Latest Posts

सोमवार, 11 नवंबर 2024

पूजन हेतु डिटेल

Vedic Astro Care | वैदिक ज्योतिष शास्त्र


                 Vedic Astro Care
AACHARYA HIMANSHU DHOUNDIYAL 
Email - vedicastrocare.india@gmail.com
Whatsapp number - 09634235902
FOR INQUIRY - 09012754672

अनुष्ठान नाम - कार्तिक जन्म शान्ति
ब्राह्मण संख्या - 5
सूर्य मन्त्र जप संख्या - 7000

Details for pujan
पूरा नाम -
गोत्र -
जन्मतिथि -
जन्मसमय -
जन्मस्थान -
वर्तमान निवास -
पूजन का उद्देश्य - 
माता जी - 
पिता जी -

Account details for Dakshina and Puja material ( 11000 ) 
Himanshu
Account number 4063000100152392
Punjab national bank
Gurukul kangri haridwar
IFSC CODE PUNB0406300
Phone pay number 9634235902
Google pay number 9012754672


गुरुवार, 7 नवंबर 2024

श्रावण मास महिमा

Vedic Astro Care | वैदिक ज्योतिष शास्त्र

नमस्कार, मैं आचार्य हिमांशु आप सभी पाठकों का हार्दिक अभिनंदन करता हूँ। मित्रों, भगवान शिव का परमप्रिय श्रावण मास प्रारंभ हो गया है। आप सभी सनातनी शिव भक्त भगवान शिव की कृपा प्राप्ति की कामना से अनेक विधियों द्वारा, रुद्राभिषेक, व्रत, पूजन अनुष्ठान के साथ साथ कांवड़ यात्रा आदि कर ही रहे हैं। तो आइये हम भी आज श्रावण के महत्व पर थोड़ा चर्चा करते हैं। 
हमारे सनातन परंपरा में प्रत्येक शब्द का अर्थ बड़ा ही व्यापक होता है। हिंदी में महीनों के नाम आप सबको ज्ञात हैं। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, आदि। क्या आप जानते हैं कि महीनों के यह नाम नक्षत्रों के आधार पर रखे गए हैं?  वैदिक ज्योतिष शास्त्र में सूक्ष्म विश्लेषण हेतु नक्षत्र गणना की जाती है। नक्षत्र का पूर्णिमा तिथि से संयोग ही मास का निर्माण करता है, जैसे जिस माह में चित्रा नक्षत्र पूर्णिमा तिथि को पड़ता है वही माह चैत्र कहलाता है। जिस माह में विशाखा नक्षत्र पूर्णिमा तिथि को पड़ता है वही माह वैशाख कहलाता है। जिस माह में ज्येष्ठा नक्षत्र पूर्णिमा तिथि को पड़ता है वही माह ज्येष्ठ कहलाता है। जिस माह में उत्तराषाढ़ा नक्षत्र पूर्णिमा तिथि को पड़ता है वही माह आषाढ़ कहलाता है। ठीक इसी प्रकार जिस माह में श्रवण नक्षत्र पूर्णिमा तिथि को पड़ता है वही माह श्रावण माह कहलाता है।
श्रवण नक्षत्र के कारण ही श्रावण है। अच्छा, श्रवण का शाब्दिक अर्थ क्या है ? सुनना । तो सर्वप्रथम विचार कीजिए कि सुनने योग्य क्या है। ऐसा तो नहीं है कि कोई भी आए मुंह उठा के, और कुछ भी सुना के चला जाए। जिस को सुनकर आपको ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो, अथवा जिसे सुनने से आपका कल्याण हो वही सुनने योग्य है। बाकी तो कोई भी कुछ भी सुनाए, आपको ऐसा इस माह में कुछ भी नहीं सुनना है जिससे दुख, क्रोध, द्वेष, वैमनस्यता, आदि की वृद्धि हो। तो फिर सुनने योग्य क्या है, सुनने योग्य है श्रुति। श्रुति वेदों को कहा जाता है। श्रुति ही श्रवण योग्य है। इसीलिए तो श्रावण मास में श्रुति अर्थात वेद मन्त्रों को आचार्य ब्राह्मणों के मुख से सुनते हुए भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है। शिव शब्द का अर्थ ही कल्याण है। अतः स्वयं भी, कल्याण की कामना से ॐ नमः शिवाय आदि शिव नामों का उच्चारण करते हुए भगवान का अभिषेक करते हैं। भगवान शिव एवं देवी पार्वती जी को जगत के माता पिता कहा जाता है। जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ ।।
हम जन्म लेने के साथ ही देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण से बंध जाते हैं। और एक साथ ही इन तीनों देव ऋषि और पितृ ऋण से मुक्त होने का यदि कोई सर्वश्रेष्ठ अवसर हमें प्राप्त होता है तो वह है यह श्रावण मास। 
आप सब जानते हैं कि भगवान शिव को देवों के देव महादेव कहा जाता है। तो भैया, देवताओं के भी जो देवता हैं वो केवल एक लोटा जल चढ़ाने मात्र से ही प्रसन्न होकर भक्त को देव ऋण से मुक्त कर देते हैं। यदि ऋषि ऋण की बात करें तो सर्वश्रेष्ठ मन्त्र उपदेष्टा ऋषि भी भगवान शिव ही हैं। आप कहेंगे कैसे? तो मन्त्र जिन अक्षरों से बनाए जाते हैं उन चतुर्दश माहेश्वर सूत्रों, 
अ ई उ ण, ऋ ल्र क, आदि अक्षर ब्रह्म की उतपत्ति भी 
तो भगवान शिव के डमरू से ही हुई है। फिर पाणिनि आदि ने इन्ही अक्षरों से तो व्याकरण रचा है। अच्छा एक विशेष ध्यान देने वाली बात की समस्त विश्व में ऐसी कोई भी भाषा नहीं जिसका उच्चारण इन सूत्रों इन अक्षरों का त्याग करके किया जा सके। लिखने में भले ही आप बदलाव कर लें, किंतु बोलने में आप इन अक्षरों के अतिरिक्त कुछ भी अन्य प्रयोग कर ही नहीं सकते। यदि आप को इंग्लिश में अपना नाम बताना पड़े तो आप कहेंगे कि माय नेम इज हिमांशु। अब आपको माय बोलने के लिए म आ और य का उच्चारण करना ही पड़ा। अच्छा संस्कृत भाषा में आप अ को अ, म को म, य को य ही कहेंगे। किंतु इंग्लिश आदि भाषाओं में म के लिए तो एम लिखना पड़ेगा । उच्चारण में ए और म का प्रयोग ही करना पड़ेगा। बिना माहेश्वर सूत्रों के द्वारा निर्मित वर्णमाला के आप इस संसार की किसी भी भाषा को नहीं बोल सकते। ऐसी भाषा को प्रदान करने वाले ऋषि हमारे आराध्य भगवान शिव ही हैं। जो श्रावण माह में केवल ॐ नमः शिवाय, इस पंचाक्षर मन्त्र का उच्चारण करने मात्र से ही अपने भक्तों को ऋषि ऋण से भी मुक्त कर देते हैं। 
अच्छा जब भी मातृ पितृ भक्त की बात आती है तो आपके मन में सर्वप्रथम किसका नाम स्मरण हो आता है? सही विचार कर रहे हो। श्रवण कुमार। सबसे बड़े मातृ पितृ भक्त हैं श्रवण कुमार जी। अपने अंधे माता पिता को कांवड़ में बिठा कर यात्रा करवाई थी ना उन्होंने। कथा सबको पता है। अपने अंधे माता पिता के लिए जल ही लेने तो गए थे श्रवण कुमार। आज भी लाखों की संख्या में श्रवण कुमार हरिद्वार गोमुख कांवड़ लेकर जगत के माता पिता भगवान शिव माता गौरा के लिए जल ही लेने तो गए हैं। यह कांवड़ यात्रा कर, जल को भगवान शिव एवं मां पार्वती को अर्पित करना, आज भी पितृ ऋण से मुक्त होने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। सांसारिक माता पिता के देहत्याग के उपरांत उनकी तृप्ति हेतु जलांजलि ही तो दी जाती है। इसीलिए तो जगत के माता पिता शिव गौरा को जल अर्पण करने से पितृ ऋण से भी मुक्ति मिलती है। किन्तु बहुत बार माता पिता के लिए जल लेने गए श्रवण कुमार को दसरथ जी द्वारा शब्दभेदी बाण से मार दिया जाता है। ध्यान से समझें। दशरथ कौन है? हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियां ही दशरथ हैं। कभी कभी हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ बुद्धि के कुतर्क बाण से आहत हो जाती हैं, तो कभी हमारी कर्मेन्द्रियाँ इच्छाशक्ति के बाण से असमर्थता को प्राप्त होती हैं। राजा दशरथ श्रवण को मारने हेतु शब्दभेदी बाण का ही प्रयोग करते हैं। शब्द का लक्ष्य ही श्रवण को भेदना होता है। शब्द ही सुना जाता है। बस ध्यान रहे कि सुनने योग्य क्या है। श्रवण क्या किया जाए श्रावण में। अच्छा आपको एक रहस्य और बताते हैं। लोक कल्याण की कामना से प्रथम बार श्रीमद्भागवत महापुराण कथा का आयोजन भी श्रावण मास में ही किया गया था। गौकर्ण जी महाराज द्वारा की गई कथा द्वारा जब धुंधकारी मुक्त हुआ तो समस्त श्रोताओं द्वारा अपनी मुक्ति हेतु पुनः कथा आयोजन के लिए गोकर्ण जी से प्रार्थना की गई। तो जन कल्याण की कामना से गोकर्ण जी ने ही सर्वप्रथम श्रीमद्भागवत महापुराण कथा ज्ञान यज्ञ का आयोजन श्रावण मास में ही किया था। क्योंकि श्रावण ही श्रवण हेतु सर्वोत्तम मास है। 
श्रावणे मासि गोकर्णः कथामूचे तथा पुनः ।।
श्रीमद्भागवत का मूल विषय ज्ञान वैराग्य से परिपूर्ण भक्ति ही तो है। और जब भक्ति की बात आती है तो नौ प्रकार की भक्ति शास्त्रों में बतलाई गयीं है, 
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। 
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ 
श्रवण, कीर्तन , स्मरण, चरणसेवा, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, और आत्मनिवेदन यह नौ प्रकार की भक्ति हैं। इन नवधा भक्ति में प्रथम स्थान श्रवण का ही है। और श्रवण भक्ति करने वाले सर्वश्रेष्ठ भक्त की यदि बात करें तो वह श्री परीक्षित महाराज ही हैं जिन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण कथा को सुनकर मोक्षपद प्राप्त किया था। श्रुति अर्थात वेद। और वेद वृक्ष का पका हुआ फल है श्रीमद्भागवत।  इसीलिए विचार अवश्य कीजिए कि क्या श्रावण माह में वेद अथवा वेद वृक्ष के फल रूपी श्रीमद्भागवत महापुराण का श्रवण करना पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन नहीं है?  यही कारण तो है कि जो व्यक्ति देहत्याग कर दे उसकी मुक्ति की कामना से, उसकी सन्तानों द्वारा श्रीमद्भागवत को ही श्रवण किया जाता है। 
वेद अर्थात श्रुति, श्रुति से ही श्रावण, श्रावण से ही श्रवण। श्रवण ही मातृ पितृ भक्त। श्रवण अर्थात सुनना। माता पिता की जो सुने, अथवा माता पिता आदि पूर्वजों के लिए जो सुने वो श्रवण। पिता के वचन ही श्रुति, श्रुति अर्थात वेद। ये है श्रावण की महिमा। यह है श्रवण की महिमा । विचार अवश्य कीजिएगा ।
एक बार फिर से आप सभी पाठकों को श्रावण मास की मङ्गलमयी शुभकामनाएं, आपका मनोरथ पूर्ण हो। इसी कामना के साथ, नमस्कार

