार्य्यमा तथा। 
अग्निष्वाताः सोमपाश्व तथा बर्हिषश्व ये। 
तर्पितास्तृप्तिमायान्तु गो पुच्छोदक तर्पणैः ॥ 

यमाय धर्मराजश्च मृत्यवे चान्तकाय च। 
वैवस्वताय कालाय सर्व भूतक्षयायच ॥ 
औदुम्बराय दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने ।
वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नमः।।
पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामह। 
माता पितामहीश्चैवः तथैव प्रपितामही ॥ 
मातामहः प्रमातामहो वृद्ध प्रमातामहस्तथा।
मातामही प्रमातामही वृद्धप्रमातामही तथा।।
अक्षयां तृप्तिमायान्तु गोपुच्छोदक तर्पणैः ॥ 

ये मृता वै पितृव्याश्व मातुलाः श्वशुरस्तथा। 
आचार्य गुरुमित्राद्या गृहन्त्वेतं जलं मुदा॥ 
ये च सम्बन्धिनोऽपुत्रा वन्हि दाहं विवर्जिताः। 
अपमृत्यु मृतायेच ते गृह्णन्तु शुभं जलम् ।।
पितृवंशेमृतायेश्च मातृ वंशे च ये मृताः ।
गुरुश्वशुर बन्धूनां ये चान्यं बान्धवास्मृताः ।।
ये मे कुला लुप्त पिण्डाः क्रियालोप गताश्व ये। 
विरूपा आम गर्भाश्च ज्ञाताज्ञात कुले मम। 
तेसर्वे तृप्तिमायान्तु गो पुच्छोदक तर्पणैः ॥ 
इत्यं तर्पणं विधाय सव्येनाचम्य ॥ 

प्राङमुखी गाँ उदङमुखी विप्रः पुच्छदेशे स्वयं स्थित्वाआज्यपात्रं सतिलं कनकेन (सुवर्णेन) अन्वितं (युक्तं) प्रगृह् गोपुच्छ तत्पात्रे निधाय दान संकल्पं कुर्यात् ॥

अद्येत्यादि० अमुक शर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं सम्प्रददे ॥ 
दान वाक्यम। 
यज्ञ साधन भूतायाः विश्वस्याद्य विनाशिनी । 
विश्वरूप धरोदेवः प्रीयतामनया गवा।। 

दान प्रतिष्ठा संकल्प कुर्यात्- 
ब्राह्मणः पुच्छोदकेनाभिषेकं कुर्यात् ॥ 
मन्त्राशीषं च दद्यात् ॥ 
ततो यजमानः ब्राह्मणेन समन्वितां गावः प्रदक्षिणा कृत्य ॥ प्रदक्षिणा मन्त्रो- नमो गोभ्य श्रीमती ॥ यानि कानि च पापानि०। ततो दक्षिणां भूयसीच दद्यात्॥ तथा यथोपन्नेनान्नेन ब्राह्मणौश्च भोजयिष्ये ॥ इति गोदान विधिः॥



वैदिक ज्योतिष शास्त्र, वास्तुविद् , वैदिक कर्मकाण्ड एवं श्रीमद्भागवत महापुराण के सरस वक्ता - आचार्य हिमांशु ढौण्डियाल

Vedic Astro Care | वैदिक ज्योतिष शास्त्र
वैदिक ज्योतिष शास्त्र, वास्तुविद् , वैदिक कर्मकाण्ड एवं श्रीमद्भागवत महापुराण के सरस वक्ता - आचार्य हिमांशु ढौण्डियाल

"आचार्य हिमांशु ढौण्डियाल वैदिक ज्योतिष में करीब 20 वर्षों का कार्यानुभव रखते हैं। मनुष्य के जीवन को दिशा और दशा प्रदान करने वाले सितारों और नक्षत्रों के प्रति इनका ज्ञान समृद्ध और व्यवहारिक है। ग्रह नक्षत्रों की स्थिति और प्रभाव को यह बारीकी से समझते हैं और उसकी व्याख्या करते हैं। वैदिक ज्योतिष के साथ ही वैदिक वास्तु शास्त्र के माध्यम से भी यह अपने पाठकों और कर्मकाण्ड ज्योतिष विषय में रुचि रखने वाले महानुभावों को परामर्श देकर उनका उचित मार्गदर्शन करते आए हैं। इसके साथ ही दैनिक राशिफल और ग्रह गोचर संबंधी विषयों और उनके प्रभावों से भी यह ज्योतिष विषयों में रुचि रखने वालों को सटीक जानकारी प्रदान करके उनका मार्गदर्शन करते हैं। ग्रहों के गोचर, ग्रहों की दशा, महादशा और अंतर्दशा से उनके जीवन पर होने वाले प्रभावों के अनुसार सहज सरल लाभकारी वैदिक उपाय भी करवाते हैं। 
आचार्य जी के द्वारा करवाई गई पूजाओं से प्रतिकूल परिस्थितियों को पार करने का बल और सामर्थ्य प्राप्त होता है। वैदिक ज्योतिष के साथ साथ श्रीमद्भागवत महापुराण एवं अन्य आध्यात्मिक विषयों सहित भाव संगीत में भी आचार्य जी की गहरी रुचि है। दरअसल आचार्य जी मानना है कि संगीत का संबंध ईश्वर से है जो हमारी आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का काम करता है। संगीत में वह शक्ति है जो आत्मिक शांति प्रदान करता है और जीवन के प्रति एक अलग सोच और दिशा प्रदान करता है। इसलिए यह नियमित संगीत के साथ मंत्र जप और ध्यान का अभ्यास भी करते हैं जिससे इनका ज्योतिष और आध्यात्मिक ज्ञान नित नए सोपान चढता प्रतीत होता है। 
आचार्य हिमांशु ढौण्डियाल जी के वर्षों के अनुभव और निरंतर सीखने की इच्छा को देखते हुए यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि यह अपने पाठकों के लिए एक सच्चे और भरोसेमंद मित्र की तरह हैं जो उन्हें ज्योतिष और अध्यात्म के पथ पर सद्मार्ग दिखा सकते हैं।"
श्रीमद्भागवत महापुराण की संगीतमय कथा, वैदिक यज्ञ अनुष्ठान एवं वैदिक ज्योतिष शास्त्र द्वारा जन्मकुण्डली का पूर्ण विश्लेषण करवा कर वैदिक उपायों हेतु आप आचार्य जी से सम्पर्क कर सकते हैं - 9634235902 / 9012754672
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श्रावण मास महिमा