सोमवार, 28 अक्तूबर 2024

वैदिक ज्योतिष शास्त्र, वास्तुविद् , वैदिक कर्मकाण्ड एवं श्रीमद्भागवत महापुराण के सरस वक्ता - आचार्य हिमांशु ढौण्डियाल

Vedic Astro Care | वैदिक ज्योतिष शास्त्र
वैदिक ज्योतिष शास्त्र, वास्तुविद् , वैदिक कर्मकाण्ड एवं श्रीमद्भागवत महापुराण के सरस वक्ता - आचार्य हिमांशु ढौण्डियाल

"आचार्य हिमांशु ढौण्डियाल वैदिक ज्योतिष में करीब 20 वर्षों का कार्यानुभव रखते हैं। मनुष्य के जीवन को दिशा और दशा प्रदान करने वाले सितारों और नक्षत्रों के प्रति इनका ज्ञान समृद्ध और व्यवहारिक है। ग्रह नक्षत्रों की स्थिति और प्रभाव को यह बारीकी से समझते हैं और उसकी व्याख्या करते हैं। वैदिक ज्योतिष के साथ ही वैदिक वास्तु शास्त्र के माध्यम से भी यह अपने पाठकों और कर्मकाण्ड ज्योतिष विषय में रुचि रखने वाले महानुभावों को परामर्श देकर उनका उचित मार्गदर्शन करते आए हैं। इसके साथ ही दैनिक राशिफल और ग्रह गोचर संबंधी विषयों और उनके प्रभावों से भी यह ज्योतिष विषयों में रुचि रखने वालों को सटीक जानकारी प्रदान करके उनका मार्गदर्शन करते हैं। ग्रहों के गोचर, ग्रहों की दशा, महादशा और अंतर्दशा से उनके जीवन पर होने वाले प्रभावों के अनुसार सहज सरल लाभकारी वैदिक उपाय भी करवाते हैं। 
आचार्य जी के द्वारा करवाई गई पूजाओं से प्रतिकूल परिस्थितियों को पार करने का बल और सामर्थ्य प्राप्त होता है। वैदिक ज्योतिष के साथ साथ श्रीमद्भागवत महापुराण एवं अन्य आध्यात्मिक विषयों सहित भाव संगीत में भी आचार्य जी की गहरी रुचि है। दरअसल आचार्य जी मानना है कि संगीत का संबंध ईश्वर से है जो हमारी आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का काम करता है। संगीत में वह शक्ति है जो आत्मिक शांति प्रदान करता है और जीवन के प्रति एक अलग सोच और दिशा प्रदान करता है। इसलिए यह नियमित संगीत के साथ मंत्र जप और ध्यान का अभ्यास भी करते हैं जिससे इनका ज्योतिष और आध्यात्मिक ज्ञान नित नए सोपान चढता प्रतीत होता है। 
आचार्य हिमांशु ढौण्डियाल जी के वर्षों के अनुभव और निरंतर सीखने की इच्छा को देखते हुए यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि यह अपने पाठकों के लिए एक सच्चे और भरोसेमंद मित्र की तरह हैं जो उन्हें ज्योतिष और अध्यात्म के पथ पर सद्मार्ग दिखा सकते हैं।"
श्रीमद्भागवत महापुराण की संगीतमय कथा, वैदिक यज्ञ अनुष्ठान एवं वैदिक ज्योतिष शास्त्र द्वारा जन्मकुण्डली का पूर्ण विश्लेषण करवा कर वैदिक उपायों हेतु आप आचार्य जी से सम्पर्क कर सकते हैं - 9634235902 / 9012754672
अधिक जानकारी के लिए आप Vedic Astro Care यूट्यूब चैनल पर धर्म, आध्यात्म, वैदिक ज्योतिष, कर्मकाण्ड एवं भागवत कथा के वीडियो देख सकते हैं।
यदि आप कोई भी देव पूजन यज्ञ अनुष्ठान करवाना चाहते हैं तो पूजन हेतु यह आवश्यक जानकारी भेजें- 
Details for pujan
पूरा नाम -
गोत्र -
जन्मतिथि -
जन्मसमय -
जन्मस्थान -
वर्तमान निवास -
पूजन का उद्देश्य - 
परिवार में उपस्थित सभी सदस्यों के नाम - 

सम्पर्क करें - 
Vedic Astro Care
AACHARYA HIMANSHU DHOUNDIYAL 
Email - vedicastrocare.india@gmail.com
Whatsapp number - 09634235902
FOR INQUIRY - 09012754672