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नमस्कार, मैं आचार्य हिमांशु आप सभी पाठकों का हार्दिक अभिनंदन करता हूँ। मित्रों, भगवान शिव का परमप्रिय श्रावण मास प्रारंभ हो गया है। आप सभी सनातनी शिव भक्त भगवान शिव की कृपा प्राप्ति की कामना से अनेक विधियों द्वारा, रुद्राभिषेक, व्रत, पूजन अनुष्ठान के साथ साथ कांवड़ यात्रा आदि कर ही रहे हैं। तो आइये हम भी आज श्रावण के महत्व पर थोड़ा चर्चा करते हैं। 
हमारे सनातन परंपरा में प्रत्येक शब्द का अर्थ बड़ा ही व्यापक होता है। हिंदी में महीनों के नाम आप सबको ज्ञात हैं। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, आदि। क्या आप जानते हैं कि महीनों के यह नाम नक्षत्रों के आधार पर रखे गए हैं?  वैदिक ज्योतिष शास्त्र में सूक्ष्म विश्लेषण हेतु नक्षत्र गणना की जाती है। नक्षत्र का पूर्णिमा तिथि से संयोग ही मास का निर्माण करता है, जैसे जिस माह में चित्रा नक्षत्र पूर्णिमा तिथि को पड़ता है वही माह चैत्र कहलाता है। जिस माह में विशाखा नक्षत्र पूर्णिमा तिथि को पड़ता है वही माह वैशाख कहलाता है। जिस माह में ज्येष्ठा नक्षत्र पूर्णिमा तिथि को पड़ता है वही माह ज्येष्ठ कहलाता है। जिस माह में उत्तराषाढ़ा नक्षत्र पूर्णिमा तिथि को पड़ता है वही माह आषाढ़ कहलाता है। ठीक इसी प्रकार जिस माह में श्रवण नक्षत्र पूर्णिमा तिथि को पड़ता है वही माह श्रावण माह कहलाता है।
श्रवण नक्षत्र के कारण ही श्रावण है। अच्छा, श्रवण का शाब्दिक अर्थ क्या है ? सुनना । तो सर्वप्रथम विचार कीजिए कि सुनने योग्य क्या है। ऐसा तो नहीं है कि कोई भी आए मुंह उठा के, और कुछ भी सुना के चला जाए। जिस को सुनकर आपको ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो, अथवा जिसे सुनने से आपका कल्याण हो वही सुनने योग्य है। बाकी तो कोई भी कुछ भी सुनाए, आपको ऐसा इस माह में कुछ भी नहीं सुनना है जिससे दुख, क्रोध, द्वेष, वैमनस्यता, आदि की वृद्धि हो। तो फिर सुनने योग्य क्या है, सुनने योग्य है श्रुति। श्रुति वेदों को कहा जाता है। श्रुति ही श्रवण योग्य है। इसीलिए तो श्रावण मास में श्रुति अर्थात वेद मन्त्रों को आचार्य ब्राह्मणों के मुख से सुनते हुए भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है। शिव शब्द का अर्थ ही कल्याण है। अतः स्वयं भी, कल्याण की कामना से ॐ नमः शिवाय आदि शिव नामों का उच्चारण करते हुए भगवान का अभिषेक करते हैं। भगवान शिव एवं देवी पार्वती जी को जगत के माता पिता कहा जाता है। जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ ।।
हम जन्म लेने के साथ ही देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण से बंध जाते हैं। और एक साथ ही इन तीनों देव ऋषि और पितृ ऋण से मुक्त होने का यदि कोई सर्वश्रेष्ठ अवसर हमें प्राप्त होता है तो वह है यह श्रावण मास। 
आप सब जानते हैं कि भगवान शिव को देवों के देव महादेव कहा जाता है। तो भैया, देवताओं के भी जो देवता हैं वो केवल एक लोटा जल चढ़ाने मात्र से ही प्रसन्न होकर भक्त को देव ऋण से मुक्त कर देते हैं। यदि ऋषि ऋण की बात करें तो सर्वश्रेष्ठ मन्त्र उपदेष्टा ऋषि भी भगवान शिव ही हैं। आप कहेंगे कैसे? तो मन्त्र जिन अक्षरों से बनाए जाते हैं उन चतुर्दश माहेश्वर सूत्रों, 
अ ई उ ण, ऋ ल्र क, आदि अक्षर ब्रह्म की उतपत्ति भी 
तो भगवान शिव के डमरू से ही हुई है। फिर पाणिनि आदि ने इन्ही अक्षरों से तो व्याकरण रचा है। अच्छा एक विशेष ध्यान देने वाली बात की समस्त विश्व में ऐसी कोई भी भाषा नहीं जिसका उच्चारण इन सूत्रों इन अक्षरों का त्याग करके किया जा सके। लिखने में भले ही आप बदलाव कर लें, किंतु बोलने में आप इन अक्षरों के अतिरिक्त कुछ भी अन्य प्रयोग कर ही नहीं सकते। यदि आप को इंग्लिश में अपना नाम बताना पड़े तो आप कहेंगे कि माय नेम इज हिमांशु। अब आपको माय बोलने के लिए म आ और य का उच्चारण करना ही पड़ा। अच्छा संस्कृत भाषा में आप अ को अ, म को म, य को य ही कहेंगे। किंतु इंग्लिश आदि भाषाओं में म के लिए तो एम लिखना पड़ेगा । उच्चारण में ए और म का प्रयोग ही करना पड़ेगा। बिना माहेश्वर सूत्रों के द्वारा निर्मित वर्णमाला के आप इस संसार की किसी भी भाषा को नहीं बोल सकते। ऐसी भाषा को प्रदान करने वाले ऋषि हमारे आराध्य भगवान शिव ही हैं। जो श्रावण माह में केवल ॐ नमः शिवाय, इस पंचाक्षर मन्त्र का उच्चारण करने मात्र से ही अपने भक्तों को ऋषि ऋण से भी मुक्त कर देते हैं। 
अच्छा जब भी मातृ पितृ भक्त की बात आती है तो आपके मन में सर्वप्रथम किसका नाम स्मरण हो आता है? सही विचार कर रहे हो। श्रवण कुमार। सबसे बड़े मातृ पितृ भक्त हैं श्रवण कुमार जी। अपने अंधे माता पिता को कांवड़ में बिठा कर यात्रा करवाई थी ना उन्होंने। कथा सबको पता है। अपने अंधे माता पिता के लिए जल ही लेने तो गए थे श्रवण कुमार। आज भी लाखों की संख्या में श्रवण कुमार हरिद्वार गोमुख कांवड़ लेकर जगत के माता पिता भगवान शिव माता गौरा के लिए जल ही लेने तो गए हैं। यह कांवड़ यात्रा कर, जल को भगवान शिव एवं मां पार्वती को अर्पित करना, आज भी पितृ ऋण से मुक्त होने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। सांसारिक माता पिता के देहत्याग के उपरांत उनकी तृप्ति हेतु जलांजलि ही तो दी जाती है। इसीलिए तो जगत के माता पिता शिव गौरा को जल अर्पण करने से पितृ ऋण से भी मुक्ति मिलती है। किन्तु बहुत बार माता पिता के लिए जल लेने गए श्रवण कुमार को दसरथ जी द्वारा शब्दभेदी बाण से मार दिया जाता है। ध्यान से समझें। दशरथ कौन है? हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियां ही दशरथ हैं। कभी कभी हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ बुद्धि के कुतर्क बाण से आहत हो जाती हैं, तो कभी हमारी कर्मेन्द्रियाँ इच्छाशक्ति के बाण से असमर्थता को प्राप्त होती हैं। राजा दशरथ श्रवण को मारने हेतु शब्दभेदी बाण का ही प्रयोग करते हैं। शब्द का लक्ष्य ही श्रवण को भेदना होता है। शब्द ही सुना जाता है। बस ध्यान रहे कि सुनने योग्य क्या है। श्रवण क्या किया जाए श्रावण में। अच्छा आपको एक रहस्य और बताते हैं। लोक कल्याण की कामना से प्रथम बार श्रीमद्भागवत महापुराण कथा का आयोजन भी श्रावण मास में ही किया गया था। गौकर्ण जी महाराज द्वारा की गई कथा द्वारा जब धुंधकारी मुक्त हुआ तो समस्त श्रोताओं द्वारा अपनी मुक्ति हेतु पुनः कथा आयोजन के लिए गोकर्ण जी से प्रार्थना की गई। तो जन कल्याण की कामना से गोकर्ण जी ने ही सर्वप्रथम श्रीमद्भागवत महापुराण कथा ज्ञान यज्ञ का आयोजन श्रावण मास में ही किया था। क्योंकि श्रावण ही श्रवण हेतु सर्वोत्तम मास है। 
श्रावणे मासि गोकर्णः कथामूचे तथा पुनः ।।
श्रीमद्भागवत का मूल विषय ज्ञान वैराग्य से परिपूर्ण भक्ति ही तो है। और जब भक्ति की बात आती है तो नौ प्रकार की भक्ति शास्त्रों में बतलाई गयीं है, 
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। 
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ 
श्रवण, कीर्तन , स्मरण, चरणसेवा, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, और आत्मनिवेदन यह नौ प्रकार की भक्ति हैं। इन नवधा भक्ति में प्रथम स्थान श्रवण का ही है। और श्रवण भक्ति करने वाले सर्वश्रेष्ठ भक्त की यदि बात करें तो वह श्री परीक्षित महाराज ही हैं जिन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण कथा को सुनकर मोक्षपद प्राप्त किया था। श्रुति अर्थात वेद। और वेद वृक्ष का पका हुआ फल है श्रीमद्भागवत।  इसीलिए विचार अवश्य कीजिए कि क्या श्रावण माह में वेद अथवा वेद वृक्ष के फल रूपी श्रीमद्भागवत महापुराण का श्रवण करना पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन नहीं है?  यही कारण तो है कि जो व्यक्ति देहत्याग कर दे उसकी मुक्ति की कामना से, उसकी सन्तानों द्वारा श्रीमद्भागवत को ही श्रवण किया जाता है। 
वेद अर्थात श्रुति, श्रुति से ही श्रावण, श्रावण से ही श्रवण। श्रवण ही मातृ पितृ भक्त। श्रवण अर्थात सुनना। माता पिता की जो सुने, अथवा माता पिता आदि पूर्वजों के लिए जो सुने वो श्रवण। पिता के वचन ही श्रुति, श्रुति अर्थात वेद। ये है श्रावण की महिमा। यह है श्रवण की महिमा । विचार अवश्य कीजिएगा ।
एक बार फिर से आप सभी पाठकों को श्रावण मास की मङ्गलमयी शुभकामनाएं, आपका मनोरथ पूर्ण हो। इसी कामना के साथ, नमस्कार