पूजन दक्षिणा हेतु - 
Account Detail
Himanshu
Account number 4063000100152392
Punjab national bank
Gurukul kangri haridwar
IFSC CODE PUNB0406300
Phone pay number 9634235902
Google pay number 9012754672


शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2024

दीपावली पूजन

Vedic Astro Care | वैदिक ज्योतिष शास्त्र
श्री गणेशाय नमः
दीपावली पूजन
कार्तिक कृष्ण अमावस्या के शुभ अवसर पर 1 नवंबर को देशभर में प्रकाशोत्सव पर्व दिवाली मनाई जा रही है। माता लक्ष्मी की कृपा सदैव बनी रहे इसके लिए शास्त्रों में लक्ष्मी माता के साथ गणेशजी और कुबेरजी की पूजा का विधान बताया गया है। शास्त्रों में कहा गया है कि कार्तिक कृष्ण अमावस्या तिथि को प्रदोष काल में स्थिर लग्न में दीपावली पूजन करने से अन्न-धन की प्राप्ति होती है। जो लोग तंत्र विद्या से देवी की पूजा करते हैं उन्हें आधी रात के समय निशीथ काल में पूजा करनी चाहिए। किन्तु सात्विक पूजन करने वाले सदगृहस्थ को प्रदोष काल में ही पूजन करना चाहिए।

 सात्विक पूजन करने वाले गृहस्थों के लिए दीपावली पूजा की विधि - 

सर्वप्रथम अपने घर में बने देवालय में पूजन हेतु आवश्यक सामग्री शुद्धता से एकत्रित कर लें।

दीपावली पूजन सामग्री - 1- लकड़ी की एक चौकोर चौकी, 2 - कलावा, 3 - रोली, 4 - सिंदूर, 5 - एक पानी वाला नारियल, 6 - अक्षत, 7 - लाल वस्त्र 1 मीटर , 8 - फूल, 9 - पांच सुपारी, 10 - लौंग, 11 - पान के पत्ते, 12 - घी, 13 - तांबे का कलश 5 लीटर जल वाला, 14 - कलश हेतु आम पीपल बड़ के पत्ते, 15 - कमल गट्टे की माला, 16 - पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, शक्कर सभी को एक कटोरी में मिलाकर पंचामृत तैयार कर लें), 17 - अनार केले सेब आदि फल, 18 - मिठाईयां, 19 - पूजा में बैठने हेतु आसन, 20 - हल्दी, 21 - धूप, 22 - इत्र, 23 - मिट्टी के दो बड़े दीपक, 24 - मिट्टी के छोटे दीपक 21, 51, 101, अपनी इच्छानुसार
 25 - रूई, 26 - आरती की थाली, 27 - सर्वोषधि 28 - दूर्वा 29 - सप्तमृतिका 30 - पंचरत्न 31 - जनेऊ 2, 32 - एक लोटा भरकर स्वच्छ जल, 33 - आचमन पात्र, 34 - लक्ष्मी गणेश जी को स्नान करवाने एवं पूर्णपात्र हेतु दो कांसे की थाली, 35 - दूध आधा किलो, दही 100 ग्राम, देशी गाय का शुद्ध घी आधा किलो, शहद 100 ग्राम, शक्कर 100 ग्राम, 36 - हरी इलायची 5 दाने, 37 - गुलाब या कमल के फूलों की एक  और गेंदे के फूलों की दो मालाएं, 38 - गंगाजल, 39 - एक चांदी अथवा सोने के सिक्के पर बनी हुई लक्ष्मी गणेश जी की प्रतिमा। 40 - सरसों का तेल 1 लीटर। 41 - साफ नया छोटा तौलिया, 42 - कुबेर यंत्र अथवा प्रतिमा, 43 - लक्ष्मी जी के लिए लाल साड़ी, 44 - गणेश जी के लिए सफेद सूती धोती, 

सामग्री एकत्रित हो जाने पर पूजन मुहूर्त से एक घण्टे पूर्व ही इस विधि से पूजन तैयारी कर लें।
1 - पूजन स्थल को गंगाजल से शुद्ध करें।
2 - पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख अपने बैठने के लिए लाल या पीले रंग का ऊनि आसन लगाएं।
3 - लकड़ी की चौकी पर लाल सूती कपड़ा बिछाएं।
4 - चौकी के ऊपर बिछे हुए लाल कपड़े पर चावल से अष्टदल बनाएं। अर्थात आठ पंखुड़ियों वाली कमल की आकृति बनाएं।
5 - अष्टदल कमल के ऊपर शुद्ध ताजे जल से भरे हुए कलश को स्थापित करें। 
6 - फिर भरे हुए कलश में थोड़ा गंगाजल मिलाएं।
7 - कलश के अंदर एक सुपारी, हल्दी की एक गांठ, सप्तमृतिका, सर्वोषधि, दूर्वा, एक सिक्का, पंचरत्न, रोली, चावल, फूल डालें। 
8 - कलश के गले पर 5 बार क्लॉकवाइज घुमाकर कलावा लपेटकर बांध दें।
9 - आम पीपल बड़ के पत्ते पांच पांच की संख्या में कलश के अंदर डालें।
10 - कांसे की एक बड़ी थाली में साबुत चावल भरकर कलश के ऊपर रखें।
11 - एक पानी वाले नारियल पर लाल कपड़ा लपेटकर, कलश के ऊपर रखी थाली में भरे हुए चावल के ऊपर रखें। नारियल का तने से जुड़ा हुआ भाग अपनी ओर रखें।
12 -  एक छोटी कटोरी में चावल भरकर, उसके ऊपर गणेश जी लक्ष्मी जी की सोने अथवा चांदी की प्रतिमा, ( सिक्का ) एवं कुबेर यंत्र या कुबेर प्रतिमा रखकर, कलश के ऊपर रखे गए नारियल के आगे पूर्णपात्र में ही रखें।
13 - एक बड़ा दीपक तेल भरकर लाल रंग के कलावे से लम्बी बत्ती बनाकर निर्मित करें। तेल दीपक को चौकी के सामने, अपनी बाईं ओर एक छोटी प्लेट में चावल रखकर स्थापित करें।
14 - फिर एक बड़ा दीपक घी भरकर सफेद रुई से खड़ी बत्ती बनाकर निर्मित करें। घी दीपक को चौकी के सामने, अपनी दाहिनी ओर एक छोटी प्लेट में चावल रखकर स्थापित करें।
15 - एक बड़े लोटे अथवा अन्य पात्र में पूजा स्नान के निमित्त शुद्ध जल भरकर पास में रखें।
16 - एक बड़ी थाली में फूल, मालाएं, दूर्वा, रोली चन्दन तिलक, चावल, सुपारी, धूप, कलावा एवं बनाए हुए पंचामृत की कटोरी, आचमन पात्र सजाकर अच्छे से रखें।
17 - स्नान हेतु रखी गयी कांसे की थाली में रोली या चन्दन से अष्टदल कमल बनाकर रखें।
18 - दूध, दही, घी, शहद, और शक्कर को पंचामृत बनाने के साथ साथ, एक थाली में अलग अलग भी रखें।

तैयारी पूर्ण होने पर पूजन प्रारम्भ करें - 
1 - सर्वप्रथम अपने ऊपर, पूजन सामग्री पर एवं अन्य सभी उपस्थित सज्जनों पर लोटे में रखे गए जल को फूल से छिड़कें।
2 - आचमन पात्र से एक बार हाथ धोकर तीन बार दाहिनी हथेली पर जल रखकर पिएं। फिर से हाथ धो लें।
3 - एक बार फिर से सभी के ऊपर जल छिड़कें।
4 - सभी को तिलक लगाएं।
5 - हाथ धोकर घी और तेल के दोनों दीपक जलाएं। फिर से हाथ धो लें।
6 - हाथ में फूल लेकर गणेश जी लक्ष्मी जी कुबेर जी का ध्यान करें, एवं पुष्प अर्पित करें।
7 - पृथ्वी माता को प्रणाम कर पुष्प चढाएं।
8 - बाएं हाथ में चावल रखकर दाहिने हाथ से पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तर क्रम से थोड़े थोड़े चावल चारों दिशाओं में छिड़कें। फिर हाथ धो लें।
9 - भूमि पर पुष्प चावल रखकर, उसके ऊपर जलपात्र अर्थात लोटा रखें। गंगाजल डालें। गंगा आदि पवित्र नदियों, तीर्थों का स्मरण जल में करते हुए रोली फूल और चावल लोटे के अंदर जल में छोड़ें। फिर उस जल को सभी के ऊपर और पूजन सामग्री पर छिड़कें।
10 - भगवान सूर्य को प्रणाम कर, जलते हुए दोनों दीपकों पर रोली चावल से तिलक कर फूल चढाएं।
11 - घण्टी शंख को भी तिलक कर घण्टा शंख ध्वनि करें।
12 - हाथ में फूल चावल लेकर, गणेश जी, लक्ष्मी नारायण, उमा महेश्वर, ब्रह्मा ब्रह्माणी, इंद्र इन्द्राणी, माता पिता, गुरुदेव, इष्टदेव, कुलदेवता, कुलदेवी, ग्रामदेवता, स्थान देवता, वास्तु देवता, तीर्थों, ऋषियों, ब्राह्मणों, धर्मग्रंथों को प्रणाम करते हुए चौकी पर रखे हुए कलश के ऊपर छोड़े।
13 - हाथ में जल, चावल, फूल, दूर्वा, सुपारी, दक्षिणा लेकर अपनी मनोकामना का स्मरण करते हुए अपना नाम गोत्र उच्चारण कर, संकल्प गणेश जी को चढाएं।
14 - हाथ में फूल लेकर लक्ष्मी जी गणेश जी कुबेर जी के साथ साथ चौकी पर रखे हुए कलश में वरुण देव का ध्यान करते हुए, फूल अर्पित करें। तथा बाएं हाथ में चावल लेकर, दाहिने हाथ से थोड़े थोड़े चावल कलश के ऊपर छोड़ते हुए अष्ट लक्ष्मी का आवाहन यह कहते हुए करें। 
ॐ आदिलक्ष्म्यै नमः, धनलक्ष्म्यै नमः, धान्यलक्ष्म्यै नमः, गजलक्ष्म्यै नमः, संतान लक्ष्म्यै नमः, वीरलक्ष्म्यै नमः, विजयलक्ष्म्यै नमः, विद्यालक्ष्म्यै नमः । साथ ही भगवान विष्णु जी का भी ध्यान करें।
15 - दोनों हाथों से चावल उठाकर कलश के ऊपर रखी हुई लक्ष्मी गणेश जी की प्रतिमा पर प्रतिष्ठा हेतु छिड़कें। 
16 - एक कांसे की थाली में रोली चन्दन से बनाए हुए अष्टदल के ऊपर फूल चावल रखकर, सोने अथवा चांदी के सिक्के पर बने हुए लक्ष्मी गणेश जी को स्थापित करें। 
17 - पांच बार एक एक आचमनी जल चढाएं।
18 - फिर क्रमशः दूध, दही, घी, शहद, और शक्कर से स्नान करवाएं। प्रत्येक वस्तु के बाद शुद्ध जल आचमनी से अवश्य चढाएं।
19 - पूर्व में पांचों वस्तुओं को मिलाकर बनाए गए पंचामृत से भी स्नान करवाकर, फिर से शुद्ध जल चढ़ाएं।
20 - अब दूध से अभिषेक करें। साथ में इक्कीस इक्यावन या एक सौ आठ बार गणेश जी और लक्ष्मी जी के किसी भी मंत्र का उच्चारण करते हुए घण्टी भी बजाते जाएं।
21 - शुद्ध जल से स्नान करवाकर, शुद्ध वस्त्र से पोंछने के बाद पुनः कलश के ऊपर पूर्णपात्र में स्थापित करें।
22 - माता लक्ष्मी जी के निमित्त लाल साड़ी चुनरी, एवं गणेश जी के लिए सफेद धोती अर्पित करें। फिर एक आचमनी जल चढाएं
23 - चन्दन एवं रोली से तिलक कर, चावल चढाएं।
24 - फूल चढाकर, लक्ष्मी जी को कमलगट्टे, कमल फूल या गुलाब की माला, और गणेश जी के निमित्त गेंदे के फूलों की माला कलश के ऊपर चढाएं।
25 - गणेश जी को दूर्वा अर्पित करें।
26 - हल्दी चढाएं।
27 - धूप दीप दिखाकर फिर हाथ धो लें।
28 - फल मिष्टान्न का भोग लगाकर आचमनी से जल चढ़ाएं।
29 - पान के पत्ते पर, लौंग, इलाइची, सुपारी रखकर अर्पित करें।
30 - व्यापारी वर्ग अपने बहीखातों एवं गल्ले का भी पूजन करें।
31 - सभी मिलकर आरती करें। आरती के बाद पुष्पांजलि अर्पित कर, क्षमा याचना करें। जयकारे लगाएं। आरती ग्रहण करें। माथा टेककर प्रणाम करें।
32 - घर के सभी द्वारों पर अथवा मुख्य द्वार पर स्वस्तिक निर्माण कर, दीप प्रज्वलित करें। 
33 - तुलसी जी, पितरों के निमित्त, एवं देवालयों में दीपक जलाकर, फिर प्रसाद वितरित कर सभी को प्रणाम करते हुए, बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद लेकर, छोटों को स्नेह से गले मिलते हुए दीपावली की शुभकामनाएं प्रदान करें।



लक्ष्मी पूजन हेतु मन्त्र - ॐ भूर्भुवः स्वः महालक्ष्म्यै नमः।
गणेश पूजन हेतु मन्त्र - ॐ गं गणपतये नमः। 