विश्वकर्माष्टकम‌्

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।। विश्वकर्माष्टकम‌् ।।
निरंजनो निराकार: निर्विकल्पो मनोहर:
निरामयो निजानंद: निर्विघ्नाय नमो नमः ।।

अनादिरप्रमेयश्च अरूपश्च जयाजय:
लोकरूपो जगन्नाथ: विश्वकर्मन्नमो नमः ।‌।

नमो विश्वविहाराय नमो विश्वविहारिणे 
नमो विश्वविधाताय नमस्ते विश्वकर्मणे ।।

नमस्ते विश्वरुपाय विश्वभुताय ते नम:
नमो विश्वात्मभूतात्मन‌् विश्वकर्मन्नमोऽस्तु ते ।।

विश्वायुर्विश्वकर्मा च विश्वमूर्त्ति: परात्पर:
विश्वनाथ: पिता चैव विश्वकर्मन्नमोऽस्तु ते ।।

विश्वमंगलमांगल्ल‌्य: विश्वविद्याविनोदित:
विश्वसंचारशाली च विश्वकर्मन्नमोऽस्तु ते ।।

विश्वैकविधवृक्षश्च विश्वशाखा महाविध:
शाखोपशाखाश्च तथा तद्दृक्षो विश्वकर्मण: ।।

तद्दृक्ष: फलसंपूर्ण: अक्षोभ्यश्च परात्पर:
अनुपमानो ब्रम्हांड: बीजमोंकारमेव च  ।।

      इति विश्वकर्माष्टकं संपूर्णम् ।।

श्रीकनकधारास्तोत्रम्

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श्रीकनकधारास्तोत्रम् 
अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती 
भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्। अङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला 
माङ्गल्यदाऽस्तु मम मङ्गलदेवतायाः ॥ १ ॥

मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः 
प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि । 
माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या 
सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ॥ २ ॥

विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्ष
मानन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि । 
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्ध
मिन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः ॥ ३ ॥

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्द
मानन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम् । आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं 
भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥ ४ ॥ 

बाह्वन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या 
हारावलीव हरिनीलमयी विभाति । 
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला 
कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ॥ ५ ॥
 
कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारे-
र्धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव । 
मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्ति-
र्भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ॥ ६ ॥ 

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत्प्रभावा-
न्माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन ।
मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं 
मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः ॥ ७ ॥ 