गुरुवार, 12 सितंबर 2024

श्री सत्यनारायण व्रत कथा माहात्म्य

Vedic Astro Care | वैदिक ज्योतिष शास्त्र
जय श्री कृष्ण। सभी दर्शकों श्रोताओं का मैं आचार्य हिमांशु ढौण्डियाल एक बार पुनः अभिवादन करता हुआ, पूर्व में फेसबुक पटल पर प्रेषित, श्री सत्यनारायण व्रत कथा के शीर्षक विषय पर आधारित वीडियो को देखकर, हमारे अनेकों शुभचिंतकों, दर्शकों, जिज्ञासुओं के विशेष आग्रह पर आज विस्तार से श्री सत्यनारायण व्रत कथा के माहात्म्य पर यथा मति यथा ज्ञान अपने विचार आप सभी सुधीजनों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। साथ ही आशा करता हूँ कि आप तन्मयता से वीडियो को पूरा देखकर,  हमारे भावों को समझकर, इस चर्चा में स्वयं भी भागीदारी सुनिश्चित करेंगे।
माहात्म्य का शाब्दिक अर्थ है महत्व।महत्व को ही माहात्म्य कहते हैं ।
यदि ध्यान दिया जाए तो सत्यनारायण कथा में एक ही बात को बार बार सत्यापित किया गया है, वो यह कि यदि आप सत्य कि प्रतिज्ञा कर लेते हैं, आप सत्यनिष्ठ बनते हैं तो आपको मानव जीवन में समस्त भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति होती है और मानव कलेवर त्यागने पर भगवान के नित्य निवास वैकुण्ठ की प्राप्ति हो जाती है ।
इह लोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ।।
तात्पर्य है कि जब तक व्यक्ति इस संसार में जीवित अवस्था में है यदि तब तक वह सत्य का आश्रय ग्रहण कर, उत्तम आचरण करता है, सत्य नारायण कि प्रतिज्ञा ग्रहण करता है, सत्य संकल्प लेता है तो उसे इस संसार में जितने भी भौतिक सुख है, उन सभी की प्राप्ति सहज ही हो जाती है । और अन्त में वह भगवान सत्यनारायण जी के लोक वैकुंठ को प्राप्त करता है। बस इसी बात को अलग अलग कथाओं , दृष्टान्तों के माध्यम से सिद्ध किया गया है। जैसे काशी नगर में रहने वाले निर्धन ब्राह्मण ने भगवान सत्यनारायण की प्रेरणा से सत्य नारायण व्रत का पालन कर समस्त भौतिक सम्पत्तियों को प्राप्त किया और दुर्लभ मोक्षपद प्राप्त किया। इसी प्रकार श्री सत्यनारायण व्रत कथा मैं अन्य जितनी भी कथाएं हैं 
उनका मूल उद्देश्य है सत्यनारायण व्रत के महत्व को सिद्ध करना, अर्थात मानव जीवन में सत्य की प्रतिज्ञा करने पर  क्या प्राप्त होता है, यह बतलाना। कारण ! जब तक हमें किसी वस्तु के महत्व की जानकारी नहीं होती तब तक हम उस वस्तु को महत्व भी नहीं देते। जैसे मार्ग में आपको चलते चलते एक हीरे का टुकड़ा पड़ा दिखा ,किन्तु, क्योंकि आप‌को हीरे की पहचान नहीं है और वह हीरा अभी रत्न के आकार में ढाला नहीं गया है, परिष्कृत नहीं किया है, आप उसे कांच का टुकड़ा समझ कर त्याग देंगे। जौहरी को ही रत्न की पहचान होती है। ठीक इसी प्रकार इस श्री सत्यनारायण व्रत कथा के महत्व की जानकारी, व्रत के स्वरूप की पहचान, ऋषि मुनियों, ज्ञानी ब्राह्मणों, को होती है। और जो जिज्ञासु प्रवृत्ति के भगवद्भक्त गुरुओं की चरण शरण ग्रहण करते हैं उन्हें यही कथा भुक्ति मुक्ति प्रदान कर देती है। अन्य अज्ञानियों के लिए तो यह कांच ही है, किन्तु गुरु शरणागत भक्तों के लिए यह अनमोल रत्न है। आदिगुरु शंकराचार्य जी द्वारा प्रतिपादित अद्वैत सिद्धांत कहता है - 
ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर: ।
अर्थात् ब्रह्म ही एक सत्य है और यह दृश्य जगत भ्रम व मिथ्या है।  जीव ही ब्रह्म है इसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं । शंकराचार्य जी के अद्वैत दर्शन का यही मूलाधार है । क्योंकि जिसके स्वरूप में स्वभाव में प्रतिक्षण परिवर्तन आए, वह केवल भ्रम है वही मिथ्या है। यही संसार है। संसार को संसृति कहा जाता है। संसृति अर्थात, जो अनवरत बदलता रहे। जो क्षण अभी है वह बीत गया, अब नया है। अनवरत यही क्रम चल रहा है। बस यही संसार है। काल के गाल में हर क्षण सरक रहा है। निरन्तर स्वरूप बदल रहा है इसलिए मिथ्या है इसीलिए भ्रम मात्र है। तो फिर सत्य क्या है? तो कहा ब्रह्मसत्यं । ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है। गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में कहें तो - 
मन समेत जेहि जान न बानी। 
तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥
महिमा निगमु नेति कहि कहई। 
जो तिहुँ काल एकरस रहई॥
अर्थात-
जिनको मन सहित वाणी नहीं जानती और ज्ञानीजन जिनका केवल अनुमान ही कर पाते हैं, जिनकी महिमा को वेद भी 'नेति नेति' कहकर वर्णन करते हैं वही सत चित्त आनंद स्वरूप भगवान तीनों कालों में एकरस अर्थात सर्वदा और सर्वथा निर्विकार रहते हैं । सत्य स्वरूप में नारायण अर्थात ब्रह्म ही हैं, इसीलिए ब्रह्मसत्यं कहा गया है। नारायण ही ब्रह्म हैं। ब्रह्म ही सत्य है। इसीलिए सत्य रूपी ब्रह्म का संकल्प लेना चाहिए। सत्य नारायण की प्रतिज्ञा लेनी चाहिए। 
सनातन धर्म के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ, जो कि स्वयं भगवान का ही प्रत्यक्ष वांग्मय स्वरूप है, ऐसे अलौकिक श्रीमद्भागवत महापुराण में आदि मध्य और अंत में सत्य की ही वंदना की गई है। प्रारम्भ में - 
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् 
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः । तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा 
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ।
ग्रन्थ के मंगलाचरण में सत्यं परम् धीमही कहकर सत्य रूप नारायण का ही ध्यान किया गया है। 
मध्य में- 
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये ।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः । 

और अन्त मैं भी 
कस्मै येन विभासितोऽयमतुलो ज्ञानप्रदीपः पुरा 
तद्रूपेण च नारदाय मुनये कृष्णाय तद्रूपिणा । 
योगीन्द्राय तदात्मनाथ भगवद्राताय कारुण्यत - 
स्तच्छुद्धं विमलं विशोकममृतं सत्यं परं धीमहि ।

श्रीमद्भागवत के आदि, मध्य और अंत में केवल सत्य ही सत्य है, सत्यं परम् धीमही, इसीलिए श्री मद् ‌भागवत महापुराण को प्रत्यक्ष वाङ्गमय स्वरूप कहते हैं। वाङ्मय का तात्पर्य है ब्रह्म का शब्द विग्रह स्वरूप। यही अक्षर ब्रह्म है। 
अ मतलब नहीं, क्षर का अर्थ नष्ट होना । अर्थात जो कभी नष्ट ना हो उसे अक्षर कहते हैं। यही अक्षर ब्रह्म है। यही स्वर ब्रह्म है। यही शब्द ब्रह्म है। अग्नि पुराण में कहा गया है कि
शब्द रूप धरस्यैते विष्णोरंशा इवात्मना ।।
अर्थात भगवान विष्णु ही शब्दब्रह्म रूप में विद्यमान हैं।  
स्वर ब्रह्म, शब्दब्रह्म, अक्षर ब्रह्म इसीलिए कहा जाता है ।
व्याकरण की दृष्टि से अक्षर अर्थात वर्ण पांच वर्गों में विभाजित हैं । क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, और प वर्ग। 
अब प्रत्येक वर्ग के अक्षरों को उच्चारण करने हेतु कंठ, तालु, मूर्धा, दन्ति और ओष्ठ इन पांचों का अलग अलग प्रयोग किया जाता है। इसके लिए व्याकरण में सूत्र निर्धारित हैं। 
अ-कु-ह-विसर्जनीयानां कण्ठः 
अर्थात क वर्ग (क, ख, ग, घ, ङ्), एवं हकार अथवा विसर्ग का उच्चारण स्थान "कण्ठ" है। इसी प्रकार दूसरा सूत्र है  इ-चु-य-शानां तालु । अर्थात चवर्ग (च, छ, ज, झ, ञ), एवं यकार और शकार इनका उच्चारण स्थान " तालु" है। तीसरा सूत्र है ऋ-टु-र-षाणां मूर्धा । अर्थात टवर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण), एवं रे और ष कार इनका उच्चारण स्थान "मूर्धा" है। चौथा सूत्र है लृ-तु-ल-सानां दन्ताः । अर्थात तवर्ग (त, थ, द, ध, न), एवं लकार और सकार का उच्चारण स्थान "दन्त" है। एवं पांचवां सूत्र है उ-पु-उपध्मानीयानाम् ओष्ठौ । अर्थात पवर्ग (प, फ, ब, भ, म) और उपध्मानीय इनका उच्चारण स्थान "ओष्ठ" है। अब अ, इ, ऋ, लृ, और उ यह पांच स्वर क्रमशः 
कवर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, और प वर्ग के प्राण स्वरूप हैं। जिस प्रकार से प्राणिमात्र में परमात्मा, आत्मा रूप में विद्यमान हैं ठीक उसी प्रकार से यह पांच स्वर अक्षर ब्रह्म में प्राण स्वरूप हैं। शब्द रूप धरस्यैते विष्णोरंशा इवात्मना ।।
अब विशेष रूप से ध्यान दीजिएगा, और साथ में जोड़ते भी जाएं। क वर्ग के पांच अक्षरों क, ख, ग, घ, ङ् के साथ कण्ठ से उच्चारण ह अक्षर का भी होता है, इस प्रकार यह छः अक्षर हुए।
च वर्ग के पांच अक्षरों च, छ, ज, झ, ञ के साथ तालु से उच्चारण य और श अक्षर का भी होता है, इस प्रकार यह सात अक्षर हुए।
ट वर्ग के पांच अक्षरों ट, ठ, ड, ढ, ण के साथ मूर्धा से उच्चारण र और ष अक्षर का भी होता है, इस प्रकार यह सात अक्षर हुए।
त वर्ग के पांच अक्षरों त, थ, द, ध, न के साथ दन्त से उच्चारण ल और स अक्षर का भी होता है, इस प्रकार यह सात अक्षर हुए।
प वर्ग के पांच अक्षरों प, फ, ब, भ, म के साथ ओष्ठ से उच्चारण व अक्षर का भी होता है, इस प्रकार यह छः अक्षर हुए। इन्हीं पांच वर्गों में अलग-अलग वर्णों की कुल संख्या मिलाकर तैतीस हैं। जिन्हें हमारे सनातन धर्म में तैतीस कोटि देवी देवता कहा जाता है। यही तैतीस वर्ण, अर्थात अक्षर, अक्षर ब्रह्म, शब्द ब्रह्म अथवा स्वर ब्रह्म के नाम से जाने जाते हैं। इन्हीं 33 वर्णों में 33 कोटी देवी देवता अक्षर ब्रह्म के रूप में व्याप्त हैं। यहां यह भी स्मरण रखें कि कोटि का अर्थ प्रकार से है, करोड़ से नहीं। क्योंकि अभी भी उन लोगों की संख्या अधिक है जो कहते हैं कि तैतीस करोड़ देवी देवता होते हैं। कोटि अर्थात प्रकार। तैतीस प्रकार के इन सभी अक्षरों में अ कार समान रूप से व्याप्त है। अ रूपी अमृत बीज से सिंचित होने से ही निरन्तर क्षर होने वाला यह संसार भी अक्षर बन जाता है। अक्षर ही ब्रह्म है। इसलिए ही शब्द रूपी ब्रह्म की उपासना अक्षर ब्रह्म के रूप में होती है ।
इसी शब्द ब्रह्म की प्रतिमूर्ति श्रीमद् भागवत महापुराण है
और श्रीमद् भागवत महापुराण ही इस बात को प्रमाणित कर रहा है कि तीनों कालों में सत्य के रूप में अक्षर ब्रह्म ही स्थापित है। 
अभी तक हमने सत्य एवं नारायण पर चर्चा की, चर्चा काफी विस्तृत हुई किन्तु विषय पूर्ण रूप से स्पष्ट हो यह मूल उद्देश्य होता है हमारा। अब व्रत पर बात करते हैं। श्री सत्यनारायण व्रत कथा। तो व्रत क्या है?  और व्रत का महत्व क्या है ? 
व्रत का तात्पर्य होता है संकल्प, या प्रतिज्ञा। व्रत का तात्पर्य भूखे रहना अथवा उपवास से नहीं है किसी भी कार्य के प्रति संकल्पित होना ही व्रत कहलाता है। यहां पर संकल्प का तात्पर्य सत्य रूपी ब्रह्म का आश्रय लेना और स्वयं को सत्य में स्थापित कर, सत्य स्वरूप होना है। व्रत प्रतिज्ञा को कहते हैं। गंगा पुत्र देवव्रत को सभी जानते हैं। उन्होंने प्रतिज्ञा ही तो ली थी, कि जीवन पर्यंत ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूँगा। ब्रह्मचर्य व्रत। व्रत अर्थात प्रतिज्ञा। इसी प्रतिज्ञा के कारण तो नाम पड़ा पितामह भीष्म। व्रत यही है। व्रत प्रतिज्ञा है। सत्य रूपी नारायण, अर्थात ब्रह्म के पालन का संकल्प ही सत्यनारायण व्रत है। भूखे रहने को, अन्न के त्याग को अनशन कहते हैं। और उपवास का अर्थ है समीप रहना। तो समीप किसके? कहा सत्य रूपी ब्रह्म के। यदि आप भोजन पाकर, अन्न खाकर भी भगवान के समीप बैठे हैं और नाम जप या हरि नाम चर्चा या ग्रंथों का श्रवण करते हैं तो उसे उपवास ही कहा जाता है। 
उपवास करने के मूलतः यह चार मार्ग हैं 
नाम, रूप, लीला, और धाम ।
नाम अर्थात श्री भगवान के नाम का जप या कीर्तन करना।  
रूप का तात्पर्य है कि मंदिर जाकर भगवान के विग्रह के दर्शन करना। लीला का भाव है कि भगवान की लीला चरितों को, कथाओं को सुनना। और 
धाम से तात्पर्य है कि तीर्थो की यात्रा करना, तीर्थ वास करना। यह चार प्रकार के उपवास कहलाते हैं। यहां विशेष ध्यान देने वाली बात यह है कि श्री सत्यनारायण व्रत धारण करने हेतु यदि आप अन्न का त्याग करते हैं तो आपको आलस्य प्रमाद नहीं होगा। आलस्य व्रत संकल्प पूर्ण करने में बाधक बन सकता है। और उपवास के द्वारा आप अपनी इन्द्रियों का निग्रह कर सकते हैं। श्री भगवान कहते हैं कि - 
सन्मुख होई जीव मोहि जबहीं,
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं". 
अर्थात जैसे ही जीव मेरे सन्मुख होता है उसके करोड़ों जन्मों के पाप स्वतः ही भस्म हो जाते हैं । इसीलिए, व्रत के दिन यानी सत्य का संकल्प लेने के दिन उपवास करना और अन्नसन करना आपके द्वारा की गई प्रतिज्ञा को पूर्ण करने में सहायक होते हैं। अभ्यास धीरे धीरे ही करना चाहिए। पहले एक दिन का संकल्प, फिर एक सप्ताह का, फिर एक पक्ष का, फिर एक मास, फिर एक वर्ष का। यदि क्रम से संकल्प लेकर प्रतिज्ञा लेकर सत्य ब्रह्म का पालन कर सके तो एक वर्ष में ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। अब तक आपको सत्य नारायण व्रत का महत्व समझ आ गया होगा। तो अब कथा शब्द के भाव को समझने की चेष्टा करते हैं। कथा शब्द क एवं था इन दो अक्षरों के संयोग से बना है। यहाँ क अक्षर वेदांत की दृष्टि से ब्रह्म का द्योतक है। पूर्व में निवेदन किया था कि अक्षरों को क च ट त प इन पांच वर्गों में विभाजित किया गया है। क वर्ग प्रथम वर्ग है और क अक्षर प्रथम अक्षर है प्रथम ब्रह्म का द्योतक है। अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्। ब्रह्म ही प्रथम है। अतः क को ब्रह्म बीज कहते हैं। और कथा शब्द का दूसरा अक्षर है थ। जहां भी रुकने से संबंधित शब्द आएगा वहां अधिकांश थ का प्रयोग अवश्य होगा । जैसे - स्थापित, स्थिति, स्थापना, स्थानीय, स्थान, स्थायी, स्थल, थाह। बहुत से शब्द आपको और भी प्राप्त हो जाएंगे जिनका सम्बन्ध रुकने से, ठहरने से होगा। 
थ का तात्पर्य स्थपित होना ,स्थित होना था पाना, आदि से है।
एक बार एक सज्जन ने कहा थैला। तो थैला भी वस्तु को रखने में ही उपयोग किया जाता है। तो कथा शब्द में थ अक्षर का तात्पर्य भी रुकने, ठहरने से ही है। यदि पूरे शीर्षक को एक साथ कहें तो सत्यनारायण व्रत कथा का मूल भावार्थ ही है कि सत्य नारायण रूप ब्रह्म में स्वयं को स्थापित करने का संकल्प। स्वयं सत्य नारायण रूप ब्रह्म में स्थित होने की प्रतिज्ञा। यही भाव है। यही मूल अर्थ है सत्यनारायण व्रत कथा का । किन्तु लक्ष्मी के बिना नारायण की ही उपासना करना भी बहुत बार समस्या उत्पन्न कर सकती है। इसलिए 
सत्यनारायण व्रत कथा कहने से पूर्व श्री लगाना परम् आवश्यक है। श्री का अर्थ ही है लक्ष्मी। लक्ष्मी अर्थात मान, सम्मान, धन, वैभव, यश, पुत्र, प्रजा, साधन । यह सब श्री है। यह सब नारायण की शक्ति लक्ष्मी है। अतः श्री से युक्त सत्य को धारण करने के लिए जो सत्यनारायण कथा में कथानक हैं वह एक ही बात बता रहे हैं कि आप सत्यव्रत को धारण करें, जिससे आपको संसार की भौतिक सुख सम्पदाओं के साथ अध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति हो, और आप इस लोक में समस्त सुखों का उपभोग कर पूर्णायु भोगकर इस पंचभौतिक कलेवर का त्याग कर, भगवान के नित्य निवास वैकुण्ठ में सायुज्य मुक्ति प्राप्त करें। बोलिये श्री सत्यनारायण भगवान की - जय। धैर्य पूर्वक यदि आपने यहां तक वीडियो को देख है तो जनकल्याण की भावना से शेयर भी अवश्य करें। जय श्री कृष्ण