दद्याद्दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा-
मस्मिन्नकिञ्चनविहङ्गशिशौ विषण्णे । 
दुष्कर्मधर्ममपनीय चिराय दूरं 
नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः ॥ ८ ॥

इष्टा विशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र
दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते। 
दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां 
पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ॥ ९ ॥

गीर्देवतेति गरुडध्वजसुन्दरीति 
शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति । 
सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै 
तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ॥ १० ॥

श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै 
रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै । 
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै 
पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै ॥ ११ ॥

नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै 
नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूत्यै । 
नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै 
नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै ॥ १२ ॥

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि 
साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि।
त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि 
मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ॥ १३॥

यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः 
सेवकस्य सकलार्थसम्पदः । 
संतनोति वचनाङ्गमानसै-
स्त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ॥ १४ ॥

सरसिजनिलये सरोजहस्ते 
धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे । 
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे 
त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ॥ १५॥

दिग्घस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्ट
स्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लुताङ्गीम् ।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष
लोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ॥ १६ ॥ 

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं 
करुणापूरतरङ्गितैरपाङ्गैः । 
अवलोकय मामकिञ्चनानां 
प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ॥ १७॥

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं 
त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम् । 
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो 
भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः ॥ १८ ॥

॥ श्रीभगवत्पादशङ्करविरचितं कनकधारास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

नारायण कवच

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राजोवाच
यया गुप्तः सहस्राक्षः सवाहान् रिपुसैनिकान् ।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम् ॥1॥

भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम् ।
यथाऽऽततायिनः शत्रून् येन गुप्तोऽजयन्मृधे ॥2॥

श्रीशुक उवाच
वृतः पुरोहितस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु ॥3॥

विश्वरूप उवाच
धौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ्मुखः।
कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः ॥4॥

नारायणमयं वर्म संनह्येद् भय आगते ।
पादयोर्जानुनोरूर्वोरुदरे हृद्यथोरसि ॥5॥

मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोङ्कारादीनि विन्यसेत् ।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा ॥6॥

करन्यासं ततः कुर्याद् द्वादशाक्षरविद्यया ।
प्रणवादियकारान्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठपर्वसु ॥7॥

न्यसेद्धृदय ओङ्कारं विकारमनु मूर्धनि ।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत् ॥8॥

वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु ।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद् बुधः ॥9॥

सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत् ।
ॐ विष्णवे नम इति ॥10॥

आत्मानं परमं ध्यायेद् ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम् ।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत् ॥11॥

ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे ।
दरारिचर्मासिगदेषुचाप-पाशान् दधानोऽष्टगुणोऽष्टबाहुः ॥12॥

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्ति – र्यादोगणेभ्यो वरुणस्य पाशात् ।
स्थलेषु मायावटुवामनोऽव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ॥13॥

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयूथपारिः

विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ॥14॥

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः ।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोऽव्याद् भरताग्रजोऽस्मान् ॥15॥

मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादा- न्नारायणः पातु नरश्च हासात् ।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ॥16॥

सनत्कुमारोऽवतु कामदेवा-द्वयशीर्षा मां पथि देवहेलनात् ।
देवर्षिवर्यः पुरुषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिर्मानिरयादशेषात् ॥17॥

धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा ।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद् बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः ॥18॥

द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात् ।
कल्कि: कले: कालमलात् प्रपातु धर्मावनायोरुकृतावतारः ॥19॥

मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः ।
नारायणः प्राह्ण उदात्तशक्ति-र्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ॥20॥

देवोऽपराह्ने मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम् ।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोऽवतु पद्मनाभः ॥21॥

श्रीवत्सधामापररात्र ईश: प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः ।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ॥22॥

चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम् ।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमाशु कक्षं यथा वातसखो हुताशः ॥23॥

गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ठ्यजितप्रियासि ।
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो-भूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ॥24॥

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ-पिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन् ।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ॥25॥

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्य- मीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि ।
चक्षूंषि चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् ॥26॥

यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च ।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योऽहोभ्य एव वा ॥27॥

सर्वाण्येतानि भगवन्नामरूपास्त्रकीर्तनात् ।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः ॥28॥

गरुडो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः ।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ॥29॥

सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः ।
बुद्धीन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः ॥30॥

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत् ।
सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः ॥31॥

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम् ।
भूषणायुधलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ॥32॥

तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः ।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ॥33॥

विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्ता-दन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः ।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन स्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजाः ॥34॥

मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारायणात्मकम् ।
विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ॥35॥

एतद् धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा ।
पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते ॥36॥

न कुतश्चिद् भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत् ।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ॥37॥

इमां विद्यां पुरा कश्चित् कौशिको धारयन् द्विजः ।
योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरुधन्वनि ॥38॥

तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा ।
ययौ चित्ररथः स्त्रीभिर्वृतो यत्र द्विजक्षयः ॥39॥

गगनान्न्यपतत् सद्यः सविमानो ह्यवाक्शिराः ।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः ।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ॥40॥

श्रीशुक उवाच
य इदं शृणुयात् काले यो धारयति चादृतः ।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ॥41॥

एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः ।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य मृधेऽसुरान् ॥42॥

इति श्रीनारायणकवचं सम्पूर्णम्

वराह स्तोत्र एवं कवच

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वराह स्तोत्र एवं कवच 

ऋषयः ऊचुः

जितं जितं तेऽजित यज्ञभावन 
त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।
यद्रोमरन्ध्रेषु निलिल्युरध्वरा- 
स्तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥१॥

रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां 
दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम्।
छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम- 
स्वाज्यं दृशित्वंघ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥२॥

स्रुक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयो- 
रिडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते 
यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥३॥

दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरं 
त्वं प्रायणीयोदयनीयदंष्ट्रः।
जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोः 
सभ्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते ॥४॥

सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिः 
संस्थाविभेदास्तव देव धातवः।
सत्राणि  सर्वाणि शरीरसन्धि- स्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः ॥५॥

नमो नमस्तेऽखिलमन्त्रदेवता- 
द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने।
वैराग्यभक्त्यात्मजयानुभावित- 
ज्ञानाय विद्यागुरवे नमोनमः ॥६॥

दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता 
विराजते भूधर भूः सभूधरा।
यथा वनान्निःसरतो दता धृता 
मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥७॥

त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं 
भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते।
चकास्ति शृङ्गोढघनेनभूयसा 
कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥८॥

संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां 
लोकाय पत्नीमसि मातरं पिता।
विधेम चास्यै नमसा सह त्वया 
यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥९॥

कः  श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभो 
रसां गताया भुव उद्विबर्हणम्।
न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये 
यो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥१०॥

विधुन्वता वेदमयं निजं वपु- 
र्जनस्तपस्सत्यनिवासिनो वयम्।
सटाशिखोद्धूतशिवांबुबिन्दुभि- 
र्विमृज्यमाना भृशमीश पाविताः ॥११॥

स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष ते 
यः कर्मणां पारमपारकर्मणः।
यद्योगमायागुणयोगमोहितं 
विश्वं समस्तं भगवन् विधेहि शम् ॥१२॥


श्रीवराहकवचम् 

आद्यं रङ्गमिति प्रोक्तं विमानं रङ्ग संज्ञितम् ।
श्रीमुष्णं वेङ्कटाद्रिं च साळग्रामं च नैमिशम् ॥ 

तोयाद्रिं पुष्करं चैव नरनारायणाश्रमम् । 
अष्टा मे मूर्तयः सन्ति स्वयं व्यक्ता महीतले ॥ 

श्री सूत उवाच - 
श्रीरुद्रमुख निर्णीत मुरारि गुणसत्कथा ।
सन्तुष्टा पार्वती प्राह शङ्करं लोकशङ्करम् ॥ १॥ 

श्री पार्वती उवाच - 
श्रीमुष्णेशस्य माहात्म्यं वराहस्य महात्मनः । 
श्रुत्वा तृप्तिर्न मे जाता मनः कौतूहलायते । 
श्रोतुं तद्देव माहात्म्यं तस्मात्वर्णय मे पुनः ॥ २॥ 

श्री शङ्कर उवाच - 
श‍ृणु देवि प्रवक्ष्यामि श्रीमुष्णेशस्य वैभवम् । 
यस्य श्रवणमात्रेण महापापैः प्रमुच्यते । 
सर्वेषामेव तीर्थानां तीर्थ राजोऽभिधीयते ॥ ३॥ 

नित्य पुष्करिणी नाम्नी श्रीमुष्णे या च वर्तते । 
जाता श्रमापहा पुण्या वराह श्रम वारिणा ॥ ४॥ 

विष्णोरङ्गुष्ठ संस्पर्शात्पुण्यदा खलु जाह्नवी । 
विष्णोः सर्वाङ्गसम्भूता नित्यपुष्करिणी शुभा ॥ ५॥ 

महानदी सहस्त्रेण नित्यदा सङ्गता शुभा । 
सकृत्स्नात्वा विमुक्ताघः सद्यो याति हरेः पदम् ॥ ६॥ 

तस्या आग्नेय भागे तु अश्वत्थच्छाययोदके । 
स्नानं कृत्वा पिप्पलस्य कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् ॥ ७॥ 

दृष्ट्वा श्वेतवराहं च मासमेकं नयेद्यदि । 
कालमृत्युं विनिर्जित्य श्रिया परमया युतः ॥ ८॥ 

आधिव्याधि विनिर्मुक्तो ग्रहपीडाविवर्जितः । 
भुक्त्वा भोगाननेकांश्च मोक्षमन्ते व्रजेत्ध्रुवम् ॥ ९॥ 

अश्वत्थमूलेऽर्कवारे नित्य पुष्करिणी तटे ।
वराहकवचं जप्त्वा शतवारं जितेन्द्रियः ॥ १०॥ 