श्री गणेशजी का विसर्जन क्यों

Vedic Astro Care | वैदिक ज्योतिष शास्त्र
आजकल गणपति विसर्जन को लेकर फेसबुक व्हाट्सएप आदि पर एक चर्चा चल रही है कि उत्तरभारत में गणेश विसर्जन नहीं होना चाहिए। दक्षिण भारत में ही सही है। सभी लोग अपनी अपनी क्षमता के आधार पर अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। बहुत से लोगों ने हमसे इस विषय पर अनेकों प्रश्न किए हैं, जैसे गणपति विसर्जन क्यों होता है। गणेश जी का विवाह सच में हुआ था या नहीं। गणेश जी के भाई स्वामी कार्तिकेय माता पिता भाई से रुष्ट क्यों हुए। क्या स्वामी कार्तिकेय जी का भी विवाह हुआ। गणेश जी दक्षिण भारत क्यों गए। एवं उनका विसर्जन करना चाहिए या नहीं। प्रश्न अनेक हैं। और अधिकतर प्रश्न पण्डितों के द्वारा ही किए गए हैं। यदि सामान्य जनमानस के प्रश्न हों तो उत्तर भी सामान्य चल जाएंगे। किन्तु सनातन का उचित ज्ञान रखने वाले ब्राह्मण देवता ही यदि प्रश्नकर्ता हों तो उत्तर भी तार्किक होना परमावश्यक हो जाता है। अपनी अल्पमति के अनुसार इन विषयों पर थोड़ी चर्चा कर लेते हैं। विचार से यदि सहमत ना हों तो कृपया कमेंट बॉक्स में तर्क के साथ अवश्य लिखें। ताकि हम भी सही ज्ञान से अछूते न रहें। 
गणेश जी से सन्दर्भित अनेकों कथाएं प्रचलित हैं। गणेश जी का जन्म नहीं बल्कि गणेश जी का निर्माण माता पार्वती के द्वारा उबटन से  किया गया था। जिन्हें माता पार्वती ने पुत्र रूप में स्वीकार किया है। एवं स्वामी कार्तिकेय जी का जन्म भगवान शिव एवं माता पार्वती के पुत्र रूप में हुआ है। एक ओर जहां गणेश समस्त गणों के ईश अर्थात स्वामी हैं, वहीं स्वामी कार्तिकेय देवताओं के प्रमुख सेनापति हैं। गणेश जी का विवाह ऋद्धि एवं सिद्धि जी के साथ हुआ है और स्वामी कार्तिकेय जी का विवाह वल्ली एवं देवसेना के साथ हुआ है। दोनों ही विवाहित हैं। एक बार देवर्षि नारद एक दिव्य फल लेकर कैलाश पर्वत पर पँहुचे, उस दिव्य फल को लेने की इच्छा से श्री गणेश जी एवं स्वामी कार्तिकेय जी के मध्य ब्रह्मांड की तीन परिक्रमा करने की प्रतियोगिता हुई। स्वामी कार्तिक तो अपने वाहन मयूर पर आरूढ़ होकर परिक्रमा करने हेतु चले गए किन्तु श्री गणेश जी द्वारा अपनी माता पार्वती एवं पिता भगवान शिव की ही तीन प्रदक्षिणा कर, माता पिता ही समस्त संसार हैं इस तर्क के द्वारा अपने भ्राता स्वामी कार्तिकेय को परास्त कर दिया गया था। किन्तु इस बात से स्वामी कार्तिकेय रुष्ट होकर कैलाश पर्वत का त्याग कर देवताओं के सेनापति के रूप में दक्षिण भारत चले गए। तारकासुर वध के उपरांत ही स्वामी कार्तिकेय को देवताओ से सदैव युवा रहने का वरदान प्राप्त हुआ । दक्षिण में स्वामी कार्तिकेय मुरुगन नाम से भी जाने जाते हैं। श्री गणेश जी अपने भाई स्वामी कार्तिकेय जी को मिलने के लिए ही दक्षिण भारत आए थे। पुराणों के अनुसार वेदव्यास जी के द्वारा रचित महाभारत ग्रन्थ को लिखने के उपरांत गणेश जी जब कैलाश पर्वत आए तो ऋषि अगस्त्य जी से भेंट हुई। अगस्त्य ऋषि के साथ ही गणेश जी ने दक्षिण भारत की यात्रा की। कावेरी एवं गोदावरी नदियों को प्रकट किया। विषय थोड़ा विस्तृत हो रहा है अतः मूल विषय पर आते हैं। गणेश शब्द का शाब्दिक अर्थ है गणों का ईश। ईश अर्थात स्वामी। ऐसे ही गणपति का भी शाब्दिक अर्थ है गणों के पति। पति का अर्थ भी स्वामी ही होता है। और गणेशोत्सव में जहां भी विसर्जन की बात आती है तो प्रयोग गणेश विसर्जन या गणपति विसर्जन शब्द का ही होता है। ईश या पति का तात्पर्य स्वामी से है। अर्थात गणेश जी समस्त शिवगणों के स्वामी हैं। और स्वामी कार्तिकेय देवताओं के सेनापति होने के साथ ही शिव गण भी हैं। अतः जब गणेशजी दक्षिण भारत में स्वामी कार्तिकेय जी के पास गए तो उन्हें राजा का सम्मान प्रदान किया गया। वह जब तक दक्षिण में रहे उन्हें राजा के रूप में ही पूजा गया। इसीलिए आज भी मुंबई में लालबाग के राजा के रूप में ही गणेशजी की स्थापना की जाती है। अच्छा मुम्बई में गणेशजी सिद्धि विनायक के रूप में विराजमान हैं। सिद्धिविनायक। शब्द में ही अर्थ एवं भाव व्याप्त रहता है। पहले विनायक पर चर्चा करते हैं। विनायक में वि विशेषण है। वि का तात्पर्य विशेष से है। जहां भी विशेषता दर्शानी हो वहां वि का प्रयोग करते हैं। जैसे विद्वान, अर्थात विशेष विद्या को जानने वाला। वियोग, योग का अर्थ है जुड़ना। वि विशेषण लगने से शब्द बना वियोग। अर्थात विशेष रूप से जुड़ना। ठीक इसी प्रकार मूल शब्द है नायक।
नायक शब्द का प्रयोग ही उस व्यक्तित्व के लिए होता है जो 
 प्रतिकूल परिस्थितियों में संकटों का सामना करते हुए, चतुराई, साहस या शक्ति के माध्यम से प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अनुकूल कर दे। श्रीगणेश जी बुद्धि के तर्क के देवता हैं। विघ्नहर्ता हैं। ऋद्धि सिद्धि के दाता हैं। अतः नायक हैं। यही विनायक हैं। नायक शब्द में वि विशेषण लगने से ही शब्द बना विनायक। अर्थात विशेष राजा। तो श्री गणेशजी को विशेष रूप से नायक अर्थात राजा के रूप में स्थापित करना ही गणेश विसर्जन है। विनायक, गणेश, गणपति शब्दों के अर्थ पर हम विस्तार पूर्वक विचार कर चुके हैं। अब विसर्जन शब्द पर चर्चा करते हैं। हालांकि यह संस्कृत व्याकरण का विषय है । अतः यह विशेष ध्यान देने योग्य है। एक शुद्ध शब्द है 'सर्जन' । संस्कृत व्याकरण के अनुसार, 'सर्जन' शब्द 'सृज्' धातु से बना है।  'सृज्' एक तुदादि गण, परस्मैपदी धातु है। सामान्यतः 'सर्जन' शब्द के कई अर्थ हैं जैसे - सृष्टि का उत्पन्न होना, कोई वस्तु निर्मित करना या उत्पादित करना,। साधारण भाषा में 'सर्जन' का अर्थ है निर्माण कर्ता अथवा निर्माण। जब किसी धातु में अन या अनीय प्रत्यय लगता है तथा धातु के अंत में इक् स्वर अर्थात इ,उ,ऋ,लृ तथा इनका दीर्घ रूप, हो तो अन या अनीय प्रत्यय लगाते समय लघु उपधा/ इक् स्वर का गुण हो जाता है। जैसे - इ और ई  का ए होना। जैसे उ और ऊ का ओ हो जाना। उदाहरण के लिए लिख् और अनीय, लेखनीय बनेगा। लिख् और अन,  लेखन शब्द बनेगा।कृष् और अन, कर्षण बनेगा। दृश् और अन दर्शन बनेगा। ठीक इसी प्रकार सृज् और अन से सर्जन शब्द बनेगा। सम्भवतः आंग्लभाषा का "Sergon" शब्द भी निर्माण के अर्थ में ही लिया गया होगा। सर्जन अर्थात सर्जरी करने वाला डॉक्टर। क्योंकि वह भी सुधार करता है, बनाता है, निर्माण करता है, अतः संस्कृत भाषा के सर्जन शब्द को उनके सम्बोधन हेतु प्रयोग किया गया होगा। यहां हम मूलतः विसर्जन शब्द पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे। सर्जन शब्द कैसे बना यह संस्कृत व्याकरण के अनुसार बताया। सर्जन शब्द में भी वि विशेषण लगाकर शब्द बना विसर्जन। शब्द का अर्थ हुआ, विशेष रूप से निर्माण करने वाला। अतः इसे यदि एक ही पंक्ति में कहें तो समस्त गणों के स्वामी श्री गणेश जी को विशेष नायक का पद सृजित कर, अर्थात विशेष राजा के पद पर, विनायक रूप में, विशेष निर्माण हेतु विसर्जन करना। क्या आप भाव समझ पाए? विसर्जन का तात्पर्य केवल जल में डुबाना नहीं है। अच्छा यदि कर्मकांड विधि की बात भी करें तो भी गणेश जी लक्ष्मी जी को विदा नहीं किया जाता। अन्य सभी आवाहित देवताओं को विसर्जित कर देते हैं। किंतु गणेश जी लक्ष्मी जी को अपने ही घर में अपने घर के मंदिर में अथवा तिजोरी आदि में स्थापित किया जाता है। 
गणेश पुराण में ही श्लोक मिलता है कि - 
महाजलाशयं गत्वा विसृज्य निनयेज्जले। 
वाद्यगीतध्वनियुतो निजमन्दिरमाव्रजेत् ॥
अर्थात सार्वजनिक पंडाल में पूजन उत्सव की पूर्णाहुति के उपरांत सभी भक्त जन किसी पवित्र नदी अथवा समुद्र के तट पर जाएं, और श्रीगणेश जी का अभिषेक कर वाद्ययंत्रों की ध्वनि के साथ संकीर्तन करते हुए अपने घर को आएं। विसृज्य से तात्पर्य जल में डुबाने से नहीं अपितु विशेष पद सृजित करने से है। राजा के पद पर बैठने वाले व्यक्ति का राज्याभिषेक ही तो किया जाता है। अतः गणेश जी का उत्सव मनाने के बाद उनका राज्याभिषेक कर, आप भी उन्हें विनायक बनाइए, अर्थात अपने विशेष नायक बनाइए। यही भाव है। एक ही शब्द के बहुत से अर्थ हो सकते हैं। किंतु कब किस सन्दर्भ में क्या अर्थ लिया जाए, यह महत्वपूर्ण है। यही इस विषय में भी हो रहा है। यदि और अच्छे से समझना है तो कृपया गणेश पुराण का अध्ययन करें। गणेश पुराण में स्पष्ट उल्लेख है कि - 
सर्वरोगप्रपीडासु मूर्तीनां त्रयमुत्तमम् ।
नवाहं पूजयेद्यस्तु सर्वपीडां व्यपोहति ॥
सौवर्णी राजती ताम्री रीतिकांस्यसमुद्भवा ।
मौक्तिकी च प्रवाली च सर्वमेतत्प्रयच्छति ॥
गणेश जी की प्रतिमा का निर्माण देशी गाय के गोबर या विशेष मिट्टी, जिसे उबटन में प्रयोग किया जाता है, उससे करना सर्वश्रेष्ठ होता है। इसके अतिरिक्त पत्थर से, लकड़ी से, सोना चांदी पीतल ताँबा आदि धातुओं से और यहां तक कि रत्नों से भी श्रीगणेश जी की प्रतिमा बना सकते हैं। सुपारी और नारियल को भी गणेश जी के स्वरूप में पूजा जा सकता है। गणेशोत्सव बड़े धूमधाम से मनाएं। किन्तु विसर्जन का भाव पहले भलीभांति समझ लें। यह ना करें कि दस दिन खूब उत्सव मनाएं और फिर विसर्जन के नाम पर अनादर हो जाए। भूलकर भी चूने या सीमेंट आदि रासायनिक पदार्थों से निर्मित गणेश जी को स्थापित न करें। दिखावे से बचें। कोई लाभ नहीं है कि सौ फुट की प्रतिमा लगाई है या हजार फुट की। उत्सव के बाद उन प्रतिमाओं की दुर्गति ही की जाती है। धर्म के नाम पर अधर्म करने से बचें। पुण्य के नाम पर पाखण्ड ना करें, यही हाथ जोड़कर विनती करते हैं। और हां, यह भी आवश्यक नहीं है कि हर कोई हमारे विचार से सहमत ही हो। किन्तु असहमति का कारण समुचित अध्ययन करने के उपरांत सभ्य शब्दों में कमेंट बॉक्स में अवश्य लिखें। आप सभी दर्शकों के मंगलमय जीवन हेतु मैं आचार्य हिमांशु ढौण्डियाल एक बार पुनः भगवान श्री गणेश जी से प्रार्थना करता हूँ, नमस्कार।