क्षयापस्मारकुष्ठाद्यैः महारोगैः प्रमुच्यते ।
वराहकवचं यस्तु प्रत्यहं पठते यदि ॥ ११॥ 

शत्रु पीडाविनिर्मुक्तो भूपतित्वमवाप्नुयात् । 
लिखित्वा धारयेद् यस्तु बाहुमूले गलेऽथ वा ॥ १२॥ 

भूतप्रेतपिशाचाद्याः यक्षगन्धर्वराक्षसाः ।
शत्रवो घोरकर्माणो ये चान्ये विषजन्तवः ।
नष्ट दर्पा विनश्यन्ति विद्रवन्ति दिशो दश ॥ १३॥ 

श्रीपार्वती उवाच - 
तत्ब्रूहि कवचं मह्यं येन गुप्तो जगत्त्रये । 
सञ्चरेत्देववन्मर्त्यः सर्वशत्रुविभीषणः । 
येनाप्नोति च साम्राज्यं तन्मे ब्रूहि सदाशिव ॥ १४॥ 

श्रीशङ्कर उवाच - 
श‍ृणु कल्याणि वक्ष्यामि वाराहकवचं शुभम् ।
येन गुप्तो लभेत्मर्त्यो विजयं सर्वसम्पदम् ॥ १५॥ 

अङ्गरक्षाकरं पुण्यं महापातकनाशनम् । 
सर्वरोगप्रशमनं सर्वदुर्ग्रहनाशनम् ॥ १६॥ 

विषाभिचार कृत्यादि शत्रुपीडानिवारणम् ।
नोक्तं कस्यापि पूर्वं हि गोप्यात्गोप्यतरं यतः ॥ १७॥ 

वराहेण पुरा प्रोक्तं मह्यं च परमेष्ठिने ।
युद्धेषु जयदं देवि शत्रुपीडानिवारणम् ॥ १८॥ 

वराहकवचात्गुप्तो नाशुभं लभते नरः । 
वराहकवचस्यास्य ऋषिर्ब्रह्मा प्रकीर्तितः ॥ १९॥ 

छन्दोऽनुष्टुप् तथा देवो वराहो भूपरिग्रहः ।
प्रक्षाल्य पादौ पाणी च सम्यगाचम्य वारिणा ॥ २०॥ 

कृत स्वाङ्ग करन्यासः सपवित्र उदङ्मुखः । 
ओं भर्भवःसुवरिति नमो भूपतयेऽपि च ॥ २१॥ 

नमो भगवते पश्चात्वराहाय नमस्तथा । 
एवं षडङ्गं न्यासं च न्यसेदङ्गुलिषु क्रमात् ॥ २२॥ 

नमः श्वेतवराहाय महाकोलाय भूपते । 
यज्ञाङ्गाय शुभाङ्गाय सर्वज्ञाय परात्मने ॥ २३॥ 

स्रव तुण्डाय धीराय परब्रह्मस्वरूपिणे । 
वक्रदंष्ट्राय नित्याय नमोऽन्तैर्नामभिः क्रमात् ॥ २४॥ 

अङ्गुलीषु न्यसेद् विद्वान् करपृष्ठ तलेष्वपि । 
ध्यात्वा श्वेतवराहं च पश्चात्मन्त्र मुदीरयेत् ॥ २५॥ 

ॐ श्वेतं वराहवपुषं क्षितिमुद्धरन्तं 
शङ्घारिसर्व वरदाभय युक्त बाहुम्। 
ध्यायेन्निजैश्च तनुभिः सकलैरुपेतं 
पूर्णं विभुं सकलवाञ्छितसिद्धयेऽजम् ॥ २६॥ 

वराहः पूर्वतः पातु दक्षिणे दण्डकान्तकः । 
हिरण्याक्षहरः पातु पश्चिमे गदया युतः ॥ २७॥ 

उत्तरे भूमिहृत्पातु अधस्ताद् वायु वाहनः । 
ऊर्ध्वं पातु हृषीकेशो दिग्विदिक्षु गदाधरः ॥ २८॥ 

प्रातः पातु प्रजानाथः कल्पकृत्सङ्गमेऽवतु । 
मध्याह्ने वज्रकेशस्तु सायाह्ने सर्वपूजितः ॥ २९॥ 

प्रदोषे पातु पद्माक्षो रात्रौ राजीवलोचनः । 
निशीन्द्र गर्वहा पातु पातूषः परमेश्वरः ॥ ३०॥ 

अटव्यामग्रजः पातु गमने गरुडासनः ।
स्थले पातु महातेजाः जले पात्ववनी पतिः ॥ ३१॥ 

गृहे पातु गृहाध्यक्षः पद्मनाभः पुरोऽवतु ।
झिल्लिका वरदः पातु स्वग्रामे करुणाकरः ॥ ३२॥ 

रणाग्रे दैत्यहा पातु विषमे पातु चक्रभृत् ।
रोगेषु वैद्यराजस्तु कोलो व्याधिषु रक्षतु ॥ ३३॥ 

तापत्रयात्तपोमूर्तिः कर्मपाशाच्च विश्वकृत् । 
क्लेशकालेषु सर्वेषु पातु पद्मापतिर्विभुः ॥ ३४॥ 

हिरण्यगर्भसंस्तुत्यः पादौ पातु निरन्तरम् । 
गुल्फौ गुणाकरः पातु जङ्घे पातु जनार्दनः ॥ ३५॥ 

जानू च जयकृत्पातु पातूरू पुरुषोत्तमः ।
रक्ताक्षो जघने पातु कटिं विश्वम्भरोऽवतु ॥ ३६॥ 

पार्श्वे पातु सुराध्यक्षः पातु कुक्षिं परात्परः । 
नाभिं ब्रह्मपिता पातु हृदयं हृदयेश्वरः ॥ ३७॥ 

महादंष्ट्रः स्तनौ पातु कण्ठं पातु विमुक्तिदः ।
प्रभञ्जन पतिर्बाहू करौ कामपिताऽवतु ॥ ३८॥ 

हस्तौ हंसपतिः पातु पातु सर्वाङ्गुलीर्हरिः । 
सर्वाङ्गश्चिबुकं पातु पात्वोष्ठौ कालनेमिहा ॥ ३९॥ 

मुखं तु मधुहा पातु दन्तान् दामोदरोऽवतु ।
नासिकामव्ययः पातु नेत्रे सूर्येन्दुलोचनः ॥ ४०॥ 

फालं कर्मफलाध्यक्षः पातु कर्णौ महारथः । 
शेषशायी शिरः पातु केशान् पातु निरामयः ॥ ४१॥ 

सर्वाङ्गं पातु सर्वेशः सदा पातु सतीश्वरः ।
इतीदं कवचं पुण्यं वराहस्य महात्मनः ॥ ४२॥ 

यः पठेत्श‍ृणुयाद्वापि तस्य मृत्युर्विनश्यति ।
तं नमस्यन्ति भूतानि भीताः साञ्जलिपाणयः ॥ ४३॥ 

राजदस्युभयं नास्ति राज्य भ्रंशो न जायते । 
यन्नाम स्मरणात्भीताः भूतवेताळराक्षसाः ॥ ४४॥ 

महारोगाश्च नश्यन्ति सत्यं सत्यं वदाम्यहम् । 
कण्ठे तु कवचं बद्ध्वा वन्ध्या पुत्रवती भवेत् ॥ ४५॥ 

शत्रुसैन्य क्षय प्राप्तिः दुःखप्रशमनं तथा ।
उत्पात दुर्निमित्तादि सूचितारिष्ट नाशनम् ॥ ४६॥ 

ब्रह्मविद्याप्रबोधं च लभते नात्र संशयः । 
धृत्वेदं कवचं पुण्यं मान्धाता परवीरहा ॥ ४७॥ 

जित्वा तु शाम्बरीं मायां दैत्येन्द्रानवधीत्क्षणात् ।
कवचेनावृतो भूत्वा देवेन्द्रोऽपि सुरारिहा ॥ ४८॥ 

भूम्योपदिष्टकवच धारणान नरकोऽपि च ।
सर्वावध्यो जयी भूत्वा महतीं कीर्तिमाप्तवान् ॥ ४९॥ 

अश्वत्थमूलेऽर्कवारे नित्य पुष्करिणीतटे । 
वराहकवचं जप्त्वा शतवारं पठेद्यदि ॥ ५०॥ 

अपूर्वराज्य संप्राप्तिं नष्टस्य पुनरागमम् ।
लभते नात्र सन्देहः सत्यमेतन्मयोदितम् ॥ ५१॥ 

जप्त्वा वराह मन्त्रं तु लक्षमेकं निरन्तरम् ।
दशांशं तर्पणं होमं पायसेन घृतेन च ॥ ५२॥ 

कुर्वन् त्रिकाल सन्ध्यासु कवचेनावृतो यदि । 
भूमण्डलाधिपत्यं च लभते नात्र संशयः ॥ ५३॥ 

इदमुक्तं मया देवि गोपनीयं दुरात्मनाम् । 
वराहकवचं पुण्यं संसारार्णवतारकम् ॥ ५४॥ 

महापातककोटिघ्नं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ।
वाच्यं पुत्राय शिष्याय सद्वृताय सुधीमते ॥ ५५॥ 

श्री सूतः उवाच - 
इति पत्युर्वचः श्रुत्वा देवी सन्तुष्ट मानसा। 
विनायक गुहौ पुत्रौ प्रपेदे द्वौ सुरार्चितौ ॥ ५६॥ 

कवचस्य प्रभावेन लोकमाता च पार्वती । 
य इदं श‍ृणुयान्नित्यं यो वा पठति नित्यशः । 
स मुक्तः सर्व पापेभ्यो विष्णुलोके महीयते ॥ ५७॥ 

इति श्रीवराह कवचं सम्पूर्णम् ।


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  • आचार्य हिमांशु ढौंडियालExpert/Astrologer