सोमवार, 11 मार्च 2024

श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्

Vedic Astro Care | वैदिक ज्योतिष शास्त्र

॥ श्रीदुर्गायै नमः ॥

श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्

ईश्वर उवाच

शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने ।
यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती ॥१॥ 

ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी ।
आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी ॥ २ ॥ पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः। 
मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः ॥ ३ ॥
सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी । 
अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः ॥ ४ ॥
शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा । 
सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी ॥ ५ ॥
अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती। 
पट्टाम्बरपरीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी ॥ ६ ॥


अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सुरसुन्दरी। 
वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता ॥ ७ ॥
ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा।
चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः ॥ ८ ॥
विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा ।
बहुला बहुलप्रेमा निशुम्भशुम्भहननी मधुकैटभहन्त्री च सर्वासुरविनाशा च सर्ववाहनवाहना ॥ ९ ॥ 
महिषासुरमर्दिनी । चण्डमुण्डविनाशिनी ॥ १०॥ सर्वदानवघातिनी । सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा ॥ ११॥

अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी । 
कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः ॥ १२ ॥ 
अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा। 
महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला ॥ १३ ॥ 
अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी । 
नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी ॥ १४ ॥
शिवदूती कराली च अनन्ता  परमेश्वरी । 
कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी ॥ १५ ॥
य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम्। 
नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति ॥ १६ ॥ 
धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च। 
चतुर्वर्गं तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम् ॥ १७ ॥

कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम्। 
पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम् ॥ १८ ॥ 
तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वैः सुरवरैरपि। 
राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवाप्नुयात् ॥ १९ ॥
गोरोचनालक्तककुङ्कुमेन सिन्दूरकर्पूरमधुत्रयेण 
विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारिः ॥ २० ॥ 
भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते । 
विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् सम्पदां पदम् ॥ २१ ॥

इति श्रीविश्वसारतन्त्रे दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं समाप्तम्।


Our Team

  • आचार्य हिमांशु ढौंडियालExpert/Astrologer